आलू और प्याज के उत्पादकों का बार-बार होने वाला संकट :
एकमात्र समाधान-लाभकारी क़ीमतों पर राज्य द्वारा ख़रीद की गारंटी

हिन्दोस्तान में थोक प्याज के सबसे बड़े बाज़ार, महाराष्ट्र के नाशिक में प्याज की क़ीमतें पिछले दो महीनों में लगभग 70 प्रतिशत गिर गई हैं। महाराष्ट्र में प्याज उत्पादक अपनी फ़सल को एक रुपये से दो रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेचने को मजबूर हैं। उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और पश्चिम बंगाल में आलू के किसानों को इसी तरह के संकट का सामना करना पड़ा है। आलू की क़ीमतें 4 रुपये प्रति किलोग्राम से नीचे आ गईं, जो उनकी उत्पादन लागत से काफी कम हैं।

Dumped_onionइसकी वजह से कई किसान क़र्ज़ में डूब गये हैं। मार्च 2023 की शुरुआत में पश्चिम बंगाल से दो किसानों के आत्महत्या करने की ख़बरें आई हैं। नाशिक में एक प्याज उत्पादक किसान ने फ़सल को जला दिया, जबकि कई उत्पादकों ने फ़सल की खुदाई करके उपज को बाज़ारों तक पहुंचाने के बजाय प्याज को खेत में ही सड़ने दिया।

शीतभंडारों में रखे बिना प्याज और आलू के जल्दी ख़राब हो जाने के कारण, उत्पादकों के पास अपनी उपज को बाज़ार मूल्य पर बेचने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है क्योंकि वे लंबे समय तक इन्हें अपने भंडार में नहीं रख पाते हैं। बड़े व्यापारी और कॉरपोरेट, किसानों की इस विवशता का फ़ायदा उठाते हैं। आलू उत्पादकों को अक्सर अपनी उपज को 1 या 2 रुपये प्रति किलो तक की कम क़ीमत पर बेचने के लिए मजबूर किया जाता है। ऐसे औने-पौने दामों पर ख़रीदने वाले बड़े व्यापारी और कॉरपोरेट इसे शीतभंडारों में रख देते हैं और दाम बढ़ने पर बाज़ार में बेचते हैं।

शहर के बाज़ारों में आपूर्ति को नियंत्रित करके बड़े व्यापारी और कॉरपोरेट ट्रेडिंग कंपनियां खुदरा क़ीमतों को कृत्रिम रूप से ऊंचा रखने में सक्षम होती हैं। इस बार भी, जबकि ख़रीद मूल्य में बहुत गिरावट आयी है, खुदरा मूल्य अपेक्षाकृत कम गिरे हैं। बड़े व्यापारियों और कॉरपोरेट ट्रेडिंग कंपनियों ने स्टॉक को शीतभंडारों में डाल दिया है, वे स्टॉक को बाज़ार के लिये धीरे-धीरे निकालेंगी ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उन्हें बेहतर क़ीमत मिले।

Dumped_onionप्याज और आलू मज़दूरों और किसानों के भोजन का प्रमुख हिस्सा हैं। हिन्दोस्तान में इनकी क़ीमतें अत्यधिक अस्थिर हैं। आपूर्ति में थोड़ी सी भी अधिकता, क़ीमतों को नीचे गिरा देती है और प्याज व आलू की खेती करने वाले हजारों किसानों को संकट में डाल देती है। इसी तरह आपूर्ति में कमी हो जाने से क़ीमतें बढ़ जाती हैं, जिससे मेहनतकश लोगों का गुस्सा भड़क जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हिन्दोस्तानी राज्य ने किसानों से लाभकारी क़ीमतों पर प्याज और आलू की फ़सलों की गारंटीकृत ख़रीदी सुनिश्चित करने से जानबूझकर इंकार किया है। प्याज और आलू उगाने वाले किसानों को बड़े व्यापारियों और कॉर्पोरेट ट्रेडिंग कंपनियों द्वारा नियंत्रित बाज़ार की दया पर छोड़ दिया गया है। फ़सल अच्छी हो या ख़राब, किसानों को नुक़सान ही उठाना पड़ता है, क्योंकि उन्हें आलू और प्याज की अपनी फ़सल का बड़ा हिस्सा खुदाई के तुरंत बाद बेचना पड़ता है।

उत्पादन अधिक होने पर 2018 और 2019 में आलू की क़ीमतें गिर गईं। 2020 में खुदरा बाज़ारों में आलू की क़ीमतें चार गुना बढ़कर औसतन 60 रुपये प्रति किलो हो गईं, जबकि 2019 में यह 10-15 रुपये प्रति किलो थी। खुदरा मूल्य में इस वृद्धि का एक प्रमुख कारक यह था कि कई किसानों ने 2020 में आलू की खेती नहीं की थी, क्योंकि पिछले वर्ष उन्हें बहुत नुक़सान हुआ था। आपूर्ति कम होने से आलू के दाम आसमान छूने लगे थे।

प्याज उत्पादकों को भी इसी स्थिति का सामना करना पड़ता है। 2016 में किसान अपना प्याज 1 रुपये प्रति किलो से भी कम क़ीमत पर बेचने के लिए मजबूर हो गये थे। पश्चिमी महाराष्ट्र और तेलंगाना में संकट के कारण कई किसानों ने आत्महत्या की थी। 2017 में प्याज के दाम एक बार फिर गिरे। 2022 में बारिश के कारण फ़सलों को हुये नुक़सान और प्याज की खुदाई में देरी के कारण इसकी थोक क़ीमतें लगभग तीन गुना बढ़ गईं।

हर साल पैदा होने वाले प्याज और आलू की मात्रा, मौसम की स्थिति के साथ-साथ बोए गए कुल क्षेत्रफल सहित कई कारकों पर निर्भर करती है। किसान जब भरपूर फ़सल पैदा करते हैं तब भी और जब उनकी फ़सल ख़राब हो जाती है तब भी, नुक़सान ही झेलते हैं। किसानों को उनकी उपज के लिए मिलने वाली क़ीमतें बाज़ार को नियंत्रित करने वाली बड़ी व्यापारिक कंपनियों द्वारा निर्धारित की जाती हैं।

देश की उत्पादन क्षमता के लगभग एक तिहाई के साथ, उत्तर प्रदेश आलू का सबसे बड़ा उत्पादक है। उत्तर प्रदेश में क़रीब 25 लाख किसान आलू की खेती करते हैं। हिन्दोस्तान के सालाना 2.5-2.6 करोड़ टन प्याज के उत्पादन में महाराष्ट्र की हिस्सेदारी क़रीब 40 फीसदी है। नाशिक जिला देश में प्याज का सबसे बड़ा उत्पादक है।

दुनिया में प्याज और आलू के सबसे बड़े उत्पादकों और उपभोक्ताओं में से हिन्दोस्तान एक है। प्रत्येक दूसरे या तीसरे वर्ष अतिउत्पादन या आपूर्ति की कमी का चक्र होता है। यह करोड़ों किसानों के लिये विनाशकारी होता है। फिर भी करोड़ों किसानों को बार-बार होने वाले संकट से बचाने के लिए न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारों ने कोई उपाय किये हैं।

यह सर्वविदित है कि प्याज और आलू जैसे ख़राब होने वाले खाद्य पदार्थों के उत्पादन और भंडारण पर मौसम का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। देश के प्रत्येक प्रमुख उत्पादन क्षेत्र के आसपास सरकारों द्वारा मौसम संरक्षित भंडारण सुविधाओं और पर्याप्त क्षमता के शीतभंडारों के निर्माण की आवश्यकता किसानों को होती है।

उचित भंडारण सुविधाओं की कमी के कारण हर साल बड़ी मात्रा में प्याज और आलू ख़राब हो जाते हैं। खाद्य, उपभोक्ता मामलों और सार्वजनिक वितरण पर संसद की स्थायी समिति ने हाल ही में बताया है कि ख़राब होने के कारण पिछले तीन वर्षों में 5.1 करोड़ टन से अधिक प्याज नष्ट हो गया है। समिति ने कहा कि प्याज के लिए केंद्र द्वारा संचालित भंडारण सुविधाएं ख़राब गुणवत्ता वाली हैं और तत्काल उनकी मरम्मत करने की आवश्यकता है।

जब भी क़ीमतें गिरती हैं, केंद्र सरकार यह कहकर कि कृषि राज्य का विषय है, पल्ला झाड़ लेती है और संकट से निपटने का काम राज्य सरकारों पर छोड़ देती है। लेकिन, जब केंद्र सरकार को पूंजीपति-परस्त कृषि क़ानूनों को बनाना था, तब उसने इसे अपनी ज़िम्मेदारी के रूप में लिया था।

बाग़वानी और अन्य कृषि वस्तुयें, जो जल्दी से ख़राब हो जाती हैं, ये न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी) के दायरे में नहीं आती हैं। इनके उत्पादकों के लिये चिंता का दिखावा करने के लिए केंद्र सरकार ने दिसंबर 2014 में बाज़ार हस्तक्षेप योजना (एम.आई.एस.) की घोषणा की थी। लेकिन, किसानों को उस योजना का लाभ अब तक नहीं मिला है। केवल राज्य सरकार के अनुरोध पर ही केंद्र द्वारा इसे लागू किया जाता है। किसानों को दिया जाने वाला मुआवज़ा केंद्र और राज्य सरकार के बीच 50-50 प्रतिशत के अनुपात में बांटा जाना होता है। किसानों को मुआवज़ा देने की आधी ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल कर केंद्र सरकार यह सुनिश्चित करती है कि व्यवहार में किसानों को दिया जाने वाला मुआवज़ा कम से कम हो, क्योंकि राज्य सरकारों के पास पैसा नहीं है। ऐसी स्थिति में, किसानों का गुस्सा ठंडा करने के लिए राज्य सरकारें नाम मात्र की राशि देना पसंद करती हैं।

साल दर साल, किसानों ने यह मांग की है कि सरकार को प्याज के लिए एक न्यूनतम मूल्य तय करना चाहिए और उससे नीचे के मूल्य पर कोई ख़रीदारी नहीं होने देनी चाहिए। इसके अलावा, वे चाहते हैं कि नेशनल एग्रीकल्चरल कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (नेफेड) जैसी केंद्रीय एजेंसी उत्पादन और मांग में मौसमी बदलावों का ध्यान रखने के लिए की गयी ख़रीद और बफर स्टॉक का रखरखाव करे।

उपरोक्त उपाय करने के बजाय, इस महीने महाराष्ट्र सरकार ने प्याज के किसानों को 3 रुपये प्रति किलो के हिसाब से मुआवज़ा देने की घोषणा की है। जब किसानों ने मुंबई के लिए एक विरोध जुलूस शुरू किया, तो मुआवज़े को बढ़ाकर 3.5 रुपये प्रति किलोग्राम कर दिया गया, जबकि इससे किसानों के भारी नुक़सान की पूर्ती नहीं होगी। अगर उन्हें उत्पादन की लागत से कम से कम 4 रुपये प्रति किलो अधिक कमाने हैं तो उन्हें कम से कम 12-13 रुपये प्रति किलो का मूल्य मिलना आवश्यक है। ।

उत्तर प्रदेश की सरकार ने भी वर्तमान सीज़न में आलू उत्पादकों से 6.50 रुपये प्रति किलो की दर से आलू की ख़रीदारी करने की सहमति देकर राहत की घोषणा की है, जिसे उत्पादकों ने एक मजाक बताया है। उनकी उत्पादन लागत 10 रुपये प्रति किलोग्राम है, और वे उत्पादन लागत को पूरा करने और उचित शुद्ध लाभ पाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य 15 रुपये प्रति किलोग्राम की मांग कर रहे हैं।

हिन्दोस्तानी राज्य बड़े व्यापारियों और बड़ी कॉर्पोरेट श्रृंखलाओं को ख़रीद, थोक और खुदरा क़ीमतों में हेरा-फेरी करने की अनुमति देकर उनके हितों की रक्षा करता है। बताया जा रहा है कि देश में प्याज की क़ीमतों पर सिर्फ एक दर्जन बड़े व्यापारियों का नियंत्रण है! किसानों और जनसमूह को इन मुनाफ़ाखोरों के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है।

राज्य द्वारा फ़सल के समय, सभी फ़सलों की लाभकारी क़ीमतों पर ख़रीद की गारंटी देने और सभी प्रमुख उत्पादन और वितरण केंद्रों के पास प्रभावी भंडारण के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करने से ही किसानों के हितों की रक्षा की जा सकती है। इससे व्यापारियों और बड़ी खुदरा श्रृंखलाओं का दबदबा ख़त्म होगा और ख़रीद व बिक्री के मूल्य, दोनों में हेरा-फेरी ख़त्म होगी। किसानों की आजीविका को सुरक्षित करने के लिए सभी कृषि उत्पादों की गारंटीकृत क़ीमतों पर सार्वजनिक ख़रीद होनी चाहिए। इसके अनुरूप ही एक सर्वव्यापी सार्वजनिक वितरण प्रणाली बनाई जानी चाहिए जो शहरों और गांवों में सभी लोगों की सभी आवश्यकताओं की आपूर्ति करेगी।

आबादी की भारी बहुसंख्या के हित में इन क़दमों को लागू करने से हिन्दोस्तानी राज्य इंकार क्यों कर रहा है? इसका उत्तर इस तथ्य में है कि हिन्दोस्तानी राज्य मज़दूरों और किसानों के व्यापक जनसमूह पर इजारेदार पूंजीपतियों के नेतृत्व वाले पूंजीपति वर्ग के राज का बचाव करता है। अर्थव्यवस्था की दिशा मज़दूरों के शोषण को तेज़ करके, किसानों को लूटकर और देश के प्राकृतिक संसाधनों को लूटकर इजारेदार पूंजीपतियों के मुनाफ़े को अधिकतम करना है। केंद्र और राज्यों की हर सरकार इस मज़दूर-विरोधी, किसान-विरोधी दिशा में काम करती है।

मज़दूरों और किसानों को पूंजीपति वर्ग के शासन की जगह पर अपने स्वयं के शासन को प्रस्थापित करने के उद्देश्य से संघर्ष करने की ज़रूरत है। तभी हम इजारेदार पूंजीवादी लालच की बजाय यह सुनिश्चित करने के लिए अर्थव्यवस्था को नई दिशा देने में सक्षम होंगे जिसमें सामाजिक ज़रूरतों को पूरा किया जा सके। तभी हम किसानों की आजीविका की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकेंगे।

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