इराक पर अमरीका की अगुवाई में किये गये हमले की 20वीं बरसी :
अमरीका सभी देशों की संप्रभुता और विश्व-शांति का सबसे बड़ा दुश्मन है

19 मार्च को, अमरीका की अगुवाई में, अमरीकी व ब्रिटिश सेनाओं तथा कुछ अन्य देशों की सेनाओं द्वारा इराक पर किये गए हमले की 20वीं बरसी है। वह एक बहुत ही बेरहम, अवैध और बिना किसी उकसाहट के किया गया हमला था।

protest against us invasion of iraqसाम्राज्यवादियों की सेनाओं ने बगदाद और अन्य शहरों पर लगातार बमबारी करके उन्हें तहस-नहस कर दिया था। सिर्फ 2003 में ही अमरीका और ब्रिटेन की सेनाओं ने 29,200 हवाई हमले किए थे। उनकी सेनाओं ने इराक के लोगों पर मिसाइलें बरसाईं और अप्रत्याशित पैमाने पर मौत और तबाही मचाई थी।

इराक पर हमले को जायज़ ठहराने के लिए एंग्लो-अमरीकी साम्राज्यवादियों ने एक बहुत बड़ा झूठ गढ़ा था। उन्होंने ऐलान किया था कि उन्हें सबूत प्राप्त हैं कि इराक के पास जैविक-हथियार जैसे जनसंहार के हथियार हैं और कि इराक परमाणु बम बनाने की तैयारी कर रहा है।

इराक पर किये गये हमले को जायज़ ठहराने के लिए, 5 फरवरी, 2003 को तत्कालीन अमरीकी विदेश मंत्री कॉलिन पॉवेल ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक ”खुफिया रिपोर्ट” पेश की थी जो पूरा फरेब था। वह रिपोर्ट 30 जनवरी, 2003 को ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट पर आधारित थी। ब्रिटिश सरकार की उस रिपोर्ट का शीर्षक था “इराक और उसकी गोपनीयता, धोखाधड़ी तथा धमकाने का ढांचा” (“इराक-इट्स इंफ्रास्ट्रक्चर ऑफ कंसीलमेंट, डिसेप्शन एंड इंटिमिडेशन”), जिसमें इराक पर जनसंहार के हथियार रखने का आरोप लगाया गया था। यह पाया गया था कि उस रिपोर्ट को तीन अलग-अलग लेखकों द्वारा लिखे गये और इंटरनेट पर चढ़ाये गये तीन लेखों से कॉपी-पेस्ट करके व उसमें और मिर्च-मसाला डालकर तैयार किया गया था। यह भी पाया गया था कि उस रिपोर्ट का एक बहुत बड़ा हिस्सा 12 साल पुराने, एक अमरीकी स्नातक के पोस्टडॉक्टोरल थीसिस से हूबहू नक़ल किया गया था। यहां तक कि उसमें शब्दों तथा व्याकरण की गलतियां भी वैसी की वैसी ही नकल की गई थीं। युद्ध शुरू होने के एक महीने से भी अधिक समय पहले, 6 फरवरी, 2003 को ही इन सब बातों का ब्रिटिश मीडिया में खुलासा हो चुका था।

अमरीकी और ब्रिटिश सरकारों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सामने झूठ बोला था। उन्होंने अपने देशों के लोगों से झूठ बोला था। इराक के ख़िलाफ़ युद्ध उन्माद को भड़काने के लिए, अमरीकी विदेश मंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ में यह झूठ भी फैला दिया था कि इराक की सरकार के पास ‘स्माल पॉक्स विकसित करने और फैलाने की क्षमता’ थी। उनका वह दावा भी झूठा साबित हुआ था।

मई 2003 तक सी.आई.ए. के प्रमुख ने यह स्वीकार कर लिया था कि वे दस्तावेज़ फ़र्ज़ी थे – जिनमें यह दिखाने का दावा किया गया था कि इराक पश्चिम अफ्रीका के नाइजर से यूरेनियम आयात करने की कोशिश कर रहा था। इसके पहले, अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने उन फ़र्ज़ी दस्तावेज़ों का इस्तेमाल करके, यह दावा किया था कि इराक परमाणु हथियार बना रहा है। यह झूठा प्रचार भी किया गया था कि आतंकवादी गिरोह अल क़ायदा के साथ इराक की सरकार के ‘निकट संबंध’ हैं।

ब्रिटिश प्रधानमंत्री के कार्यालय से एक ज्ञापन, जो बाद में मीडिया में लीक हो गया था, उसमें बताया गया था कि अमरीकी और ब्रिटिश सरकारों के बीच में जुलाई 2002 में ही, इराक पर हमला करने के लिए सहमति हो गयी थी। उस ज्ञापन में कहा गया था कि अपने-अपने देशों के नागरिकों और दुनिया के लोगों के सामने, इराक पर हमले को जायज़ ठहराने के लिये पर्याप्त औचित्य तैयार करने की आवश्यकता है।

अमरीका ने इराक के ख़िलाफ़ युद्ध शुरू कर दिया था, हालांकि दोनों अमरीकी और ब्रिटिश सरकारें इस बात से अच्छी तरह वाक़िफ़ थीं कि इराक के पास जनसंहार के हथियार नहीं थे।

इराक के ख़िलाफ़ युद्ध शुरू करने के पीछे अमरीकी साम्राज्यवाद का उद्देश्य

इराक के ख़िलाफ़ किया गया युद्ध अमरीकी साम्राज्यवाद की, 21वीं सदी में पूरी दुनिया पर अपना प्रभुत्व जमाने की योजना का ही एक हिस्सा था।

अमरीकी साम्राज्यवाद ने 11 सितंबर, 2001 को न्यूयॉर्क में हुए आतंकवादी हमलों को बहाना बनाकर, ‘आतंकवाद पर जंग’ शुरू किया था। अमरीकी साम्राज्यवाद ने यह ऐलान किया था कि सभी राज्यों को या तो उस ‘आतंकवाद पर जंग’ में अमरीकी साम्राज्यवाद का साथ देना होगा, वरना उन्हें आतंकवाद का समर्थक माना जायेगा। इसके साथ-साथ, अफ़ग़ानिस्तान पर हमला और क़ब्ज़ा किया गया था। ये सब अमरीकी साम्राज्यवाद की उसी रणनीति के हिस्से थे।

साम्राज्यवादियों ने इस्लामोफोबिया को चरम सीमा तक पहुंचा दिया। उनका उद्देश्य था पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका और अन्य क्षेत्रों के अरब और मुस्लिम लोगों को अपने अधीन कर लेना और उनकी विशाल तेल-संपदा पर क़ब्ज़ा करना। अफ़ग़ानिस्तान पर हमले के साथ-साथ, अमरीकी साम्राज्यवाद ने इराक, ईरान, सिरिया, लिबिया और कुछ अन्य देशों पर भी हमले करने की बहुत सुनियोजित तैयारी की थी।

इराक तेल समृद्ध देश था। अमरीकी साम्राज्यवादी इराक के तेल पर नियंत्रण करना चाहते थे, ताकि अपने प्रतिस्पर्धियों को तेल से वंचित कर सकें। इराक उस समय यूरोपीय संघ को तेल सप्लाई कर रहा था। इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन, अमरीकी डॉलर की बजाय नई मुद्रा यूरो के साथ तेल का व्यापार करने के लिए, यूरोपीय संघ के साथ बातचीत कर रहे थे। अमरीका को यह डर था कि इससे यूरोपीय संघ के साथ-साथ यूरो भी मजबूत हो जायेगा। ऐसा होने से, कई और देश यूरो में व्यापार करना शुरू कर सकते थे, जिससे अमरीका और अमरीकी डॉलर की स्थिति कमजोर हो सकती थी। इस संभावना को जड़ से ही ख़त्म करने के लिए, अमरीकी साम्राज्यवादियों ने अपने ब्रिटिश सहयोगियों के साथ मिलकर, इराक पर हमला किया और उसे बुरी तरह से नष्ट कर दिया था।

अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा इराकी लोगों के ख़िलाफ़ किए गए अपराधों को न तो कभी भुलाया जा सकता है और न ही माफ़ किया जा सकता है

दुनिया के लोग यह कभी नहीं भूल सकते हैं कि इराक के लोगों ने अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिये, मानवजाति के सबसे ज़ालिम दुश्मन के ख़िलाफ़ बहुत ही बहादुरी से लड़ाई की थी। अमरीका और ब्रिटेन द्वारा इराकी लोगों के ख़िलाफ़ किए गए उस अन्यायपूर्ण युद्ध के विरोध में, अमरीका, ब्रिटेन और दुनिया के अन्य देशों में लाखों-लाखों लोग सड़कों पर उतर आए थे।

साम्राज्यवादियों ने उस युद्ध में सफेद फास्फोरस, डिप्लीटेड यूरेनियम और एक नए प्रकार के नेपाम जैसे रसायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया था। इनकी वजह से जन्म से ही होने वाली शारीरिक विकलांगताओं, कैंसर और छोटी उम्र में शिशुओं की मौतों की संख्या बहुत बढ़ गई। साम्राज्यवादियों ने जानबूझकर नदियों को प्रदूषित किया। उन्होंने सीवर के पानी को साफ़ करने वाले प्लांटों, अस्पतालों, पुलों और बिजली आपूर्ति के प्रतिष्ठानों को नष्ट कर दिया। उन्होंने इराक के संग्रहालयों को लूटा, जिनमें उस प्राचीन सभ्यता की अनमोल किताबें और कलाकृतियां रखी हुई थीं।

अनुमान लगाया गया है कि अमरीकी साम्राज्यवादियों द्वारा छेड़े गए युद्ध के कारण, 25 लाख पुरुषों, महिलाओं और बच्चों ने अपनी जानें गंवाई थीं। 40 लाख से अधिक लोगों को गंभीर चोटें आईं। 70 लाख से अधिक लोग शरणार्थीं बन गये थे। 10 लाख लोग लापता हो गए। 30 लाख महिलायें विधवा बन गईं और 50 लाख बच्चे अनाथ हो गए थे।

इराक पर हमला और उसका विनाश एक जघन्य युद्ध अपराध था। वह एक सुनियोजित जनसंहार था, जैसा कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाज़ियों ने किया था। एंग्लो-अमरीकी साम्राज्यवादियों ने अबू-घरेब जैसे यातना-केद्रों की स्थापना की थी, जहां इराकी देशभक्तों पर बेरहम अत्याचार किये जाते थे और बाद में उनकी हत्या कर दी जाती थी।

कमान की ज़िम्मेदारी के असूल के अनुसार, अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश, ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर और उन दोनों देशों के अन्य उच्च नागरिकों व सैन्य नेताओं को, उन युद्ध अपराधों के लिए सज़ा मिलनी चाहिए थी। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय क़ानून के तहत या अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आई.सी.सी.) जैसे साम्राज्यवादियों के नियंत्रण वाले संस्थानों में आज तक, उन्हें किसी एक भी अपराध के लिये दोषी नहीं ठहराया गया है।

इराक पर हमले और विनाश के बाद, लिबिया और सिरिया पर भी हमला करके उनका विनाश किया गया था। अमरीका ईरान, क्यूबा, वेनेजुएला, निकारागुआ, उत्तरी कोरिया और उन सभी देशों की संप्रभुता को ख़त्म करने की धमकी दे रहा है, जो उसके हुक्म को मानने से इनकार कर रहे हैं। अमरीकी सेनाओं ने दुनिया के सभी महाद्वीपों, समुद्रों और महासागरों में व्यापक तौर पर अपनी उपस्थिति बनाकर रखी हुई है। अमरीका का सैन्य खर्च उसके बाद के 8 देशों के मिलेजुले सैन्य खर्च से ज्यादा है।

अमरीकी साम्राज्यवाद दुनिया का दारोगा बनता फिरता है और दावा करता है कि वह ‘नियमों पर आधारित व्यवस्था’ की रक्षा कर रहा है। लेकिन अमरीकी साम्राज्यवाद खुद ही सभी अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों और देशों के बीच संबंधों को नियंत्रित करने वाले असूलों का सबसे ज्यादा हद तक हनन करता है। वर्तमान समय में उसने यूक्रेन में एक भयानक युद्ध छेड़ दिया है, जिसका उद्देश्य है रूस को घेरना और कमज़ोर करना, यूरोपीय संघ को कमज़ोर करना, यूक्रेन को नष्ट करना और यूरोप के ऊपर अमरीका के प्रभुत्व को मजबूत करना।

अमरीका देशों की संप्रभुता और विश्व शांति का सबसे जालिम दुश्मन है। वह सारी दुनिया के लोगों को एक ऐसे नये विश्व युद्ध की ओर धकेल रहा है, जो पिछले विश्व युद्धों की तुलना में कई गुना ज्यादा विनाशकारी होगा। सभी देशों की संप्रभुता और विश्व शांति की रक्षा के लिए यह ज़रूरी है कि हर देश के लोग अमरीकी साम्राज्यवाद के क़दमों पर रोक लगाने के लिए एकजुट हों।

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