पेरिस कम्यून और श्रमजीवी लोकतंत्र की श्रेष्ठता

सरमायदार शासक वर्गों का दावा है कि बहुपार्टीवादी प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र से बेहतर कोई विकल्प नहीं है
18 मार्च, 1871 को स्थापित हुए पेरिस कम्यून ने दिखाया था कि उससे बेहतर एक विकल्प है – श्रमजीवी लोकतंत्र

हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब अधिकांश पूंजीवादी देशों में लोग सरमायदारी लोकतंत्र की मौजूदा व्यवस्था के विकल्प की तलाश कर रहे हैं। लोगों का गुस्सा इस बात से है कि चुने हुए प्रतिनिधियों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। लोग राजनीतिक क्षेत्र पर इजारेदार पूंजीवादी घरानों के हितों की सेवा करने वाली पार्टियों के वर्चस्व से बहुत ख़फ़ा हैं। जबकि एक तरफ़ अधिकतम लोग सरमायदारी लोकतंत्र की व्यवस्था से बेहतर किसी विकल्प की तलाश कर रहे हैं, तो शासक वर्ग यह दावा करता रहता है कि “इसका कोई विकल्प नहीं है”। इस संदर्भ में, श्रमजीवी लोकतंत्र के प्रथम उदाहरण, पेरिस कम्यून, जिसकी सालगिरह 18 मार्च को है, उसके अनुभव का अध्ययन करना और उससे सीखना बहुत महत्वपूर्ण है।

पेरिस कम्यून की स्थापना फ्रांस की राजधानी पेरिस के बहादुर मज़दूरों ने की थी। वह फ्रेंको-प्रशिया युद्ध की वजह से पैदा हुए राष्ट्रीय संकट की हालतों में स्थापित किया गया था। पड़ोसी प्रशिया (जो अब जर्मनी का हिस्सा है) की सेनाएं फ्रांस की राजधानी की ओर बढ़ रही थीं। फ्रांस की सरमायदारी सरकार पेरिस छोड़कर भाग गई थी। इन हालतों में, पेरिस के श्रमजीवी वर्ग ने नेशनल गार्ड के साथ मिलकर, पेरिस कम्यून नामक अपनी खुद की राज्य सत्ता स्थापित की थी।

पेरिस कम्यून को सरकार की सभी ज़िम्मेदारियों को निभाने के साथ-साथ, राजधानी की सुरक्षा का इंतजाम भी करना था। उस समय एक ज्यादा शक्तिशाली दुश्मन, प्रशिया की सेना ने पेरिस को घेर रखा था। फ्रांस की सरमायदारों सरकार ने, अपने ही देश के श्रमजीवी वर्ग को कुचलने के लिए, विदेशी क़ब्ज़ाकारियों के साथ एक विश्वासघातक समझौता किया था।

मज़दूर वर्ग के बहादुर सेनानियों द्वारा किए गए भारी बलिदानों के बावजूद, पेरिस कम्यून दो महीने से अधिक नहीं टिक सका। फिर भी पेरिस कम्यून को, उन अभूतपूर्व क़दमों के लिए हमेशा याद किया जाएगा, जो उसने अपने छोटे जीवन काल के दौरान लिए। उसने दुनिया को दिखाया कि जब मज़दूर वर्ग राजनीतिक सत्ता को अपने हाथों में लेता है, तो वह क्या-कुछ करने में सक्षम होता है। उसने श्रमजीवी लोकतंत्र के सार को स्पष्ट कर दिया।

श्रमजीवी वर्ग की राज्य सत्ता की सेवा के लिए नई संस्थाएं

सभी शोषक वर्गों ने मेहनतकश और उत्पीड़ित लोगों पर अपना शासन क़ायम रखने के लिए स्थायी सेना, पुलिस, अफ़सरशाही, न्यायपालिका आदि जैसी बलप्रयोग की विशेष संस्थाओं पर निर्भर किया है। पेरिस कम्यून का महान योगदान यह था कि उसने इस बात को साबित किया कि मज़दूर वर्ग शोषकों के इन बने बनाये राज्यतंत्र के उपकरणों को वैसे-के-वैसे ही अपने क़ब्जे़ में लेकर, अपने लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता है। मज़दूर वर्ग को अपनी राज्य सत्ता के नए उपकरण बनाने पड़े। उसे एक ऐसे राज्य की स्थापना करनी पड़ी जो मेहनतकशों के हित में हो, न कि शोषकों के।

कम्यून ने स्थायी सेना और अफ़सरशाही को फ़ौरन, एक ही क़दम में ख़त्म कर दिया। स्थायी सेना के स्थान पर, आम मेहनतकश लोगों को हथियारों से लैस किया गया, और वे अपनी खुद की हुकूमत और राष्ट्र की सुरक्षा के लिए तैयार खड़े रहे। सभी सक्षम पुरुष नेशनल गार्ड में शामिल हो गए। पुरानी अफ़सरशाही, जो जनता से अलग और ऊपर खड़ी होती थी, उसकी जगह पर लोगों ने अब अपने अधिकारियों को चुना। उन अधिकारियों ने मज़दूरों के जैसे वेतन पर अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाया। मेहनतकश जनता ने खुद ही प्रशासन का काम-काज संभाला। न्यायाधीश भी लोगों द्वारा चुने जाने लगे। सरल, सस्ती और प्रभावी सरकार – यही कम्यून का नारा था।

बग़ावत के कुछ ही दिनों के अन्दर, पेरिस की घेराबंदी के चलते, कम्यून की परिषद के चुनाव किये गए। कम्यून द्वारा अपनाए गए क्रांतिकारी फ़ैसलों में से एक यह था कि परिषद को न केवल एक विधायी निकाय बनाना था बल्कि क़ानूनों को ज़मीनी तौर पर लागू करने के लिए भी ज़िम्मेदार बनाना था। दूसरे शब्दों में, विधायी निकाय सिर्फ़ बातें करने वाला तंत्र नहीं रहा। चुने हुए प्रतिनिधि अपने फ़ैसलों और काम के लिए लोगों के प्रति जवाबदेह थे, और लोग उन्हें किसी भी समय वापस बुला सकते थे।

पेरिस कम्यून में, मज़दूर वर्ग हुक्मरान शक्ति बतौर संगठित था। मज़दूर वर्ग ने सरकार के फै़सलों को लागू किया और श्रमजीवी वर्ग, महिलाओं तथा अन्य उत्पीड़ित लोगों को दबाने के लिए सदियों से इस्तेमाल किये जा रहे पुराने रीति-रिवाजों से लोगों को मुक्त कराने के ठोस क़दम लिए। मिसाल के तौर पर, कम्यून ने फैक्ट्री मालिकों द्वारा नियमित तौर पर मज़दूरों से वसूले जा रहे जुर्मानों को समाप्त कर दिया। इसके साथ ही, बाल श्रम को और बेकरियों में रात की पाली में काम कराने की प्रथा को ख़त्म कर दिया गया। जिन कारखानों और कारोबारों को उनके मालिक छोड़ कर भाग गए थे, उन्हें चलाने का काम मज़दूरों की सहकारी समितियों को सौंप दिया गया। जो घर व ज़मीन खाली पड़े थे, उन घरों और ज़मीनों को बेघर लोगों को सौंप दिया गया। कम्यून ने किराए की छूट की घोषणा कर दी।

इन फ़ैसलों के अलावा, कम्यून ने अभूतपूर्व रूप से कई प्रगतिशील सामाजिक क़दम उठाए। चर्च को राज्य के मामलों से पूरी तरह अलग कर दिया गया और चर्च की संपत्ति को राज्य ने अपने क़ब्जे़ में ले लिया। कोर्ट में विवाह और तलाक को मान्यता दी गई। विवाहित और अविवाहित माताओं के बच्चों के साथ समान व्यवहार किया गया और अविवाहित माताओं के बच्चों को “अवैध” करार दिए जाने के कलंक से बचाया गया।

पेरिस कम्यून का अनुभव आज की दुनिया में सरमायदारी लोकतंत्र के राज्यों के बिल्कुल विपरीत है। ये सरमायदारी लोकतांत्रिक राज्य विभिन्न प्रकार के होते हैं, कहीं राष्ट्रपति शासन तो कहीं संसदीय। जबकि वे रूप में भिन्न हैं, वे सभी मूल रूप से मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता पर पूंजीपति वर्ग की हुक्मशाही के नमूने हैं। फ़ैसले लेने की शक्ति एक कार्यकारिणी में निहित होती है, जो मतदाताओं के प्रति जवाबदेह नहीं होती है।

हमारे देश की वर्तमान संसदीय व्यवस्था में, प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिमंडल कार्यपालिका का प्रभारी है। मंत्रिमंडल संसद के प्रति जवाबदेह नहीं है और संसद के सदस्य लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। हुक्मरान वर्ग की विभिन्न राजनीतिक पार्टियां चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन करती हैं। लोगों की भूमिका उनमें से किसी एक को वोट देने तक ही सीमित होती है। लोग चुने गए प्रतिनिधियों को वापस नहीं बुला सकते अगर वे लोगों के हितों के खि़लाफ़ काम करते हैं। क़ानून बनाने में लोगों की कोई भूमिका नहीं है। जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिए संसद में बहुत शोर मचाया जाता है, लेकिन सरकार का असली काम जनता की नज़रों से दूर, उनकी पीठ के पीछे होता है। वह काम इजारेदार पूंजीपतियों, मंत्रियों और वरिष्ठ अफ़सरशाही के सदस्यों की सांठगांठ में किया जाता है।

पेरिस कम्यून के पतन से सबक

श्रमजीवी राज्य को सभी मेहनतकश लोगों के अधिकारों की गारंटी देने के लिए, यह अति आवश्यक है कि वह शोषक वर्गों को उनकी राजनीतिक और आर्थिक शक्ति से वंचित करे। यह एक सबक है जो पेरिस कम्यून के पतन से उभर कर सामने आया है। पेरिस कम्यून बैंक ऑफ फ्रांस पर क़ब्ज़ा करने में विफल रहा, जिसकी वजह से देश के वित्तीय संसाधनों को बड़े पूंजीपतियों के हाथों में छोड़ दिया गया। उत्पादन और वितरण के प्रमुख साधनों पर बड़े पूंजीपतियों के नियंत्रण को ख़त्म करने में विफलता और मज़दूर-किसान गठबंधन बनाने में विफलता – इन्हें कार्ल मार्क्स ने कम्यून की हार के प्रमुख कारणों के रूप में समझा था।

उसके बाद में जो श्रमजीवी क्रांतियां हुईं, जैसे कि सोवियत रूस में, उनमें पेरिस कम्यून के योद्धाओं की ग़लतियों से सीख ली गयी। लेनिन की अगुवाई में बोल्शेविक पार्टी इस बात को बहुत अच्छी तरह समझ गई थी कि श्रमजीवी वर्ग द्वारा शोषक वर्गों और उनके सहयोगियों पर बहुत ही सख्त हुक्मशाही स्थापित करने की ज़रूरत है।

निष्कर्ष

सरमायदार विद्वानों द्वारा यूरोप के इतिहास पर लिखी गई सभी पुस्तकों में, 1789-99 की फ्रांसीसी क्रांति को बड़े शान से पेश किया गया है, जबकि 1871 के पेरिस कम्यून को या तो पूरी तरह से नज़रंदाज़ किया गया है या उनकी उपब्धियों को छोटा करके पेश किया गया है। श्रमजीवी वर्ग और दुनिया के सभी उत्पीड़ित लोगों के लिए, यह ध्यान में रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि 1789-99 की फ्रांसीसी क्रांति ने पूंजीपति वर्ग की हुकूमत की स्थापना की थी। पेरिस कम्यून ने श्रमजीवी वर्ग की हुकूमत की स्थापना की थी।

पेरिस कम्यून को सभी मेहनतकश और उत्पीड़ित लोग हमेशा याद रखेंगे और सम्मानित करेंगे, क्योंकि उसने श्रमजीवी वर्ग के लिए आगे बढ़ने का रास्ता रोशन किया था – राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा करने और पुराने समाज को नींव से उखाड़ फेंकने का रास्ता।

पेरिस कम्यून ने सरमायदारी लोकतंत्र की तुलना में, श्रमजीवी लोकतंत्र की श्रेष्ठता को दिखाया था। उसके अनुभव में उन सभी के लिए अमूल्य सबक हैं जो वर्तमान समय में सरमायदारी लोकतंत्र के विकल्प के लिए प्रयास कर रहे हैं।

पेरिस कम्यून की मिसाल और सीख पूरी दुनिया के मज़दूर वर्ग और मेहनतकश लोगों के दिलो-दिमाग में हमेशा जीवित रहेगी।

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