फरवरी 2000 में, मज़दूर एकता कमेटी के नेतृत्व में मॉडर्न फूड्स इंडिया लिमिटेड के मज़दूरों ने संसद के सत्र के पहले दिन पर, नई दिल्ली में एक साहसिक विरोध प्रदर्शन किया था। वे केंद्र सरकार की मालिकी वाले मॉडर्न फूड्स को निजी बहुराष्ट्रीय कंपनी हिंदुस्तान लीवर को बेचे जाने का विरोध कर रहे थे।
मॉडर्न फूड्स के मज़दूरों के साथ कानपुर के कपड़ा मज़दूर भी प्रदर्शन में थे, जिनकी मिलें बंद होने वाली थीं और जो खुद अपनी मिलों को फिर से खोलने के लिए संघर्ष कर रहे थे। 23 साल पहले का वह संयुक्त विरोध प्रदर्शन सरमायदारों के निजीकरण के कार्यक्रम के खि़लाफ़ हिन्दोस्तानी मज़दूर वर्ग के संघर्ष में एक महत्वपूर्ण मीलपत्थर था। आज उस संघर्ष को सबको याद करना आवश्यक है, क्योंकि हुक्मरान सरमायदार विभिन्न तरीक़ों और बहानों का इस्तेमाल करते हुए, सरकारी कारोबारों और संपत्तियों को निजी कंपनियों के हाथों बेचने के लिए तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं।
वाजपेयी की राजग सरकार ने जनवरी 2000 में दावोस में वर्ल्ड इकनोमिक समिट की पूर्व संध्या पर, मॉडर्न फूड्स और भारत एल्युमीनियम कंपनी (बाल्को) को बेचने के निर्णय की घोषणा की थी। उस घोषणा के ज़रिये हिन्दोस्तानी हुक्मरान वर्ग ने दुनिया के सामने ऐलान किया था कि वह हिन्दोस्तानी और विदेशी इजारेदार पूंजीपतियों के हित में सरकारी कारोबारों और सेवाओं के निजीकरण का रास्ता अपनाने पर वचनबद्ध है।
उस घोषणा से पहले, देवगौड़ा की संयुक्त मोर्चा सरकार द्वारा स्थापित विनिवेश आयोग ने सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को रणनीतिक (रक्षा, परमाणु ऊर्जा, रेल परिवहन, दूरसंचार आदि), कोर (पेट्रोलियम, कोयला, इस्पात, आदि) और अन्य इकाइयों में वर्गीकृत किया था। सरकार ने कहा था कि केवल उन इकाइयों का निजीकरण किया जाएगा, जिन्हें कोर या रणनीतिक नहीं माना गया था। सार्वजनिक क्षेत्र के कारोबारों को इस तरीक़े से वर्गीकृत करने का उद्देश्य था निजीकरण कार्यक्रम के वास्तविक उद्देश्य को छुपाना और यह ग़लत-फ़हमी पैदा करना कि निजीकरण सभी के हित के लिए है।
जब मॉडर्न फूड्स को बिक्री के लिए रखा गया था, तब तत्कालीन सरकार ने घोषणा की थी कि “रोटी बनाना सरकार का काम नहीं है“। बीस साल बाद, सरकार ने सभी सार्वजनिक क्षेत्र के कारोबारों को बिक्री के लिए रख दिया है, यह घोषणा करते हुए कि “व्यवसाय चलाना सरकार का काम नहीं है“।
कई केंद्रीय ट्रेड यूनियन फेडरेशनों के नेताओं ने 2000 में मॉडर्न फूड्स के निजीकरण को स्वीकार कर लिया था। उन्होंने सरमायदारों के उस प्रचार से समझौता कर लिया था कि वह एक रणनीतिक उद्योग नहीं था और वह घाटे में चल रहा था। वे मज़दूरों को सलाह दे रहे थे कि उनके लिए वी.आर.एस. पैकेज स्वीकार करके नौकरी छोड़ देना ही बेहतर होगा। ऐसी कठिन परिस्थितियों में मॉडर्न फूड्स के मज़दूरों ने, मज़दूर एकता कमेटी से प्रेरित होकर, बहादुरी के साथ, निजीकरण के खि़लाफ़ गै़र-समझौता वाले संघर्ष का झंडा फहराया था। वह एक ऐसा संघर्ष था जिसने कई क्षेत्रों के मज़दूरों की आंखें खोल दी थीं।
लगातार सात वर्षों तक, जब तक कि अंतिम कर्मचारी को नौकरी से निकाल नहीं दिया गया था, देश में मॉडर्न फूड्स के मुख्य प्लांट, दिल्ली में लॉरेंस रोड स्थित प्लांट के मज़दूरों ने पूरे देश में कंपनी के 3,000 नियमित और ठेका मज़दूरों को निजीकरण के खि़लाफ़ संघर्ष में एकजुट किया था।
मज़दूर एकता कमेटी ने इस हक़ीक़त का पर्दाफ़ाश किया था कि कैसे मॉडर्न फूड्स, जो कि एक मुनाफ़ाकारी कारोबार हुआ करता था, को जानबूझकर घाटे में डाल दिया गया था, ताकि उसके निजीकरण को सही ठहराया जा सके।
मज़दूर एकता कमेटी और मॉडर्न फूड्स एम्प्लाइज़ यूनियन ने खुलासा किया कि कैसे कंपनी की चल और अचल संपत्ति, जिसकी क़ीमत 2,000 करोड़ रुपये से अधिक थी, बहुराष्ट्रीय कंपनी हिंदुस्तान लीवर को महज 124 करोड़ रुपये में सौंप दी गई। उन्होंने इस झूठ का पर्दाफ़ाश किया कि हिंदुस्तान लीवर कंपनी को “कुशलतापूर्वक“ चलाएगा। उन्होंने दिखाया कि कैसे वह बहुराष्ट्रीय कंपनी मॉडर्न फूड्स की संपत्ति छीन रही थी। वह मॉडर्न ब्रेड के ब्रांड नाम का उपयोग करते हुए, अस्वच्छ हालतों में अपने उत्पादन को आउटसोर्स कर रही थी।
मॉडर्न फूड्स के मज़दूरों ने संसद के सामने विरोध प्रदर्शन, संसद के सदस्यों और दिल्ली सरकार से अपील सहित कई तरह के संघर्ष किए। वे क़रीब दो साल तक फैक्ट्री के गेट पर धरने पर बैठे रहे।
मॉडर्न फूड्स के मज़दूरों की मिसाल ने भारत एल्युमीनियम कंपनी (बाल्को) के मज़दूरों और विभिन्न राज्यों में बिजली बोर्ड के कर्मचारियों की ट्रेड यूनियनों को निजीकरण कार्यक्रम के खि़लाफ़ आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। संघर्ष को गति मिली। उस संघर्ष की वजह से वाजपेयी सरकार निजीकरण के परिणामों की जांच करने के लिए अक्तूबर 2002 में प्रधानमंत्री की एक विशेष समिति गठित करने के लिए मजबूर हुयी थी।
मज़दूर एकता कमेटी और मॉडर्न फूड्स यूनियन ने उस कमेटी को इस बात के दस्तावेज़ी सबूत सौंपे कि किस तरह हिंदुस्तान लीवर प्रबंधन प्लांट और उसकी मशीनरी को ख़त्म कर रहा था, उप-ठेकेदारी का सहारा ले रहा था, नियमित मज़दूरों के स्थान पर ठेका मज़दूरों का उपयोग कर रहा था और सभी श्रम क़ानूनों का उल्लंघन कर रहा था।
जब सितंबर 2004 में विशेष समिति ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, तो मॉडर्न फूड्स एम्प्लाइज़ यूनियन ने मांग की कि रिपोर्ट को संसद में पेश किया जाए और उस पर चर्चा की जाए। लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली संप्रग सरकार ने उस मांग को पूरा नहीं किया।
मज़दूरों को मूर्ख बनाने के लिए, संप्रग सरकार ने घोषणा की कि अब सार्वजनिक क्षेत्र के कारोबारों की सीधी बिक्री नहीं होगी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने एक सांझा न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर संप्रग सरकार को समर्थन दिया। उससे मज़दूरों में यह भ्रम फैलाया गया कि केंद्र सरकार अब “मानवीय चेहरे“ के साथ पूंजीवादी सुधारों को लागू करेगी। यह भ्रम फैलाया गया कि अब और निजीकरण नहीं होगा। पर वास्तव में, सरकार ने निजीकरण के लिए एक अलग रास्ता अपनाया। सीधी बिक्री के बजाय, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के शेयरों को बेचकर धीरे-धीरे निजीकरण किया गया।
आज, मॉडर्न फूड्स के मज़दूरों द्वारा निजीकरण के खि़लाफ़ अपना ऐतिहासिक संघर्ष शुरू करने के 23 साल बाद, मज़दूर वर्ग को उस संघर्ष के अनुभव से कुछ महत्वपूर्ण सबक लेने की ज़रूरत है।
एक महत्वपूर्ण सबक यह है कि किसी भी सार्वजनिक कारोबार के निजीकरण का कोई औचित्य नहीं हो सकता है, चाहे वह रणनीतिक मूल्य का “मुख्य“ कारोबार हो या “घाटे में चल रहा“ हो। सभी मामलों में, निजीकरण केवल मुनाफ़ों के भूखे पूंजीपतियों के हितों को पूरा करता है। निजीकरण को “मानवीय चेहरे“ के साथ लागू करना मुमकिन नहीं है। निजीकरण एक मज़दूर-विरोधी और समाज-विरोधी कार्यक्रम है।
एक और महत्वपूर्ण सबक यह है कि निजीकरण किसी ख़ास पार्टी या सरकार की पसंदीदा नीति नहीं है। यह वर्तमान काल में हुक्मरान वर्ग का पसंदीदा कार्यक्रम है। हिन्दोस्तान की स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती दशकों में, सरकारी उद्योगों की स्थापना से हमारे देश के बड़े पूंजीपतियों के हितों की सेवा की गयी थी। परन्तु, 1990 के दशक से, बड़े पूंजीपति, जो अब विशाल इजारेदार घराने बन गए हैं, सरकारी संपत्ति को अपनी निजी संपत्ति में बदलने के लिए उत्सुक हैं।
1950, 1960 और 1970 के दशक में, सरकारी भारी उद्योग, सरकारी बैंकों और बीमा कंपनियों के निर्माण और विस्तार की नीति ने पूंजीवादी औद्योगीकरण के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करने का काम किया था। उसने पूंजीवाद के लिए घरेलू बाज़ार का विस्तार करने और इजारेदार पूंजीपतियों के लिए अधिकतम मुनाफे़ की गारंटी देने का काम किया था। इस समय, निजीकरण और उदारीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण के एजेंडे द्वारा इजारेदार पूंजीवादी घरानों के अधिकतम मुनाफ़ों की लालच को पूरा किया जा रहा है।
बीते 30 से अधिक वर्षों में, सत्ता में आई प्रत्येक सरकार ने उदारीकरण और निजीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण के कार्यक्रम को आगे बढ़ाया है। यह सोचना एक हानिकारक भ्रम है कि कांग्रेस पार्टी या किसी अन्य सरमायादारी पार्टी को भाजपा की जगह पर लाकर, निजीकरण को रोका या पलटा जा सकता है।
मज़दूर वर्ग का कार्यक्रम वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन की पूरी व्यवस्था को, पूंजीवादी लालच को पूरा करने के बजाय, समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के उद्देश्य के साथ संचालित करना है। इस कार्यक्रम को साकार करने के लिए सरमायदारों की हुकूमत की जगह पर, मज़दूर-किसान के गठबंधन की हुकूमत स्थापित करने की ज़रूरत है। कम्युनिस्टों को इस उद्देश्य के साथ, निजीकरण के खि़लाफ़ संघर्ष में मज़दूर वर्ग की अगुवाई करनी चाहिए।