7 फरवरी, 2023 को इंडियन वर्कर्स एसोसिएशन (ग्रेट-ब्रिटेन) और ग़दर इंटरनेशनल द्वारा जारी किये गये बयान को हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं :
1 फरवरी, 2023 को विभिन्न ट्रेड यूनियनों से संबद्ध लगभग पांच लाख मज़दूरों ने अपनी मांगों के समर्थन में हड़ताल की। उनकी मुख्य मांगों में शामिल हैं वेतन में वृद्धि और काम करने की बेहतर परिस्थितियां। वे नए ‘मिनिमम सर्विस लेवेल बिल’ का विरोध कर रहे हैं। यह विधेयक संसद में पारित होने वाला है। इस विधेयक के अनुसार, यदि एक मज़दूर, जिसने हड़ताल पर जाने के लिए मतदान किया हो और वह हड़ताल में शामिल होता है, परन्तु कंपनी प्रबंधन द्वारा उसे काम पर उपस्थित होने का निर्देश दिया जाता है तो उसका हड़ताल में शामिल होना अवैध माना जाएगा।
देशभर के कई शहरों और कस्बों में बड़ी-बड़ी रैलियां और प्रदर्शन हुए हैं। जनता को हुई परेशानियों के लिए, हड़ताल पर गए मज़दूरों के खि़लाफ़ जनमत बनाने के लिये सरकार और मीडिया द्वारा की गई कोशिशों के बावजूद छात्रों, पेंशनभोगियों और बच्चों के अभिभावकों सहित सभी तबकों के लोगों सहित सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करने वाले लोगों ने हड़ताल का समर्थन किया। मेहनतकश लोग स्पष्ट रूप से देख रहे हैं कि पूंजीपतियों की सरकार ही उनकी मुश्किलों के लिए ज़िम्मेदार है। विश्वविद्यालय के शिक्षकों, सीमा बलों व सुरक्षा कर्मचारियों और लाइब्रेरी के कर्मचारियों ने भी हड़ताल में भाग लिया है। नर्स, दमकल कर्मी, चिकित्सा सहायक और एंबुलेंस कर्मचारी भी हड़ताल में शामिल हुए।
जब तक उनकी मांगों को पूरी तरह से मान नहीं लिया जाता, तब तक मज़दूर अपने संघर्ष को और तेज़ करने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। फरवरी तथा मार्च के महीनों में भी कई और दिनों के लिए हड़ताल पर जाने की घोषणा पहले से ही की जा चुकी है।
2021 की शुरुआत से पूरे ब्रिटेन में जीवन यापन के लिए होने वाला ज़रूरी खर्चा लगातार बढ़ रहा है। मुद्रास्फीति की वार्षिक दर अक्तूबर 2022 में पिछले 41 सालों में सबसे उच्च स्तर, यानी 11.1 प्रतिशत पर पहुंच गई। दिसंबर 2021 से दिसंबर 2022 तक, घरेलू गैस की क़ीमतों में 129 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और घरेलू बिजली की क़ीमतों में 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। पिछले एक साल में खाद्य वस्तुओं की क़ीमतों में भी बहुत तेज़ी से वृद्धि हुई है।
देश में महंगाई बढ़ने के लिए सरकार और मीडिया यूक्रेन के युद्ध को दोष दे रहे हैं। लेकिन फ्रांस और जर्मनी में महंगाई की दर उतनी नहीं बढ़ी है। वैसे भी, यूक्रेन में युद्ध मज़दूरों के कारण नहीं हुआ था। यह युद्ध, बर्तानवी और अमरीकी साम्राज्यवादियों तथा उनके नाटो सहयोगियों द्वारा उकसाया गया था। हथियारों के उद्योग से जुड़ी इजारेदार कंपनियां हथियार बेचकर भारी मुनाफ़ा कमा रही हैं और ढांचागत विकास की कंपनियां यूक्रेन में बर्बाद हो चुके बुनियादी ढांचे के निर्माण के ठेके हासिल करके भारी मुनाफ़ा कमाने के इंतज़ार में हैं। इसकी क़ीमत जनता क्यों भुगते?
जबकि पूंजीवादी व्यवस्था मज़दूरों के वेतनों को सीमित करने की कोशिश कर रही है, लेकिन शेल जैसी ऊर्जा कंपनियों के भारी मुनाफ़े को सीमित नहीं कर रही है, जिसने पिछले वित्त वर्ष में 3,220 करोड़ पाउंड्स (32.2 बिलियन पाउंड्स) का मुनाफ़ा कमाया है। घरों में गैस सप्लाई करने वाली कंपनियां भी जमकर मुनाफ़ा कमा रही हैं।
कहा जा रहा है कि पैसा नहीं है, इसलिए शिक्षा, सामाजिक सेवाओं, सामाजिक आवास, सामुदायिक देखभाल, स्वास्थ्य सेवाओं (एन.एच.एस.), बेरोज़गारी-भत्ता, आदि पर होने वाले खर्च में वे कटौती कर रहे हैं। समाज की सारी संपत्ति मज़दूरों द्वारा ही बनाई गई है। वर्तमान व्यवस्था यह सुनिश्चित करने के लिए काम करती है कि यह धन दौलत मेहनतकश लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के बजाय, पहले से ही अमीर शोषकों की जेब को और अधिक भर दिया जाये।
जीवन यापन के संकट के लिए किसे दोषी ठहराया जाए और इसका हल क्या है? ट्रेड यूनियनों और वामपंथी राजनीतिक पार्टियों के कुछ नेता इसके लिए कंजर्वेटिव पार्टी को दोषी ठहरा रहे हैं और अगले संसदीय चुनावों में लेबर पार्टी को सत्ता में लाने की वकालत कर रहे हैं। लेकिन ऐतिहासिक अनुभव से स्पष्ट पता चलता है कि लेबर पार्टी अमीरों की अन्य राजनीतिक पार्टियों से कुछ अलग नहीं है, जहां तक इस मुद्दे का सवाल है कि संसद किसके हित में काम करेगी।
मज़दूर वर्ग के लिए एकमात्र रास्ता है, पूंजीवादी व्यवस्था से छुटकारा पाना और राजनीतिक सत्ता को अपने हाथों में लेना। केवल मज़दूर वर्ग ही उन क़ानूनों को बना सकता है और लागू कर सकता है जो पूरे समाज के लिए सुख-समृद्धि लाएंगे।
इंडियन वर्कर्स एसोसिएशन और ग़दर इंटरनेशनल, मज़दूरों की जायज़ मांगों का पूरा समर्थन करते हैं और अपने अधिकारों के लिए उनके जुझारू संघर्ष की सराहना करते हैं।