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बाबरी मस्जिद के विध्वंस की 30वी बरसी पर ज्ञानवर्धक लेख

संपादक महोदय, मज़दूर एकता लहर

मैं आपका आभारी हूं कि आपने पिछले अंक में बाबरी मस्जिद के विध्वंस की 30वीं बरसी पर एक बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख छापा। इस लेख में, जिसका शीर्षक था, ”सांप्रदायिक हिंसा के खि़लाफ़ और ज़मीर के अधिकार की हिफ़ाज़त के लिये अपनी राजनीतिक एकता को और मजबूत करें“, एक अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदू है जिस पर मैं प्रकाश डालना चाहता हूं।

यह बिंदू इस प्रश्न से जुड़ा है कि हिन्दोस्तान में सांप्रदायिक हिंसा की जड़ क्या है? क्यों सांप्रदायिक हिंसा और क़त्लेआम बार-बार किये जाते हैं? इसका जबाव आपके लेख के निम्नलिखित पैरा में पाया जा सकता है और मैं इसको यहां दोहराता हूं।

”हमारा संविधान हिन्दोस्तानी लोगों को एक बहुसंख्यक और कई अल्पसंख्यक मज़हबी समुदायों में बांटता है। यह लोगों की राष्ट्रीय, वर्गीय और मानवीय पहचानों को दरकिनार करते हुए, सिर्फ सांप्रदायिक पहचान पर ज़ोर डालता है।“

इसका मतलब है कि देश का मौलिक क़ानून ही सभी हिन्दोस्तानियों को एक समान नहीं मानता है। यह लोगों को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक धार्मिक समुदायों में बांटता है। इसके आधार पर देश में क़ानून बनाये जाते हैं जो लोगों की धार्मिक और जातीय पहचान के आधार पर भेदभाव करते हैं। फिर यह आसान हो जाता है कि अलग-अलग सरमायदारी पार्टियां एक नहीं तो दूसरे समुदाय की तरफ़दारी की बात करके लोगों में फूट डालती हैं। कोई सरमायदारी पार्टी इस जाति के लिये आरक्षण मांगती है तो दूसरी किसी धर्म के लोगों को दुश्मन के जैसे पेश करती है। इस तरह वे लोगों के बीच दीवार खड़ी करने की कोशिश करते हैं ताकि शोषण और दमन पर आधारित इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ मेहनतकश लोग एकजुट न हो सकें।

जबकि 75 साल पहले हमने अंग्रेजों के राज से स्वतंत्रता पायी थी, परन्तु इतने सालों के बाद भी हम अंग्रेजों की ”फूट डालो और राज करो“ की नीति वाले शासन के तरीक़े से आज़ाद नहीं हुए हैं। इसका कारण है कि देश के शासक वर्ग ने उपनिवेशवादी शासन से नाता नहीं तोड़ा। उपनिवेशवादियों ने सत्ता की बाग़डोर हिन्दोस्तानी सरमायदारों के हाथों में सौंपी थी और बहुत धूर्तता से पूरी की पूरी उपनिवेशवादी विरासत को जारी रखा। यही कारण है कि स्वतंत्रता के बाद भी कुछ सतही बदलाव के साथ सभी उपनिवेशी क़ानून और संस्थाएं जारी हैं और आज़ाद हिन्दोस्तान के संविधान का अधिकांश हिस्सा उपनिवेशी संविधान (गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935) की नक़ल है।

इसी सच्चाई से मेल खाते हुए, आपके लेख में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि ”हरेक इंसान के ज़मीर के अधिकार का आदर और हिफ़ाज़त करना राज्य का फ़र्ज़ है। अगर इसे स्वीकार कर लिया जाये तो किसी भी मज़हब के बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक होने का सवाल ही नहीं उठता है।“

अंत में आपका आह्वान कि ”हमें इस असूल के आधार पर एकजुट होना चाहिए, कि हर इंसान के अधिकारों की हिफ़ाज़त करना राज्य का फ़र्ज़ है, भले ही उसकी आस्था कुछ भी हो। जब राज्य लोगों के अधिकारों की हिफ़ाज़त करने में नाक़ामयाब होता है, तो राज्य प्रशासन की कमान संभालने वालों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। सबसे कड़ी सज़ा उनको होनी चाहिए जो राज्य सत्ता का इस्तेमाल करके, लोगों के ख़िलाफ़ अपराध आयोजित करते हैं।“ यह हमें आगे के संघर्ष की दिशा देता है।

भवदीय, समीर

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