6 दिसंबर, 1992 को, बाबरी मस्जिद नामक 16 वीं शताब्दी की ऐतिहासिक इमारत का विध्वंस कर दिया गया था। उसके साथ-साथ और उसके बाद, बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक हिंसा फैलाई गयी थी, जिसमें हजारों लोग मारे गए थे।
जबकि प्रगतिशील ताकतें यह मांग करती रही हैं कि उस अपराध को आयोजित करने वाले गुनहगारों को सज़ा दी जानी चाहिए, परन्तु इंसाफ को इनकार किया गया है। अदालत के फैसलों ने उसी स्थल पर राम मंदिर के निर्माण का आदेश देकर, विध्वंस को सही ठहराया है। अदालत के फैसले का इस्तेमाल करके यह धारणा फैलाई जा रही है कि मामले का समाधान हो चुका है और जो भी उस फैसले का विरोध करता है, वह देश का दुश्मन है। उसका इस्तेमाल लोगों में खौफ़ पैदा करने और हर प्रकार के विरोध को दबाने के लिए किया जा रहा है।
हम लोगों के लिए, जो साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ़ संघर्ष में डटे हुए हैं, बाबरी मस्जिद के विध्वंस की 30 वीं बरसी, बीते वर्षों के हमारे अनुभव से प्राप्त हुए मुख्य सबकों को दोहराने का एक अवसर है। यह वर्तमान समय में, आगे की राह को निर्धारित करने का एक अवसर है, जब और ज्यादा बढ़-चढ़कर सांप्रदायिक ज़हर को फैलाया जा रहा है, जब अयोध्या के अलावा कई अन्य जगहों पर मस्जिदों को गिराने और मंदिरों का निर्माण करने के लिए आह्वान किया जा रहा है।
सुनियोजित अपराध
30 साल पहले जो हुआ था, उसके बारे में राज्य प्रशासन की कहानी इस झूठ के आधार पर बनाई गई है कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस कुछ कारसेवकों द्वारा, मज़हबी भावनाओं से प्रेरित, एक स्वत:स्फूर्त कार्य था।
बाबरी मस्जिद का विध्वंस किसी भी तरह से स्वतःस्फूर्त नहीं था। विध्वंस और उसके साथ-साथ कई हफ़्तों तक चलने वाली सांप्रदायिक हिंसा पूरी तरह सुनियोजित थीं। वे हुक्मरान वर्ग के उच्चतम स्तरों पर रची गई साज़िश के हिस्सा थे।
राम मंदिर अभियान का नेतृत्व करने में कांग्रेस पार्टी और भाजपा, दोनों के नेता सक्रिय रूप से शामिल थे। कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार और भाजपा के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार, दोनों ने अपने-अपने सुरक्षा बलों को आदेश दिया था कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस और सांप्रदायिक हिंसा को पूरी इजाज़त देनी चाहिए । श्रीकृष्ण आयोग ने दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 के दौरान आयोजित की गयी सांप्रदायिक हिंसा के गुनहगारों में कांग्रेस, भाजपा और शिव सेना, इन सभी पार्टियों को नामित किया था।
कार्यपालिका और विधायिकी, वरिष्ठ अफसरशाही और सशस्त्र सुरक्षा बलों के प्रमुखों तथा न्यायपालिका, सभी की सांठ-गांठ के साथ, बाबरी मस्जिद के विध्वंस को जायज़ ठहराया गया और उसी स्थल पर राम मंदिर बनाने की मांग को लेकर सांप्रदायिक हिंसा फैलायी गयी थी।
राज्य, जिसका फ़र्ज़ है देश के सभी लोगों के जीवन और ज़मीर के अधिकार की हिफ़ाज़त करना, वह राज्य खुद ही हत्यारा, कत्लेआम का आयोजक बन गया । राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा का सामना करने के लिए, लोगों को बेसहारा, अपने हाल पर छोड़ दिया गया था ।
अयोध्या विवाद का इतिहास
अयोध्या विवाद को सबसे पहले अंग्रेज़ हुक्मरानों ने रचा था। उन्होंने बाबरी मस्जिद से जुड़े सभी दस्तावेज़ी सबूतों को नष्ट कर दिया था। नष्ट किए गए सबूतों में अवध के तत्कालीन नवाब द्वारा जारी किया गया एक दस्तावेज़ शामिल था, जिसमें हिंदुओं और मुसलमानों की इबादत के नियमों को निर्धारित किया गया था। अंग्रेज़ हुक्मरानों ने अपने सरकारी पत्र में लिखवा दिया था कि बाबर ने वहां एक राम मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनवाया था।
हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में आपसी झगड़े उकसाना हिन्दोस्तान पर कब्ज़ा करके, यहाँ पर राज करने की अंग्रेज़ों की रणनीति का एक अहम हिस्सा था। 1857 में जब लोग मज़हब और जाति के भेदभाव को भुलाकर, विदेशी शासकों के खिलाफ़ एकजुट हुए थे, तो उसके बाद अंग्रेजों ने जीवन के हर क्षेत्र में सांप्रदायिक बंटवारे को और बढ़ावा देने तथा उसे पूरी तरह संस्थागत बनाने पर बहुत ध्यान दिया था ।
1947 से, हिन्दोस्तानी हुक्मरान वर्ग ने शासन करने के ठीक उसी तरीके को जारी रखा है। राजीव गांधी की केंद्र सरकार ने फरवरी 1986 में हिंदू भक्तों के लिए उस जगह के ताले को फिर से खुलवाकर, बाबरी मस्जिद के विवाद को और हवा दे दी थी।
हिन्दोस्तानी राज्य की साम्प्रदायिकता
पिछले 30 वर्षों ने हिन्दोस्तानी राज्य के लोगों को बांटने और साम्प्रदायिकता फैलाने वाले चरित्र को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया है, जब कि इस राज्य को धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र का स्तंभ बताया जाता है। यह राज्य हमेशा धर्मनिरपेक्षता की कसम खाते हुए, खुलेआम और गुप्त, दोनों प्रकार के सांप्रदायिकतावादियों की हिफ़ाज़त करता है।
हमारा संविधान हिन्दोस्तानी लोगों को एक बहुसंख्यक और कई अल्पसंख्यक मज़हबी समुदायों में बांटता है। यह लोगों की राष्ट्रीय, वर्गीय और मानवीय पहचानों को दरकिनार करते हुए, सिर्फ सांप्रदायिक पहचान पर ज़ोर डालता है।
राज्य सैकड़ों साल पूर्व के राजाओं के तथाकथित गुनाहों का बदला लेने के नाम पर,राजनीतिक पार्टियों को मुसलमानों के खिलाफ हमले करने की पूरी छूट देता है। अदालतें ऐसे अभियानों को सही ठहराती हैं और प्रोत्साहन देती हैं।
न्यायपालिका सांप्रदायिक आधार पर बदले की भावना को भड़काने का खुलेआम समर्थन करता है । उसने न केवल विभिन्न भाजपा नेताओं पर लगे आरोपों को खारिज किया है, जिन्होंने खुले तौर पर बाबरी मस्जिद को गिराने का आह्वान किया था। उसने एक जायदाद-विवाद का इस्तेमाल करके, एक आदेश पारित किया है कि केंद्र सरकार को अब उसी स्थान पर राम मंदिर का निर्माण सुनिश्चित करना चाहिए जहां बाबरी मस्जिद खड़ा था। इस प्रकार, न्यायपालिका ने धार्मिक आस्थाओं और उपनिवेशवादी झूठ पर आधारित दावों को कानूनी तौर पर जायज़ ठहराया है।
राजनीतिक सबक
बाबरी मस्जिद का विध्वंस हिन्दोस्तान की राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। उसके साथ, राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण और बढ़ते राजकीय आतंकवाद का एक नया दौर शुरू हुआ।
आज यह स्पष्ट हो गया है कि सरमायदार जनता के ऊपर मौत, तबाही और आतंक बरसाए बिना, शासन नहीं कर सकता है । सरमायदारों के शासन को बरकरार रखने के लिए राज्य द्वारा आयोजित साम्प्रदायिक हिंसा के कांडों को बार-बार अंजाम देने की आवश्यकता होती है। बाबरी मस्जिद के विध्वंस और उस स्थान पर राम मंदिर बनाने के अभियान के जरिये, फरवरी 2002 के गुजरात के जनसंहार के लिए जमीन तैयार की गयी थी । अयोध्या से लौट रहे कारसेवकों से भरी एक ट्रेन पर लगायी गयी आग ने उस चिंगारी का काम किया, जिससे पूरे राज्य में कई हफ्तों और महीनों तक सांप्रदायिक हिंसा का दौर चलता रहा।
ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने के नाम पर अब और विध्वंस की मांग की जा रही है। संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों के लिए मज़हबी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। समाज को पीछे की ओर घसीटा जा रहा है। लोगों के ज़मीर के अधिकार को वही राज्य पाँव तले रौंद रहा है, जिससे लोग ज़मीर के अधिकार की हिफ़ाज़त करने की उम्मीद करते हैं।
इन सब से एक महत्वपूर्ण राजनीतिक सबक यह है कि सिर्फ किसी एक ख़ास पार्टी को सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक हिंसा के बढ़ते खतरे के लिए जिम्मेदार ठहराना गलत है। इसके लिए सम्पूर्ण हुक्मरान वर्ग जिम्मेदार है। राज्य और उसके सभी संस्थान जिम्मेदार हैं। हिन्दोस्तान में और दुनिया के स्तर पर पूंजीवाद का लगातार गहराता संकट, सरमायदारों के समाज-विरोधी हमले का भौतिक आधार है।
सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों को दोषी ठहराना और उन्हें सांप्रदायिक कहना गलत है। जिन लोगों को उनकी मज़हबी पहचान के आधार पर निशाना बनाया जाता है, उन्हें अपनी हिफ़ाज़त और अपनी इबादत के तौर-तरीकों के बचाव के लिए संगठित होने का पूरा अधिकार है। हमें राज्य और हुक्मरान वर्ग को अपने संघर्ष का निशाना बनाना चाहिए।
पिछले 30 वर्षों ने दिखाया है कि हिन्दोस्तानी सरमायदार लोगों के खिलाफ़ सामूहिक अपराधों का सहारा लिये बिना देश पर शासन करने में सक्षम नहीं है। इसमें राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा भी शामिल है। सरमायदारों को सत्ता से बेदखल करना होगा। यह कार्य केवल मजदूर वर्ग के नेतृत्व में, सरमायदारों के शासन के तले सभी उत्पीड़ितों के गठबंधन को बनाकर ही, किया जा सकता है।
आगे बढ़ने का रास्ता
जब हुक्मरान वर्ग मज़हब के आधार पर जनता के किसी विशेष तबके को निशाना बनाता है, तो यह वास्तव में पूरी जनता पर हमला है। यह लोगों की एकता और भाईचारे पर हमला है।
हमारा फौरी काम हुक्मरान सरमायदारों और मौजूदा साम्प्रदायिक राज्य के खिलाफ लोगों की राजनीतिक एकता को बनाना और मजबूत करना है। हमारी एकता को तोड़ने के लिए तरह-तरह के समुदायवाद और विचारधारात्मक भेदभाव का इस्तेमाल किया जाता है। हमें सांप्रदायिक हिंसा और हर प्रकार के राजकीय आतंक के खिलाफ अपनी राजनीतिक एकता को तोड़ने की हुक्मरानों के इन सारी कोशिशों का विरोध करना चाहिए।
हमें इस असूल के आधार पर एकजुट होना चाहिए कि हरेक इंसान के ज़मीर के अधिकार का आदर और हिफ़ाज़त करना राज्य का फ़र्ज़ है । अगर इसे स्वीकार कर लिया जाये तो किसी भी मज़हब के बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक होने का सवाल ही नहीं उठता है। हर इंसान को किसी भी परमात्मा की पूजा करने या न करने की पूरी आज़ादी होगी। हर इंसान की आस्था उतनी ही मान्य होगी जितनी कि किसी दूसरे इंसान की ।
हमें इस असूल के आधार पर एकजुट होना चाहिए, कि हर इंसान के अधिकारों की हिफ़ाज़त करना राज्य का फ़र्ज़ है, भले ही उसकी आस्था कुछ भी हो। जब राज्य लोगों के अधिकारों की हिफ़ाज़त करने में नाकामयाब होता है, तो राज्य प्रशासन की कमान संभालने वालों को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। सबसे कड़ी सज़ा उनको होनी चाहिए जो राज्य सत्ता का इस्तेमाल करके, लोगों के खिलाफ़ अपराध आयोजित करते हैं ।
1857 में विद्रोह करने वाले हमारे पूर्वजों ने यह ऐलान किया था कि “हम हैं इसके मालिक! हिंदोस्तान हमारा!” वह नारा हिन्दोस्तान के लोगों की उस आकांक्षा की अभिव्यक्ति थी कि हम अपने सांझे दुश्मन को हराने और अपने भविष्य के सामूहिक मालिक बनने के लिए, मज़हब और जाति के सभी भेदभावों से ऊपर उठकर, एकजुट होकर लड़ेंगे । उस उच्च आकांक्षा को पूरा करने के लिए संघर्ष आज भी जारी है।
साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ संघर्ष को इस उद्देश्य के साथ आगे बढ़ाना होगा कि मौजूदा साम्प्रदायिक राज्य, जो इजारेदार पूंजीपतियों की अगुवाई में सरमायदारों के अधिनायकत्व का अस्त्र है, उसकी जगह पर हमें मजदूरों और किसानों की हुकूमत के एक नए राज्य की स्थापना करनी होगी । हम, इस प्राचीन सभ्यता के लोग, एक ऐसे राज्य को स्थापित और मज़बूत करने के काबिल हैं, जिसमें हम खुद सारे अहम फैसले ले सकेंगे । ऐसा राज्य समाज के प्रत्येक सदस्य के ज़मीर के अधिकार को सार्वभौमिक और अलंघनीय मानकर, उसका सम्मान और हिफ़ाज़त करेगा। ऐसा राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि अगर कोई भी व्यक्ति, समूह या पार्टी किसी के ज़मीर के अधिकार या किसी अन्य मानव अधिकार का उल्लंघन करता है, तो उस पर तुरंत मुकदमा चलाया जाए और उसे कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाए।
राजकीय आतंकवाद के खिलाफ एकजुट हों!
एक पर हमला सब पर हमला!