दिल्ली की सरहदों पर चले किसानों के विरोध धरने की दूसरी वर्षगांठ

दिल्ली की सीमाओं पर लाखों किसानों के धरने को शुरू करने के पूरे दो साल हो गये हैं। देशभर के किसानों ने राजधानी दिल्ली के आसपास 26 नवंबर, 2020 को शुरू किये गये अपने ऐतिहासिक विरोध की दूसरी वर्षगांठ के अवसर को चिन्हित करने का फ़ैसला किया है। इस दिन हर राज्य की किसान यूनियनें राजभवन के सामने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन आयोजित करेंगी। राज्य के राज्यपाल का ऐसा पद होता है जो केंद्र सरकार के आदेश का पालन करता है।

किसान मांग कर रहे हैं कि केंद्र सरकार दिसंबर 2021 में किए गए अपने वादों को पूरा करे, जिन वादों के आधार पर उन्होंने दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा अपना धरना स्थगित कर दिया था। तीन किसान विरोधी क़ानूनों को रद्द करने के बाद, उस समय केंद्र सरकार ने किसान आंदोलन की अन्य प्रमुख मांगों के बारे में भी उचित कार्यवाही करने का वादा किया था, जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) पर सभी कृषि उपजों की ख़रीद की गारंटी देना और इजारेदार पूजीपतियों के हित में लाये गये जन-विरोधी बिजली संशोधन विधेयक को वापस लेना भी शामिल था।

दिल्ली की सीमाओं पर किसानों द्वारा आयोजित किये गये विरोध धरने का एक ऐतिहासिक घटना बन जाने का मूल कारण यह है कि देशभर की 500 से अधिक किसान यूनियनों ने मिलकर अपनी सांझी मांगों के लिए एकजुट संघर्ष किया। उन्होंने टाटा, अंबानी, बिड़ला, अडानी और अन्य इजारेदार कॉरपोरेट घरानों के नेतृत्व वाले इजारेदार पूंजीपति वर्ग के उदारीकरण के एजेंडे के खि़लाफ़, लोगों की आजीविका को सुरक्षित करने के अपने अधिकार की मांग करने का साहस किया।

किसानों और उनकी ट्रैक्टर-ट्रालियों को पंजाब-हरियाणा की सीमाओं को पार करने से रोकने के लिए, भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने और हरियाणा सरकार ने सड़कों को खोद डाला और बैरिकेड्स लगा दिए। इसके बावजूद, पंजाब और हरियाणा के किसान परिवारों के युवाओं ने झुकने से इनकार कर दिया। वे किसी भी क़ीमत पर दिल्ली पहुंचने के लिए दृढ़संकल्प थे और वे अपने रास्ते की सभी बाधाओं को पार करते हुए बहादुरी से आगे बढ़े। उनके इस फै़सले ने उत्तर प्रदेश के किसानों को भी प्रेरणा दी, जिन्होंने गाज़ीपुर में दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सीमा पर एक विरोध स्थल स्थापित किया। राजस्थान के किसानों ने शाहजहाँपुर में राजस्थान हरियाणा की सीमा पर एक विरोध स्थल बनाया।

किसानों ने दिल्ली की सीमाओं को एक विशाल विरोध शिविर के स्थान में बदल दिया, जो लगभग पूरे एक साल तक चला। देशभर के किसान संगठनों ने अपने प्रतिनिधिमंडलों को इन विरोध स्थलों पर भेजा। मज़दूरों, महिलाओं और नौजवानों ने किसान आंदोलन के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त की। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के गांवों के निवासी प्रतिदिन ट्रकों में भरकर खाद्यान्न, सब्जियां और फल लाते थे।

विरोध स्थलों पर उनके रहन-सहन और कार्य-शैली ने मज़दूरों और किसानों की, संगठनात्मक क्षमता की एक जबरदस्त मिसाल पेश की, जब वे अपने भविष्य को अपने हाथों में लेने के लिए एकजुट हुए। इन विरोध स्थलों पर शिविर लगाने वालों की सभी आवश्यकताओं की अच्छी तरह देखभाल करने के लिए आयोजन समितियां बनाई गयी थीं। बच्चों के लिए स्कूल, सभी के लिए पुस्तकालय और आपातकालीन स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के लिए चिकित्सक दल उपलब्ध कराये गए थे। विरोध स्थलों पर जाने वाली महिलाओं ने बताया कि सरमायदारों के मौजूदा शासन के तहत उन्होंने किसी अन्य सार्वजनिक स्थान पर अपने को इतना सुरक्षित कभी महसूस नहीं किया था।

उस ऐतिहासिक आंदोलन की दूसरी वर्षगांठ और उस घटनाक्रम को मुड़कर देखने और उसके द्वारा हासिल किये गए मूल्यवान अनुभव और सीखे गए सबकों की समीक्षा करने का यह उपयुक्त समय है। आगे आने वाले वर्ग संघर्ष की तैयारी के उद्देश्य से मज़दूरों और किसानों के सभी संगठनकर्ताओं को ऐसा करना चाहिए। हमारा लक्ष्य है इजारेदार घरानों के नेतृत्व वाले सरमायदारों पर जीत हासिल करना। वे महत्वपूर्ण सबक क्या हैं और आगे जीत का रास्ता क्या है?

महत्वपूर्ण सबक

एक महत्वपूर्ण सबक यह है कि शासक वर्ग हमेशा धर्म, जाति या चुनावी पार्टी की प्रतिद्वंद्विता के आधार पर सांप्रदायिक झगड़े भड़काएगा और साथ ही साथ सच्चाई यह भी है कि सभी संघर्षरत ताक़तों को इस बंटवारे के राजनीतिक और वैचारिक हमले को पूरी तरह से हराना होगा, यह न केवल बहुत ज़रूरी है बल्कि यह हक़ीक़त में मुमकिन भी है।

भाजपा और उसके नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने किसान आंदोलन को बदनाम करने और लोगों के बीच फूट डालने के लिए दिसंबर 2020 से ही “सिख आतंकवाद” का भूत खड़ा करने की कोशिश की। इसके जवाब में, किसानों ने अपनी उन सभी मुख्य मांगों से ध्यान हटाने से इंकार कर दिया जिनके इर्द-गिर्द वे एकजुट हुए थे। बदनाम होने की बात तो दूर, किसान आंदोलन को न केवल हिन्दोस्तान में बल्कि विदेशों में रहने वाले हिन्दोस्तानियों के बीच भी व्यापक समर्थन मिला। जवाब में, केंद्र सरकार ने 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस 2021 के दिन, एक बहुत ही शैतानी साज़िश का आयोजन किया। विरोध प्रदर्शन करने वाले किसानों के ट्रैक्टरों को दिल्ली पुलिस द्वारा जानबूझकर लाल किले के आसपास के क्षेत्र में पहुंचने के लिए निर्देशित किया गया था। वहां पर हिंसा भड़क गई और धार्मिक झंडे को पकड़े हुए, इन सिख प्रदर्शनकारियों की तस्वीरें मीडिया ने फैलाईं।

सोशल मीडिया के माध्यम से फैलाए गए झूठ, बदनामी, सांप्रदायिक पूर्वाग्रह और नफ़रत के बावजूद, किसानों ने सीमा स्थलों पर 12 महीने तक अपना धरना जारी रखा।

इसमें एक और महत्वपूर्ण सबक यह है कि दिसंबर 2021 में तीन किसान विरोधी क़ानूनों को निरस्त करने के फ़ैसले के बावजूद शासक वर्ग का एजेंडा नहीं बदला है। कृषि व्यापार के उदारीकरण का कार्यक्रम, जिसका उद्देश्य है कृषि क्षेत्र को इजारेदार पूंजीवादी कंपनियों के प्रभुत्व और लूट के लिए खोलना, यह उनके एजेंडे का एक बहुत ज़रूरी मुद्दा बना हुआ है।

पिछले 11 महीनों के दौरान जो कुछ भी हुआ है उससे यह स्पष्ट दिखाई देता है कि किसानों के सभी कृषि उत्पादों को, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) पर या उससे ज्यादा क़ीमत पर, गारंटीकृत ख़रीद की मांग को पूरा करने का केंद्र सरकार का कोई इरादा नहीं है। इस मामले की जांच करने और कुछ प्रस्ताव बनाने के लिये, एक ऐसी समिति के गठन में ही लगभग पूरा साल लग गया है, जिसके दिये गये प्रस्तावों पर सरकार फ़ैसला करेगी कि वे प्रस्ताव लागू करने लायक हैं या नहीं। यह इस हक़ीक़त की एक बार फिर पुष्टि करता है कि कृषि के प्रति सरकार की नीति की दिशा और उद्देश्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।

एम.एस.पी. या इससे ज्यादा क़ीमत पर, सभी फ़सलों की गारंटीशुदा ख़रीद करने की किसानों की मांग को पूरा करने के लिये केंद्र सरकार की न तो रुचि है और न ही उसकी क्षमता है। इस मांग को पूरा करने के लिए केंद्र और राज्य, दोनों स्तरों पर सार्वजनिक ख़रीद में उल्लेखनीय वृद्धि करने की आवश्यकता है। सार्वजनिक ख़रीद की भूमिका बढ़ाना हिन्दोस्तानी और विदेशी इजारेदार पूंजीपतियों, दोनों के हितों के बिल्कुल विपरीत है। ये इजारेदार पूंजीवादी लुटेरे, हिन्दोस्तान के कृषि क्षेत्र पर हावी होने और उसको लूटने के लिए बेताब हैं – दो शताब्दियों पहले की ईस्ट इंडिया कंपनी की तुलना में कहीं अधिक तीव्रता से और उससे भी कहीं अधिक बड़े पैमाने पर।

तीन किसान विरोधी क़ानूनों को निरस्त करने का फ़ैसला, वास्तव में शासक वर्ग की एक धूर्त चाल थी। यह पंजाब में होने वाले 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के अभियानों की शुरुआत के समय जानबूझकर, लिया गया एक क़दम था। केंद्र सरकार की योजना यह थी कि पंजाब के किसानों के बीच सक्रिय बड़े संचालकों को तीन क़ानूनों को रद्द करके शांत कर दिया जाएगा और किसान यूनियनों का एक हिस्सा चुनावी राजनीति में आ जाएगा, जिससे किसानों के बीच फूट पड़ेगी और बंटवारा हो जाएगा।

जबकि किसानों ने अपनी सामान्य तात्कालिक मांगों के इर्द-गिर्द अपने संघर्ष में एकता बनाई थी, वे अपने राजनीतिक उद्देेश्य के बारे में एकजुट नहीं थे। नतीजतन, किसान आंदोलन अलग-अलग दिशाओं में खींच गया। यह पंजाब के राज्य विधानसभा चुनाव के दौरान स्पष्ट हो गया।

आगे का रास्ता

किसी भी पार्टी और किसी भी व्यक्ति की इच्छा से परे, इस समय किसान आन्दोलन के सामने दो अलग-अलग रास्ते हैं जिनके अनुसार किसान आंदोलन को आगे ले जाया जा सकता हैं। ये दो रास्ते एक दूसरे के बिलकुल विपरीत हैं। ये दो रास्ते, हिन्दोस्तान में दो प्रमुख वर्गों, पूंजीपति वर्ग और श्रमजीवी वर्ग के बीच कड़ी टक्कर के अनुरूप हैं।

पूंजीपति, किसानों के संघर्ष को भाजपा के खि़लाफ़ संसदीय विरोध को और बढ़ावा देने और मजबूत करने के लिए, इस्तेमाल किए जाने वाले कारक के रूप में देखते हैं। दूसरी तरफ़ श्रमजीवी वर्ग, इजारेदार पूंजीपतियों के नेतृत्व वाले सरमायदारों के शासन को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में, किसानों को अपना एक भावी क्रांतिकारी सहयोगी मानता है।

पूंजीपतियों की पार्टियां यह भ्रम फैलाती हैं कि अगर चुनावी प्रक्रिया से भाजपा को हटा दिया जाए तो पूंजीवाद के लिए सभी किसानों को सुरक्षित आजीविका प्रदान करना संभव है। श्रमजीवी वर्ग की राजनीतिक पार्टी इस सच को स्पष्ट करती है कि पूंजीवाद आज अत्यधिक इजारेदारी के चरण में पहुँच गया है और यह किसानों व अन्य सभी छोटी संपत्ति के मालिकों को अनिवार्य रूप से नष्ट कर देगा।

पूंजीपति इस झूठ का प्रचार करते हैं कि पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं है और संसदीय लोकतंत्र की मौजूदा व्यवस्था से बेहतर कुछ भी संभव नहीं है। इस झूठ का खंडन करना हम, कम्युनिस्टों और सभी प्रगतिशील ताक़तों की ज़िम्मेदारी है। हमें इस पूंजीवादी व्यवस्था का विकल्प सामने रखना होगा और उसके इर्द-गिर्द सभी लोगो की राजनीतिक एकता बनानी होगी।

पूंजीवाद का विकल्प है एक ऐसी समाजवादी व्यवस्था, जो पूंजीवादी लालच को पूरा करने के बजाय लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तत्पर होगी। संसदीय लोकतंत्र का विकल्प आधुनिक श्रमजीवी वर्ग का लोकतंत्र है, जिसमें समाज में लागू होने वाले क़ानूनों और नीतियों को तय करने में मज़दूरों और किसानों की भागीदारी होती है।

मज़दूरों और किसानों के शासन के तहत, केंद्र और राज्य सरकारें सभी खाद्य फ़सलों के साथ-साथ, गैर-खाद्य फ़सलों को शामिल करते हुए, एक सार्वजनिक ख़रीद प्रणाली बनाने की ज़िम्मेदारी लेंगी। मज़दूरों और किसानों का राज्य, विदेशी व्यापार और थोक घरेलू व्यापार में निजी मुनाफ़ाख़ोरों की भूमिका को समाप्त करके, कृषि की लागत वस्तुओं की सही मूल्यों पर विश्वसनीय आपूर्ति की गारंटी देगा। सार्वजनिक संस्थान कृषि उत्पादों के प्रमुख हिस्से को पूर्व-घोषित लाभकारी क़ीमतों पर ख़रीद करेंगे। सार्वजनिक ख़रीद प्रणाली को एक सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जोड़ा जाएगा जो समाज के सभी लोगों के लिए सस्ती क़ीमतों पर, उपभोग की सभी आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए बनाई जायेगी।

कृषि का संकट तब तक नहीं सुलझेगा, जब तक राज्य तंत्र का नियंत्रण पूंजीपतियों के हाथों में है और वे चुनावों का इस्तेमाल करके अपनी इस या उस विश्वसनीय पार्टी को सत्ता में सरकार बनाने के लिये सक्षम बनाते हैं। इसलिए अपनी तात्कालिक मांगों के लिए संघर्ष करते हुए, मज़दूरों और किसानों को हिन्दोस्तान के भविष्य को अपने हाथों में लेने में सक्षम एक राजनीतिक ताक़त बनना होगा। मज़दूरों और किसानों का राज ही कृषि और पूरे समाज को संकट से उबारने का रास्ता खोलेगा।

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