संपादक महोदय,
मज़दूर एकता लहर के नवंबर, 1-15 के अंक में प्रकाशित 1984 के जनसंहार के सबक लेख को पढ़कर, मुझे महसूस हुआ कि इसके बारे में और जानकारी लेनी चाहिए।
इसी उद्देश्य से मैं सोशल मीडिया के माध्यम से जानकारी निकालने लगा। उसी दौरान मुझे दिल्ली की एक ऐसी कॉलोनी के बारे में जानकारी मिली, जिसमें 1984 की यादें आज भी उसकी गलियांे में छुपी हुई हैं।
यह कालोनी दिल्ली के तिलक नगर इलाके में विधवा (विडो) कॉलोनी के नाम से जानी जाती है।
मैं इस कॉलोनी और 1984 के सिख विरोधी जनसंहार के बारे में जानने के लिए अगले ही दिन में तिलक नगर के लिए रवाना हो गया।
तिलक नगर मेट्रो स्टेशन के पास मुझे सरदार मदन सिंह मिले, वे एक ई-रिक्शा चालक हैं, उन्होंने बताया कि 2 नवम्बर को उनकीे चाचा की शादी थी और उसी दिन दंगाइयों ने उनके पिताजी और चाचा को मार दिया और शादी का सारा सामान लूट लिया। तब मदन सिंह 5 साल के थे। उनके परिवार के सदस्य इसीलिये बच पाये क्योंकि उनको मुसलमानों ने मस्जिद में छुपाकर रखा था।
विडो कॉलोनी के हुकम सिंह ने मुझे कई दर्दनाक स्टोरी सुनाई जिसे लिखने की हिम्मत मेरे पास नहीं है। लेकिन उन्होंने बार-बार पूछा हमारे साथ ही ऐसा क्यों हुआ? दो लोगों की गलतियों की सज़ा पूरी क़ौम को क्यों मिली?
तिलक विहार में गुरुद्वारा शहीदगंज है, जहां 1984 में मारे गए लोगांे की तस्वीरंे लगाई गई हैं। वहीं भगत सिंह ने बताया कि यह दंगा नहीं था, यह सरकारी क़त्लेआम था।
वे अपनी आप-बीती सुनाते हुए बोले हमारे इलाके को दंगाइयों ने घेर लिया था। हमने घंटों तक संघर्ष किया। दिल्ली पुलिस ने हमें घर जाने को बोला, उनकी बात मानकर अपने घर चले गये। लेकिन कुछ घंटे बाद दंगाइयों ने फिर से हमला कर दिया, हम पुलिस को फोन करते रहे लेकिन कोई जवाब नहीं मिला।
संपादक महोदय,
इन लोगों कि बातों को सुनकर और आपके लेखक को पढ़कर यह स्पष्ट है कि सरकार जिसे 38 सालों से सिख विरोधी दंगा कह रही है, वे राज्य द्वारा आयोजित सिख विरोध क़त्लेआम था।
दूसरा यह भी स्पष्ट है कि अगर 1984 के गुनहगारों को समय पर सज़ा दी जाती तो उसके बाद होने वाले सांप्रदायिक क़त्लेआम नहीं होते।
1984 का सिख विरोधी क़त्लेआम हिन्दोस्तान के इतिहास के पन्नों से न तो कभी मिटाया जा सकता है और न ही गुनहगारों को माफ़ किया जा सकता है।
आपका पाठक,
प्रवेश, नई दिल्ली