एक पैशाचिक अपराध की 38वीं बरसी पर :
1984 के जनसंहार के सबक

1984 में हुए सिखों के भीषण जनसंहार की 38वीं बरसी 1 नवंबर को है। तीन दिनों तक, बड़े सुनियोजित तरीक़े से जनसंहार किया गया था जिसमें, उस समय केंद्र सरकार में बैठी कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं ने उन हमलों की अगुवाई की थी। दिल्ली, कानपुर, बोकारो और कई अन्य शहरों की सड़कें बेरहमी से मारे गए सिखों की लाशों से भर गई थीं। यह अनुमान लगाया गया है कि उन तीन दिनों में 10,000 से अधिक लोग मारे गए थे। (बॉक्स देखें)

बॉक्स

1984 के जनसंहार को आयोजित करने और अंजाम देने की गतिविधियां

सिखों के जनसंहार की योजना 31 अक्तूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या से काफी पहले से ही तैयार की गई थी।तीन साल से अधिक समय तक मीडिया में सिखों पर यह इलज़ाम लगाते हुए खूब प्रचार किया जाता रहा, कि वे आतंकवादी हैं जो हिन्दोस्तान को नष्ट करने वाले हैं। केन्द्र सरकार में बैठी कांग्रेस पार्टी ने उस सांप्रदायिक अभियान को अगुवाई दी थी।

जनसंहार की तैयारी के लिए, सिख परिवारों की पहचान करने वाली मतदाता सूचियां लेकर रखी गई थीं, ताकि सही समय आने पर उन्हें बांटा जा सके। रबड़ के टायरों के साथ-साथ, मिट्टी के तेल से भरे कनस्तर भी जमा करके रखे हुए थे।

जैसे ही श्रीमती गांधी की हत्या हुई, वैसे ही इस योजना को अमल में लाया गया। मीडिया में जानबूझकर यह अफवाह फैलाई गयी कि इंदिरा गांधी की हत्या उनके सिख अंगरक्षकों ने की थी। दिल्ली में अफवाहें फैलाई गईं कि सिख उनकी हत्या का जश्न मनाने के लिए मिठाई बांट रहे थे और सिखों ने दिल्ली के पानी की सप्लाई में ज़हर मिला दिया था।

कांग्रेस पार्टी के नेता एम्स के सामने इकट्ठे हुए, जहां श्रीमती गांधी की लाश पड़ी थी, और ‘खून का बदला खून’ का भड़काऊ नारा लगाये। यह नारा दूरदर्शन टीवी पर बार-बार सुनाया-दिखाया गया।

1 नवंबर की तड़के से कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं ने दिल्ली की सड़कों पर खून के प्यासे क़ातिलाना गिरोहों का नेतृत्व किया। सिखों को पीटा गया, उन पर मिट्टी का तेल डाला गया, उनके ऊपर रबड़ का टायर डाल कर आग लगा दी गई। सिखों के घरों पर हमला किया गया, महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, पुरुषों और लड़कों की हत्या की गई, उनके घरों और दुकानों को लूटा गया और फिर उनमें आग लगा दी गई। पुलिस मूकदर्शक बनकर देखती रही और क़ातिलाना गिरोहों को प्रोत्साहित करती रही।

अंतरिम प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पास पीड़ितों के लिए सहानुभूति के कोई शब्द नहीं थे। उन्होंने जनसंहार की बिलकुल भी निंदा नहीं की। इसके विपरीत, उन्होंने जनसंहार को यह कहकर उचित ठहराया कि “जब एक बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिल जाती है”। इस तरह, सिखों के जनसंहार  को ‘प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की हत्या की प्रतिक्रिया’ बताकर उसे जायज़ ठहराया गया था। साथ ही साथ, जनसंहार के पीछे कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकार के हाथ को छुपाया गया था और अपराध के लिए लोगों को दोषी ठहराया गया था।

पिछले 38 वर्षों से, जो भी सरकार आई है वह इसी झूठ को दोहराती रही है कि 1 से 3 नवंबर 1984 के दौरान जो घटनाएं हुयी थीं, वे “सिख-विरोधी दंगे” थे। “दंगा” शब्द का मतलब है लोगों का स्वतः स्फूर्त भड़क जाना। दूसरे शब्दों में, उस जनसंहार के लिए हिन्दोस्तान के लोगों को दोषी ठहराया जाता है।

सच्चाई इससे बिल्कुल विपरीत है। लोग अपने सिख भाइयों को मारने के लिए सड़कों पर उतर नहीं आए थे। बल्कि, हर जगह पर लोगों ने अपने सिख पड़ोसियों की रक्षा करने की पूरी कोशिश की थी।

जनसंहार को उस समय केंद्र सरकार में बैठी कांग्रेस पार्टी द्वारा आयोजित किया गया था और अंजाम दिया गया था। पूरे राज्य तंत्र ने उसे अंजाम देने के लिए सक्रिय रूप से काम किया था।

1 नवंबर की सुबह से ही, सेवानिवृत्त और सम्मानित जनरलों और एयर मार्शलों, न्यायाधीशों और भारतीय विदेश विभाग के अधिकारियों सहित प्रमुख व्यक्तियों, सांसदों, लेखकों और पत्रकारों ने बार-बार तत्कालीन गृहमंत्री से जनसंहार को रोकने के लिए क़दम उठाने का आग्रह किया था, लेकिन उनके आग्रहों का जवाब खामोशी से दिया गया। कोई कार्रवाही नहीं की गई। तीन दिनों और तीन रातों तक पुलिस ने हमलों को चलते रहने दिया और कई जगहों पर पुलिस ने सक्रियता के साथ कातिलाना गुंडों की मदद की।

38 साल से लोग यह मांग कर रहे हैं कि सरकार 1984 के जनसंहार के पीछे की सच्चाई को सामने लाये। लोग मांग कर रहे हैं कि जनसंहार को आयोजित करने वालों को सज़ा दी जाए। लोग जानना चाहते हैं कि जनसंहार से पहले के हफ्तों और महीनों में और उन तीन दिनों और रातों के दौरान, सत्ता के गलियारों में क्या हो रहा था। केंद्रीय मंत्रिमंडल व गृह मंत्रालय में उस पर क्या चर्चा हुई और खुफिया एजेंसियों की उसमें क्या भूमिका रही?

उसके बाद जो-जो सरकारें बनी हैं, उन्होंने उस घटना पर कई जांच आयोगों का गठन किया है। उन सभी आयोगों ने जनसंहार को आयोजित करने में केंद्र सरकार, गृह मंत्रालय और राज्य के विभिन्न अंगों की भूमिका पर पर्दा डालने का काम किया है।

31 अक्तूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के 38 साल बाद, आज भी वह घटना रहस्यों से घिरी हुई है। उनकी हत्या से यह स्पष्ट हो गया कि सत्तारूढ़ हलकों के अन्दर आपसी अंतर्विरोध इतने तीव्र हो गए थे कि हत्या ही उन्हें हल करने का एकमात्र तरीक़ा रह गया था। किसने हत्या को आयोजित किया और क्यों, इन पर पूरी-पूरी जांच होनी चाहिए थी। हुक्मरान हत्या के लिए एक समुदाय को दोषी ठहरा कर और जनसंहार को अंजाम देकर, उन सवालों के जवाब देने से आसानी से बच गये। पिछले 38 सालों में किसी भी सरकार ने हत्या या उसके बाद हुए जनसंहार के पीछे की सच्चाई को सामने नहीं लाया है।

पिछले 38 वर्षों से इस सच्चाई के छुपाये जाने में, हुक्मरान वर्ग और उसकी पूरी राज्य मशीनरी की भूमिका साफ़-साफ़ दिखती है। कांग्रेस पार्टी और उस समय सत्ता के प्रमुख पदों पर बैठे हुए अधिकारियों ने उस जनसंहार को अंजाम दिया था, लेकिन जनसंहार को सम्पूर्ण हुक्मरान वर्ग के हितों के लिए आयोजित किया गया था। हुक्मरान वर्ग ने अपने बीच के आपसी अंतर्विरोधों को हल करने और मज़दूर वर्ग व मेहनतकश जनता की एकता को तोड़ने के लिए जनसंहार का आयोजन किया था।

1984 के जनसंहार ने दिखाया कि हिन्दोस्तानी हुक्मरान वर्ग अपने शासन को बनाए रखने के लिए, देश के लोगों के खि़लाफ़ सबसे जघन्य अपराध करने को भी तैयार है। इसकी पुष्टि इस हक़ीक़त से होती है कि पिछले 38 सालों के दौरान, राजकीय आतंकवाद को सुनियोजित तरीके़ से बढ़ाया जाता रहा है और राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा के कांड बार-बार होते रहे हैं।

1992 में बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद सांप्रदायिक आतंक, 2002 में गुजरात में मुसलमानों का जनसंहार और कई अन्य भयानक कांडों को सत्तारूढ़ पार्टियों की पूर्ण भागीदारी और राज्य मशीनरी की सक्रिय तैनाती के साथ अंजाम दिया गया है।

पिछले 38 सालों में, यह हमारे लोगों का अनुभव रहा है कि जो लोग सांप्रदायिक जनसंहार आयोजित करते हैं और हमारे लोगों की एकता पर हमला करते हैं, उन्हें कोई सज़ा नहीं दी जाती है, बल्कि उन्हें राज्य में सर्वोच्च पदों पर बिठाया जाता है। दूसरी ओर, अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोगों को “आतंकवादी” और “राष्ट्र-विरोधी तत्व” करार दिया जाता है। कई ऐसे लोग फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मारे गए हैं। इंसाफ के लिए संघर्ष करने वाले हज़ारों-हज़ारों लोगों को टाडा, पोटा और यू.ए.पी.ए. जैसे फासीवादी क़ानूनों के तहत, सालों-सालों तक जेल में बंद रखा गया है।

सरमायदार वर्ग की राजनीतिक पार्टियां, जिनमें भाजपा और कांग्रेस पार्टी सबसे आगे हैं, वे राष्ट्रीय एकता की रक्षा करने की बात करती हैं, जबकि वे हुक्मरान वर्ग के हितों की सेवा में, लोगों को बांटने के लिए लगातार काम करती हैं। वे नियमित और सुनियोजित रूप से धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र के आधार पर लोगों की भावनाओं को भड़काती हैं, ताकि मज़दूरों और किसानों की एकता को तोड़ा जा सके। ऐसी पार्टियां मिलकर मज़दूरों और किसानों पर पूंजीपति वर्ग की हुकूमत की रक्षा करती हैं। वे सभी इसी व्यवस्था के अटूट हिस्से हैं, जिसमें सरमायदार मतदान के माध्यम से और मेहनतकश जनता के ख़िलाफ़ हिंसा छेड़कर शासन करता है। ऐसी पार्टियां राज्य की मशीनरी पर नियंत्रण करने और पूंजीपति वर्ग के एजेंडे को लागू करने के लिए, एक दूसरे के साथ स्पर्धा करती हैं।

सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक हिंसा और सभी प्रकार के राजकीय आतंकवाद का स्रोत इजारेदार पूंजीवादी घरानों की अगुवाई में पूंजीपति वर्ग की हुकूमत में है। इसलिए सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक हिंसा को समाप्त करने का संघर्ष केवल सरकार संभालने वाली राजनीतिक पार्टी को बदलने से विजयी नहीं होगा।

एक ऐसा विचार दिया जाता है कि कांग्रेस पार्टी द्वारा आयोजित सिखों का जनसंहार एक विचलन था। विचलन का शब्दकोश अर्थ “व्यवहार के विशिष्ट या सामान्य तरीक़े से एक अस्थायी परिवर्तन” है। सिखों का जनसंहार कोई विचलन नहीं था। इसे एक विचलन मानना गंभीर भूल होगी।

जो लोग इस विचार को बढ़ावा देते हैं कि 1984 का जनसंहार एक विचलन था, वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वे भाजपा के साथ कांग्रेस पार्टी की प्रतिद्वंद्विता में, लोगों को कांग्रेस पार्टी के साथ खड़े होने के लिए आह्वान करने की अपनी लाइन को सही ठहराना चाहते हैं। वे यह बता रहे हैं कि सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक हिंसा का स्रोत एक विशेष राजनीतिक पार्टी, यानि भाजपा है, न कि संपूर्ण हुक्मरान वर्ग। यह एक ऐसा विचार है जो सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक हिंसा के ख़िलाफ़ संघर्ष को एक अंधी गली में ले जाकर गुमराह कर देगा ।

राजकीय आतंकवाद और सांप्रदायिक हिंसा का निशाना हमारे देश का मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता है। उसका उद्देश्य हमारी एकता को तोड़ना और अधिकारों के लिए हमारे संघर्ष को कुचलना है। सांप्रदायिक हिंसा और राजकीय आतंकवाद के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए, हमें सबके अधिकारों की हिफ़ाज़त के लिए, सभी शोषित और उत्पीड़ित लोगों तथा सभी प्रगतिशील और लोकतांत्रिक ताक़तों की राजनीतिक एकता को बनाना और मजबूत करना होगा। ‘एक पर हमला सब पर हमला’, इस असूल को बनाए रखना और लागू करना आवश्यक है।

राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा और राजकीय आतंक को हमेशा के लिए तभी समाप्त किया जा सकता है, जब सरमायदारों की हुकूमत को मज़दूरों और किसानों की हुकूमत में बदल दिया जाएगा। वर्तमान राज्य की जगह पर एक ऐसे नए राज्य की स्थापना करनी होगी, जो सभी नागरिकों को जीने का अधिकार, ज़मीर का अधिकार और अन्य सभी मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक अधिकारों की गारंटी देगा। ऐसा राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि किसी के विचारों के आधार पर, उसके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। जो कोई भी इस तरह का भेदभाव करेगा, उसे तुरंत और कड़ी सज़ा दी जायेगी, चाहे सरकारी प्रशासन में उसका कोई भी दर्ज़ा हो।

राज्य द्वारा आयोजित सिखों के भयानक जनसंहार की 38वीं वर्षगांठ के अवसर पर, आइए, हम राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा और आतंक के ख़िलाफ़ संघर्ष को आगे बढ़ाने का संकल्प लें। आइए, हम सभी के लिए सुख और रक्षा सुनिश्चित करने के लिए वचनबद्ध, एक नए राज्य की स्थापना के लक्ष्य के साथ संघर्ष को आगे बढाएं ।

Share and Enjoy !

Shares

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *