संपादक महोदय,
मज़दूर एकता लहर में प्रकाषित “हिन्दोस्तान को उपनिवेषावादी विरासत से आज़ादी की सख़्त जरूरत है” विषयर पर जो लेख अगस्त के अंक में प्रकाषित किया गया है उसके बारे में मैं अपने विचार सांझा करना चाहती हूं।
जैसा कि इसमें बहुत ही साफ़ तरीके से बताया गया है कि हिन्दोस्तान को आज़ाद हुए 75 वर्ष हो गए हैं, लेकिन आज भी राज्य के संस्थानों और राजनीतिक प्रक्रिया पर ब्रिटिष राज की छाप है। क़ानून, अदालतें, जेल, पुलिस, आदि जिन्हें उपनिवेशवादी शासन के दौरान, हमारे ऊपर जुल्म करने और हमें दबाने के लिए, हम पर शासन करने के लिए बनाये गये थे, वे आज भी वैसे के वैसे ही हैं। कुछ भी नहीं बदला है।
एक ओर आम आवाम – मज़दूर, किसान, औरत और नौजवान – जब अपने अधिकारों की मांग को लेकर संघर्ष करते हैं, तो उन पर लाठियां बरसाई जाती हैं, उन्हें मारा-पीटा जाता है, सालों-साल के लिए जेलों में बंद कर दिया जाता है। वहीं दूसरी तरफ दोषी इसी क़ानून का सहारा लेकर बच निकलते हैं। उनके खि़लाफ़ कार्यवाही नहीं होती। ये राज्य और सरकारें ही लोगों पर क्रूर दमन और आंतक का माहौल तैयार करती है। जबकि दोष आम आवाम पर डाला जाता है, यह कहकर कि वे राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय अखंडता के लिए ख़तरा हैं।
टाडा, पोटा, यू.ए.पी.ए., आफ्स्पा के तहत हजारों-हजारों नौजवानों को शक के आधार पर बिना किसी गुनाह के गिरफ़्तार करके जेलों में डाल दिया गया है। उन्हें किसी से मिलने का या अपना मुकदमा खुद लड़ने का अधिकार नहीं है। उनका पूरा जीवन, जिसमें वे अपने समाज के लिए, अपने परिवार के लिए, उन्हें बेहतर बनाने के लिए काम करते, वह जेल में बिताता है। अपने आप को बेगुनाह साबित करते-करते उनका जीवन ख़त्म हो जाता है और जब तक वे रिहा होते हैं उनके हाथ में कुछ नहीं रहता।
हिन्दोस्तान जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है दरअसल ये एक छलावा है जहां क़ानून और नीतियां बनाने में लोगों की कोई भूमिका नहीं होती।
इसलिए हम सभी को एकजुट होकर हिन्दोस्तान के नव-निर्माण के लिए संघर्ष करना होगा। राजनीतिक प्रक्रिया को बदलना होगा। तभी मेहनतकष आवाम के हाथों में फ़ैसले लेने की, क़ानून और नीतियां बनाने की ताक़त होगी।
मानसी, दिल्ली