आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ :
हिन्दोस्तान को उपनिवेशवादी विरासत से आज़ादी की ज़रूरत है

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान, 15 अगस्त, 2022

हिन्दोस्तान आज से 75 साल पहले, उपनिवेशवादी शासन से आज़ाद हुआ था। लेकिन, देश के आर्थिक संबंधों, राज्य के संस्थानों और राजनीतिक प्रक्रिया पर आज भी ब्रिटिश राज की छाप है।

एक धनी अल्पसंख्यक श्रेणी के लाभ के लिए, देश की भूमि, श्रम और प्राकृतिक संसाधनों का शोषण और लूट जारी है। इस श्रेणी की अगुवाई आज टाटा, अंबानी, बिरला, अदानी और अन्य इजारेदार पूंजीपति कर रहे हैं। देश की अर्थव्यवस्था आज भी संकटग्रस्त पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था से बंधी हुई है।

केंद्रीकृत अफ़सरशाही और सशस्त्र बल, क़ानून, अदालतें और जेल, जिन्हें ब्रिटिश पूंजीपतियों ने हम पर ज़ुल्म करने और हमारे ऊपर शासन करने के लिए बनाया था, वे आज भी बरकरार हैं। इजारेदार पूंजीवादी घरानों की अगुवाई में हिन्दोस्तानी पूंजीपति वर्ग के शासन को बनाए रखने के लिए, पिछले 75 वर्षों से उनका इस्तेमाल किया जा रहा है। ‘फूट डालो और राज करो’, यह आज़ाद हिन्दोस्तान के शासकों का मार्गदर्शक असूल बना हुआ है। राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा इस हुकूमत का एक पसंदीदा तरीक़ा है।

बहुत सारे उपनिवेशवादी क़ानून अब भी बरकरार हैं, जो ज़मीर के अधिकार और अन्य मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं। 1935 का भारत सरकार अधिनियम, जो अभ्यास के तौर पर ब्रिटिश हिन्दोस्तान का संविधान था, वह स्वतंत्र हिन्दोस्तान के संविधान की आत्मा बना हुआ है। उच्च न्यायालयों में, उच्च शिक्षा में और रोज़गार के बाज़ार में आज भी अंग्रेज़ी भाषा को ही अहमियत दी जाती है।

आज़ादी के 75 साल बाद भी हिन्दोस्तानी समाज उपनिवेशवादी शासन की विरासत के बोझ के तले क्यों दबा हुआ है? इस सवाल का जवाब देने के लिए, 1947 में हिन्दोस्तान में और विश्व स्तर पर जो स्थिति थी, उसका तथा उस वर्ष के अगस्त में हुये सत्ता के हस्तांतरण के असली चरित्र का अध्ययन करना आवश्यक है।

अंतर्राष्ट्रीय स्थिति और हिन्दोस्तान की स्थिति

द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी, इटली और जापान की फासीवादी धुरी की हार ने विश्व स्तर पर एक अत्यंत क्रांतिकारी स्थिति पैदा कर दी थी। सोवियत संघ की जनता और सेना ने नाज़ी जर्मनी को निर्णायक रूप से हरा दिया था। कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में, पूर्वी यूरोप के कई देशों में लोकतांत्रिक गणराज्यों की स्थापना हुई थी। चीन में मुक्ति संघर्ष जीत की ओर बढ़ रहा था। कम्युनिस्टों ने फासीवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष को वीरता से नेतृत्व देते हुए, कई देशों में मेहनतकश लोगों का सम्मान प्राप्त किया था। एशिया, अफ्रीका और लातिन अमरीका में उपनिवेशवादी, अर्ध-उपनिवेशवादी और नव-उपनिवेशवादी शासन से मुक्ति के लिए सघर्ष करने वाले राष्ट्र और लोग समाजवाद के लिए तरस रहे थे।

जब विश्व युद्ध का अंत होने ही वाला था, तब संयुक्त राज्य अमरीका ने क्रांति में उठ रहे दुनिया के लोगों को डराने-धमकाने के लिए, जापान पर परमाणु बम गिराए। अपनी सैनिक प्रधानता का फ़ायदा उठाते हुए, अमरीकी साम्राज्यवादियों ने विश्व साम्राज्यवाद का नेतृत्व अपने हाथों में ले लिया। उन्होंने दुनिया के विभिन्न इलाकों में सशस्त्र दखलंदाज़ी आयोजित की, यह सुनिश्चित करने के लिए कि नए-नए आज़ाद हुए राष्ट्र और उनके लोग समाजवाद के मार्ग पर न चल पड़ें।

अमरीकी साम्राज्यवाद ने यूनान में जन-विद्रोह को क्रूरता से कुचलने और वहां एक फासीवादी हुकूमत को स्थापित करने के लिए हस्तक्षेप किया। अमरीकी सैनिकों ने कोरियाई लोगों के मुक्ति संघर्ष का खूनी दमन किया, जिसकी वजह से उस राष्ट्र का विभाजन हुआ और दक्षिण कोरिया में फासीवादी हुकूमत की स्थापना हुई।

हिन्दोस्तान के अन्दर, उपनिवेशवादी राज का व्यापक तौर पर हो रहा जन-विरोध चरम सीमा पर पहुंच गया था। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में, मज़दूरों की हड़तालें कपड़ा उद्योग में शुरू हो रही थीं और कई अन्य क्षेत्रों में फैल रही थीं। कम्युनिस्टों के नेतृत्व में, दक्षिण हिन्दोस्तान में तेलंगाना और बंगाल में तेभागा सहित, देश के विभिन्न इलाकों में किसान आंदोलन आगे बढ़ रहे थे।

विश्व युद्ध से कमजोर हुए ब्रिटिश साम्राज्यवादी यह समझने लगे कि हिन्दोस्तान में उनके सीधे उपनिवेशवादी शासन के दिन अब ख़त्म होने वाले हैं। वे नहीं चाहते थे कि हिन्दोस्तान, जिसे वे लंबे समय से अपनी सबसे क़ीमती संपत्ति माना करते थे, साम्राज्यवादी व्यवस्था से पूरी तरह से बाहर निकल जाएं। उन्होंने योजना बनानी शुरू कर दी कि कैसे हिन्दोस्तानियों के उन वर्गों के हाथों में सत्ता दी जा सके, जिनके हित में उपनिवेशवादी विरासत को क़ायम रखना और हिन्दोस्तान को साम्राज्यवादी व्यवस्था के अन्दर रखना होगा।

अंग्रेजों द्वारा खाली की गई राज गद्दी पर खुद बैठने की उम्मीद करते हुए, हिन्दोस्तानी पूंजीपति वर्ग की अगुवाई करने वाले औद्योगिक घरानों ने 1943 से ही, उपनिवेशवादी राज के ख़त्म होने के बाद, देश के विकास की योजना बनानी शुरू कर दी थी। उन्होंने जे.आर.डी. टाटा और जी.डी. बिड़ला सहित, औद्योगिक घरानों के प्रमुख प्रतिनिधियों द्वारा लिखित, बॉम्बे प्लान नामक एक दस्तावेज़ में अपने नज़रिए को पेश किया।

पूंजीवादी औद्योगिक विकास के सही हालात बनाने के लिए, बॉम्बे प्लान में यह सिफारिश की गयी कि सार्वजनिक धन और विदेशी सहायता का उपयोग करके भारी उद्योग और बुनियादी ढांचे के एक राजकीय क्षेत्र का निर्माण किया जाना चाहिए। बॉम्बे प्लान में निर्मित उपभोग की वस्तुओं के आयात पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रस्ताव रखा गया, ताकि हिन्दोस्तानी बड़े पूंजीपति उन बाज़ारों पर खुद हावी हो सकें और अधिकतम मुनाफे़ प्राप्त कर सकें। 1944 और 1945 में बॉम्बे प्लान को दो खंडों में प्रकाशित किया गया, परन्तु उससे पहले उसका मसौदा ब्रिटिश वायसराय को उनके अनुमोदन के लिए दिया गया था।

विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद, उपनिवेशवादी शासन से पूर्ण आज़ादी की मांग करते हुए, जन प्रदर्शनों की लहर तेज़ी से आगे बढ़ रही थी। 1946 में, रॉयल इंडियन नेवी के नाविकों के एक विद्रोह ने ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन की नींव को झकझोर कर रख दिया और उन्हें सत्ता के हस्तांतरण की तैयारी की प्रक्रिया को तेज़ करने को मजबूर किया (नौसेना विद्रोह पर बॉक्स देखें)। क्रान्ति के सांझे डर ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और हिन्दोस्तानी सरमायदारों को सत्ता के हस्तांतरण को जल्दी से अंजाम देने के लिए, एक साथ ला दिया।

1946 का नौसेना विद्रोह

फरवरी 1946 में, रॉयल इंडियन नेवी के नाविकों या “रेटिंगंस” ने ब्रिटिश शासकों के खि़लाफ़ विद्रोह किया। वह विद्रोह बम्बई से कराची और कलकत्ता तक फैल गया। नौसैनिकों के समर्थन में हजारों मज़दूर सड़कों पर उतर आये।

48 घंटों से भी कम समय में, 20,000 नौसैनिकों ने 78 जहाजों और 21 तट प्रतिष्ठानों पर नियंत्रण कर लिया। उन्होंने ब्रिटिश झंडे की जगह पर कांग्रेस पार्टी, मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट पार्टी के संयुक्त झंडों को फहरा दिया। ब्रिटिश हिन्दोस्तान की सेना ने नाविकों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। इस विद्रोह से सशस्त्र बलों की अन्य शाखाओं में भी विद्रोह फैल गया।

विद्रोह को कुचलने के लिए, अंग्रेजों ने अपने युद्धपोत एच.एम.एस. ग्लासगो के साथ-साथ, रॉयल एयर फ़ोर्स के लड़ाकू विमानों को भी तैनात किया। उन्होंने नाविकों और उनका समर्थन करने के लिए सड़कों पर उतरे लोगों पर गोलियां चलाईं, जिसके परिणामस्वरूप 400 से अधिक लोग मारे गए और 1500 घायल हो गए।

जबकि कम्युनिस्टों ने विद्रोह को समर्थन दिया, कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग के नेताओं ने विद्रोह की निंदा की। उन्होंने विद्रोही नाविकों को आत्मसमर्पण करने को मनाने के लिए प्रतिनिधिमंडल भेजे। उन्होंने वादा किया कि किसी भी विद्रोही नौसैनिक को प्रताड़ित नहीं किया जायेगा, जिस वादे को तोड़ा गया था। आज़ादी के बाद भी, हिन्दोस्तान और पाकिस्तान की सरकारों ने उस वादे को पूरा करने से इनकार कर दिया। उन्होंने सेना से बर्खास्त किये गए लोगों को सशस्त्र बलों में पुनः शामिल होने से रोका। उन्होंने नौसेना के विद्रोह की कहानी को इतिहास की किताबों में दर्ज होने से भी रोका।

स्रोत: प्रमोद कुमार, 1946 स्वतंत्रता का अंतिम युद्ध – रॉयल इंडियन नेवी म्यूटिनी,
रोली बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, 2022।

सत्ता का हस्तांतरण

नौसेना विद्रोह ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को यह साफ़-साफ़ समझा दिया कि वे ब्रिटिश शासन के खि़लाफ़ लड़ रहे हिन्दोस्तानियों पर बल प्रयोग करने के लिए अब हिन्दोस्तानी सैनिकों पर भरोसा नहीं कर सकते थे। उन्होंने हिन्दोस्तान के बड़े पूंजीपतियों और बड़े जमींदारों को सत्ता का हस्तांतरण करने के तौर-तरीक़ों को निर्धारित करने के लिए, तुरंत एक कैबिनेट मिशन को हिन्दोस्तान भेजा।

हिन्दोस्तान से बाहर निकलने की अपनी रणनीति के हिस्से बतौर, ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग ने देश को हिंदू बहुल हिन्दोस्तान और मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में विभाजित करने का फै़सला किया। कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग के साथ अलग-अलग बातचीत करते हुए, उन्होंने हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों और जमींदारों के प्रतिस्पर्धी गुटों को यह मानने को राज़ी किया कि राजनीतिक सत्ता हासिल करने का यही एकमात्र तरीक़ा है।

सांप्रदायिक विभाजन से क्रांति को रोकने और लोगों के एकजुट संघर्षों को खून में बहाने का उद्देश्य पूरा हुआ। उससे इन दो नए-नए आज़ाद, पड़ोसी राज्यों के बीच स्थायी झगड़े के बीज बोये गए। उसके ज़रिये, दक्षिण एशिया को कमज़ोर, विभाजित तथा विश्व स्तर पर क्रांति और समाजवाद के खि़लाफ़ साम्राज्यवादी हमले का आधार बना कर रखा गया।

सत्ता के हस्तांतरण के प्रतिक्रांतिकारी उद्देश्यों को लॉर्ड माउंटबेटन ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया था। लॉर्ड माउंटबेटन 21 जून, 1948 तक ब्रिटिश हिन्दोस्तान के अंतिम वायसराय और आज़ाद हिन्दोस्तान के प्रथम गवर्नर-जनरल थे। रिपोर्टों के अनुसार, कई वर्षों बाद, माउंटबेटन ने अमरीका के साउथ कैरोलिना के मिलिट्री कॉलेज में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा था:

“ख़तरा, हमेशा की तरह, विनाशकारी कार्यवाहियों से है। यह हिन्दोस्तान के आज़ाद होने के बाद से बहुत कम है। उस नज़रिए से देखा जाये तो, ब्रिटेन के हिन्दोस्तान छोड़ने से, कम्युनिस्ट बुनियादी संगठनों को नष्ट करने और कम्युनिस्ट प्रचार का खंडन करने की हिन्दोस्तान की क्षमता को मजबूत किया गया था। उन्होंने (कांग्रेसी शासकों) ने कम्युनिस्टों को कुचल दिया, जबकि अंग्रेज कम्युनिस्टों के प्रति हिन्दोस्तानियों की हमदर्दी जगाए बिना ऐसा करने में सक्षम नहीं हो सकते थे।”

(हिंदुस्तान स्टैंडर्ड, 22 दिसंबर, 1962 में रिपोर्ट किया गया)

उपनिवेशवादी विरासत को बरकरार रखा गया है

आज़ादी के तुरंत बाद, नेहरू सरकार ने कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ क्रूर दमन शुरू किया। उसने कम्युनिस्टों को जेल में डाल दिया और उनमें से कई की जेल में हत्या भी कर दी। जब संविधान का मसौदा तैयार किया जा रहा था, तो उस अवधि के दौरान, नेहरू सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया था।

जिस संविधान सभा को आज़ाद हिन्दोस्तान के संविधान को लिखने का काम सौंपा गया था, उसे जनता ने सर्वव्यापी मताधिकार के आधार पर नहीं चुना था। उसके कुछ सदस्यों को ब्रिटिश राज द्वारा मनोनीत किया गया था। उसके अन्य सदस्य वे थे जो ब्रिटिश राज के प्रांतीय वैधानिक निकायों में चुने गए थे। वे ब्रिटिश शासन के चलते चुने गए थे, जब सिर्फ आबादी के थोड़े से संपत्ति वाले अल्पसंख्यकों के पास ही मतदान का अधिकार था। संविधान सभा के अधिकांश सदस्य बड़े पूंजीपतियों और बड़े जमींदारों के हितों का प्रतिनिधित्व करते थे, जो अंग्रेजों से सत्ता लेकर उसी व्यवस्था को अपने हित के लिए चलाना चाहते थे।

1950 का संविधान मानव श्रम के शोषण, किसानों और अन्य छोटे वस्तु उत्पादकों की लूट तथा हिन्दोस्तान के प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसौट के ज़रिये, पूंजीपतियों के अधिक से अधिक निजी मुनाफे़ हासिल करने के “हक़” की रक्षा करता है।

आज़ाद हिन्दोस्तान का संविधान ब्रिटिश उपनिवेशवादी राज्य के सांप्रदायिक नज़रिए को बरक़रार रखता है। वह हिन्दोस्तानी समाज को हिंदू बहुसंख्यक, मुस्लिम अल्पसंख्यक और कई अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों से बना हुआ मानता है। संविधान में एक ऐसा उपखंड भी है जो यह कहता है कि सिख और जैन हिंदू बहुसंख्या के भाग हैं।

हिन्दोस्तानी सरमायदारों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की रणनीति के उपनिवेशवादी शस्त्रागार को संरक्षित रखा है तथा उसे और असरदार बनाया है। साम्प्रदायिक हिंसा को आयोजित करने के लिए राज्य का इस्तेमाल करना, उसे ‘दंगे’ के रूप में घोषित करना, और फिर सांप्रदायिक सद्भाव का प्रचार करना, ये सभी आज़ाद हिन्दोस्तान में शासन के पसंदीदा तरीके बने हुए हैं।

जबकि हिन्दोस्तान को “राज्यों का संघ” कहा जाता है, तो संघ के किसी भी घटक की राष्ट्रीय पहचान और अधिकारों की कोई मान्यता नहीं है। अगर हिन्दोस्तानी संघ के अन्दर बसे हुए कोई भी राष्ट्र, राष्ट्रीयता या लोग अपने अधिकारों की मांग करते हैं तो उनके साथ अपराधियों जैसा व्यवहार किया जाता है। उन्हें राष्ट्रीय एकता और हिन्दोस्तान की क्षेत्रीय अखंडता के लिए ख़तरा माना जाता है। इस तरह, संविधान इस उपमहाद्वीप के विविध लोगों की राष्ट्रीय पहचान और अधिकारों के हनन को बरकरार रखता है।

केंद्रीय संसद के हाथों में राज्यों की सीमाओं की परिभाषा देने की सर्वोच्च शक्ति है। उसके हाथ में मौजूदा राज्यों को तोड़ने, नए राज्य बनाने या मौजूदा राज्यों को केंद्र शासित प्रदेशों में बदलने की शक्ति है। राज्यों पर अपनी मनमर्जी थोपने की केंद्र की अत्यधिक शक्तियां इजारेदार पूंजीपतियों के नज़रिए और उद्देश्यों को दर्शाती हैं, जो विभाजन के बाद के हिन्दोस्तान के पूरे क्षेत्र को अपनी जागीर मानते हैं।

सर्वव्यापी प्रौढ़ मताधिकार की लोकप्रिय मांग को स्वीकार करते हुए, संविधान सभा ने उसी राजनीतिक व्यवस्था को क़ायम रखने का फैसला किया, जिसे ब्रिटिश शासकों ने हिन्दोस्तानी लोगों को बांटकर उन पर राज करने के लिए स्थापित किया था। 1950 के संविधान का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा 1935 के ब्रिटिश गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट (भारत सरकार अधिनियम) से उठाया गया है।

हिन्दोस्तानी सरमायदारों ने चुनाव के नतीजे तय करने के लिए अपने बेशुमार धन और मीडिया-बल का इस्तेमाल किया है। वे चुनावों के ज़रिये, उस पार्टी या पार्टियों के गठबंधन को चुनकर सरकार में बिठाते हैं, जो सरमायदारों के एजेंडे को सबसे बेहतर ढंग से लागू कर सकते हैं, और इसके साथ-साथ लोगों को बेवकूफ बना सकते हैं कि उनकी समस्याओं का समाधान किया जा रहा है। अलग-अलग पार्टियों का स्थान समय-समय पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच में बदलता रहता है, लेकिन इससे अर्थव्यवस्था की पूंजीवादी दिशा में या लोगों के अधिकारों के बढ़ते हनन में कभी कोई बदलाव नहीं हुआ है।

पिछले 75 वर्षों में, पूंजी के बढ़ते संकेन्द्रण के साथ-साथ राजनीतिक सत्ता का संकेन्द्रण भी बहुत बढ़ गया है। उपनिवेशवादी काल से विरासत में मिले राज्य का इस्तेमाल करके, बड़े पूंजीपतियों ने पूंजीवाद को विकसित किया है, अपने हाथों में धन संकेंद्रित किया है और साम्राज्यवादी लक्ष्यों वाले इजारेदार पूंजीपतियों के रूप में विकसित हुए हैं। वे अब तक उदारीकरण और निजीकरण के साम्राज्यवादी नुस्खों को अपना चुके हैं और किसी प्रकार के समाजवाद या मिश्रित अर्थव्यवस्था के निर्माण के सभी ढोंगों को त्याग चुके हैं। यह स्पष्ट हो गया है कि तथाकथित सबसे बड़ा लोकतंत्र वास्तव में, मुट्ठीभर हिन्दोस्तानी और विदेशी इजारेदार पूंजीपतियों की हुक्मशाही ही है।

हिन्दोस्तान के इजारेदार पूंजीपति हिन्दोस्तान के अन्दर तथा विदेशी बाज़ारों में, विदेशी इजारेदार पूंजीपतियों के साथ सहयोग करते हैं और उनके साथ प्रतिस्पर्धा भी करते हैं। इजारेदार पूंजीपतियों के साम्राज्यवादी मंसूबों को पूरा करने के लिए हिन्दोस्तानी राज्य ने अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ रणनैतिक व सैनिक गठबंधन बनाया है।

अपने अत्यंत संकीर्ण हितों और साम्राज्यवादी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए, सरमायदार देश को बेहद ख़तरनाक रास्ते पर ले जा रहे हैं। वे मज़दूरों के शोषण और किसानों की लूट को असहनीय स्तर तक बढ़ा रहे हैं। वे फासीवादी क़ानूनों का इस्तेमाल करते हुए, ज्यादा से ज्यादा हद तक क्रूर दमन और मनमानी गिरफ्तारी का सहारा ले रहे हैं।

निष्कर्ष

ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन का अंत वस्तुगत तौर पर एक सकारात्मक विकास था। वह बीते समय से एक क़दम आगे था। परन्तु अगर श्रमजीवी वर्ग ने उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष का नेतृत्व किया होता, न कि पूंजीपति वर्ग, तो जो कुछ हासिल किया जा सकता था, वह उससे बहुत कम था।

आज के नज़रिए से अगर बीते समय को देखें, तो यह स्वीकार करना होगा कि 1947 में सत्ता के हस्तांतरण के दौरान, कम्युनिस्ट आंदोलन पूंजीपति वर्ग के विश्वासघात का पर्दाफ़ाश करने में नाक़ामयाब रहा। कम्युनिस्ट आन्दोलन उपनिवेशवादी विरासत से नाता तोड़ने और मज़दूरों व किसानों का राज स्थापित करके समाजवाद की राह पर चलने के लिए, एक क्रांतिकारी कार्यक्रम को विकसित करने में नाक़ामयाब रहा। स्पष्ट क्रांतिकारी नेतृत्व के अभाव की वजह से, मज़दूरों, किसानों और सैनिकों का जन-विद्रोह क्रांति की फतह तक नहीं पहुँच पाया।

आज कम्युनिस्ट आंदोलन के सामने पिछली नाक़ामयाबियों के बारे में रोने का काम नहीं है, बल्कि आज समस्या को समाधान के लिए उठाना है। हमारा काम श्रमजीवी वर्ग और सभी उत्पीड़ित और शोषित जनता को उपनिवेशवादी विरासत से नाता तोड़ने की आवश्यकता के बारे में जागरुक बनाना है। हिन्दोस्तान को पूंजीवाद और संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था से मुक्त होने की ज़रूरत है, जो व्यवस्था मूल रूप से पूंजीपति वर्ग की हुक्मशाही है।

यथास्थिति के क्रांतिकारी विकल्प के इर्द-गिर्द कम्युनिस्टों की एकता पुनर्स्थापित करनी होगी। इसके लिए सरमायादारी विचारधारा के साथ हर प्रकार के समझौते के ख़िलाफ़, संविधान के गुणगान और पूंजीवाद व संसदीय लोकतंत्र के बारे में भ्रम पैदा करने के खि़लाफ़, अडिग विचारधारात्मक संघर्ष की आवश्यकता है।

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी मज़दूरों और किसानों का राज स्थापित करने, साम्राज्यवादी व्यवस्था से बाहर निकलने, सामंतवाद और जातिवादी व्यवस्था के सभी अवशेषों को ख़त्म करने और पूंजीवाद से हटकर, समाजवाद के रास्ते पर चलने के कार्यक्रम के इर्द-गिर्द सभी कम्युनिस्टों को एकजुट होने का आह्वान करती है।

हिन्दोस्तान को नव-निर्माण की ज़रूरत है, नयी बुनियादों पर नयी शुरुआत करने की ज़रूरत है। हिन्दोस्तानी संघ को एक स्वैच्छिक संघ के रूप में पुनर्गठित करना होगा, जिसमें हरेक घटक के राष्ट्रीय अधिकारों का आदर किया जायेगा। संविधान को राष्ट्रीय अधिकारों सहित सभी लोकतांत्रिक और मानव अधिकारों की गारंटी देनी होगी। उसे लोगों को संप्रभु बनाना होगा। राजनीतिक प्रक्रिया को बदलना होगा ताकि मेहनतकश जनता फ़ैसले लेने की शक्ति का प्रयोग कर सके। अर्थव्यवस्था को सभी लोगों की बढ़ती ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में चलाना होगा, न कि मुट्टीभर पूंजीपतियों के अधिकतम निजी मुनाफों की लालच को पूरा करने के लिए।

Share and Enjoy !

Shares

One comment

  1. बहुत-बहुत ही बढ़िया जानकारी दी है. धन्यवाद

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *