बिजली के उत्पादन का निजीकरण – झूठे दावे और असली उद्देश्य

यह हिन्दोस्तान में बिजली क्षेत्र में वर्ग संघर्ष पर लेखों की श्रृंखला में चौथा लेख है।

1992 में स्वतंत्र बिजली उत्पादक नीति (आई.पी.पी.) की शुरुआत के साथ, बिजली का उत्पादन हिन्दोस्तानी और विदेशी पूंजीपतियों के लिए खोल दिया गया था। 1992 से पहले, बिजली का उत्पादन सार्वजनिक क्षेत्र में ही किया जाता था।

सरकार ने दावा किया था कि निजी क्षेत्र के प्रवेश से यह सुनिश्चित होगा कि बिजली की कोई कमी नहीं रहेगी। यह भी दावा किया गया था कि बिजली की आपूर्ति अधिक विश्वसनीय हो जाएगी और कम क़ीमत पर उपलब्ध होगी।

30 साल बाद न तो बिजली की कमी दूर हुई और न ही बिजली सस्ती हुई। पिछले 12 महीनों में देश को दो बार, अक्तूबर 2021 में और अप्रैल-मई 2022 में, बिजली की कमी के संकट का सामना करना पड़ा। किसानों को अब भी अपने सिंचाई के पंपों को चलाने के लिए रात में ही बिजली मिलती है।

अक्तूबर 2021 के संकट के दौरान बिजली को 20 रुपये प्रति यूनिट के उच्चतम दर पर ख़रीदा और बेचा गया था!

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, 25 वर्षों के बाद भी, 2017 में लगभग 20 करोड़ लोगों तक बिजली नहीं पहुंची थी। 2018 की ग्लोबल कोम्पेटिटिवनेस रिपोर्ट के अनुसार, बिजली की आपूर्ति की विश्वसनीयता में हिन्दोस्तान 137 देशों में से 80वें स्थान पर था।

हिन्दोस्तान के इजारेदार पूंजीवादी समूह आई.पी.पी. नीति के सबसे बड़े लाभार्थी रहे हैं। देश की बिजली उत्पादन क्षमता का लगभग आधा हिस्सा आज भी टाटा, अडानी, अनिल अंबानी, जिंदल, गोयंका, टोरेंट और कुछ अन्य समूहों के स्वामित्व और नियंत्रण वाली निजी कंपनियों के पास है।

ये इजारेदार समूह अब राज्य के स्वामित्व वाले कुशल बिजली उत्पादन संयंत्रों पर नज़र डाल रहे हैं। लेकिन, सार्वजनिक उत्पादन संयंत्रों के निजीकरण के कार्यक्रम को बिजली क्षेत्र के मज़दूरों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है।

महाराष्ट्र सरकार ने जब पन-बिजली संयंत्रों का संचालन निजी कंपनियों को सौंपना चाहा तो बिजली कर्मचारियों और इंजीनियरों ने एकजुट होकर इसका विरोध किया था। चूंकि पन-बिजली संयंत्र बिजली का सबसे सस्ता स्रोत हैं, इसलिए इसके निजीकरण से सरकारी वितरण कंपनी (डिस्कॉम) और महाराष्ट्र के लोगों, दोनों को नुक़्सान होगा। आंध्र प्रदेश के बिजली मज़दूरों द्वारा इसी तरह का संघर्ष तब छेड़ा गया था, जब राज्य सरकार ने श्री दामोदरम संजीवैया थर्मल पावर स्टेशन को दीर्घकाल के लिए निजी कंपनी को सौंपने का प्रस्ताव किया था।

जब बिजली उत्पादन को लाइसेंस मुक्त कर दिया गया, तो पूंजीपति बिजली परियोजनाओं को स्थापित करने के लिए दौड़े, क्योंकि उन्हें दीर्घकालिक बिजली ख़रीद के समझौतों (पी.पी.ए.) द्वारा लाभदायक बिक्री का आश्वासन दिया गया था। 1992 में हुई, इस नीति की घोषणा के दो साल के भीतर ही, पूंजीपतियों द्वारा बिजली परियोजनाओं के लिए 138 समझौतों के ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए गए थे। इन परियोजनाओं की क्षमता देश की पूरी स्थापित बिजली क्षमता से अधिक थी!

बिजली की एक निश्चित मात्रा की खरीद के लिए 25 साल तक की लंबी अवधि के लिए पी.पी.ए. करार किये गए थे। इसके लिए राज्य बिजली बोर्डों को अगले 25 वर्षों में बिजली की मांग का अनुमान लगाने की आवश्यकता थी। पी.पी.ए. को सही ठहराने के लिए, मांग का अनुमान अक्सर अधिक लगाया गया। कई राज्यों में, अनुबंधित क्षमता उच्चतम मांग से 30 प्रतिशत अधिक है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र में 37,896 मेगावाट की आपूर्ति के लिए पी.पी.ए. थे, जबकि इसकी अधिकतम मांग केवल 22,516 मेगावाट थी। इसी तरह, तमिलनाडु में अधिकतम मांग केवल 14,223 मेगावाट थी, लेकिन विद्युत बोर्ड ने 26,975 मेगावाट के लिए पी.पी.ए. पर हस्ताक्षर किए थे।

2017-18 तक, देश में लगभग 3,34,000 मेगावाट स्थापित क्षमता थी, जिसमें से 2,91,000 दीर्घकालिक पी.पी.ए. के तहत थी। उस वर्ष में अधिकतम मांग केवल 1,64,000 मेगावाट थी।

केंद्र सरकार ने विद्युत विनियामक आयोगों को ”लागत प्लस मुनाफ़ा“ के आधार पर ”लाभकारी“ बिजली शुल्क तय करने की सलाह दी है। शुल्क निर्धारण के लिए गारंटीकृत मुनाफ़े की दर वर्तमान में ताप विद्युत संयंत्रों के लिए 15.5 प्रतिशत और पवन और सौर ऊर्जा आधारित संयंत्रों के लिए 16 प्रतिशत है। यह इक्विटी पर टैक्स के बाद का रिटर्न है। हिन्दोस्तानी उद्योगों के औसत मुनाफ़े की दर की तुलना में, निजी बिजली उत्पादकों के लिए गारंटीकृत मुनाफ़े की दर बहुत अधिक है। सरकार का दावा है कि बिजली उत्पादन में निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए इस तरह की दर की पेशकश करना आवश्यक है।

पी.पी.ए. में आम तौर पर एक प्रावधान होता है कि अगर कोई बिजली वितरण कंपनी समझौते के अनुसार बिजली नहीं लेती है, तब भी उसे उत्पादक को न्यूनतम शुल्क का भुगतान करना पड़ता है। इसलिए, एक निजी उत्पादक किसी को बिजली बेचे बिना भी कमाता है जबकि राज्य बिजली बोर्ड बिजली का उपयोग किये बिना भी उन्हें भुगतान करते हैं। यह पी.पी.ए. की एक आवश्यक शर्त है।

इसका एक उदाहरण मध्य प्रदेश का है, जिसकी वितरण कंपनियों ने 2016-17 से 2020-21 की अवधि में निजी उत्पादन कंपनियों द्वारा बिजली की आपूर्ति हुए बिना भी उन्हें ”निष्क्रिय क्षमता शुल्क“ के रूप में 12,834 करोड़ रुपये का भुगतान किया है।

इस प्रकार, पी.पी.ए. ने यह सुनिश्चित किया है कि इजारेदार पूंजीपतियों की निजी कंपनियां मुनाफ़ा कमाती रहें, जबकि सरकारी कंपनियों का हाल बद से बदतर होता रहे।

सरकार ने हिन्दोस्तानी और विदेशी इजारेदार पूंजीपतियों की हद से ज्यादा मदद की है। पहले की कुछ परियोजनाओं में, केंद्र सरकार ने निजी बिजली कंपनी को राज्य बिजली बोर्ड द्वारा बकाया का भुगतान करने के लिए भी गारंटी दी थी।

1990 के दशक में पहली बड़ी निजी बिजली परियोजना एनरॉन नामक एक अमरीकी इजारेदार कंपनी द्वारा शुरू की गई थी। महाराष्ट्र में एनरॉन परियोजना ने निजीकरण के कार्यक्रम ने जन-विरोधी और समाज-विरोधी चरित्र को पूरी तरह से उजागर कर दिया।

बिजली कर्मचारियों और विभिन्न जन संगठनों ने एनरॉन परियोजना का उस दिन से विरोध किया था, जिस दिन से इसका प्रस्ताव किया गया था। चूंकि यह परियोजना आयातित पेट्रोलियम ईंधन पर आधारित थी, इसलिए उत्पादित बिजली की लागत उस समय की प्रचलित बिजली दर से कई गुना अधिक होने वाली थी। प्रस्तावित क्षमता राज्य की आवश्यकता से बहुत अधिक थी। इस परियोजना ने महाराष्ट्र राज्य बिजली बोर्ड (एम.एस.ई.बी.) को दिवालिया बना दिया। लोग पर्यावरण को क्षति और अपने बढ़ते बिजली बिलों के बारे में बहुत चिंतित थे।

जब 1999 में एनरॉन संयंत्र शुरू हुआ, तब एम.एस.ई.बी. को, एक यूनिट बिजली के लिए 7.80 रुपये की ऊंची क़ीमत पर, 2000 मेगावाट बिजली ख़रीदने के लिए मजबूर किया गया, भले ही इसकी आवश्यकता नहीं थी। उपभोक्ताओं ने बिजली के लिए 11 रुपये प्रति यूनिट का भुगतान किया। बिजली कर्मचारियों और लोगों, दोनों ने अपना विरोध तेज़ कर दिया और राज्य सरकार को एनरॉन के साथ इस पी.पी.ए. को रद्द करने के लिए मजबूर किया। जाना जाता है कि एम.एस.ई.बी. को इस प्रक्रिया में 3,360 करोड़ रुपये का नुक़्सान हुआ।

आंध्र प्रदेश सरकार ने 2019 में अनुमान लगाया था कि पिछले पांच वर्षों के दौरान, हस्ताक्षर किए गए पी.पी.ए. के कारण उसे सालाना 2,200 करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च करना पड़ रहा था। लेकिन, केंद्र सरकार ने कहा कि वह पी.पी.ए. की समीक्षा नहीं कर सकती है और उन पर फिर से बातचीत नहीं कर सकती है। ऊर्जा मंत्री ने मुख्यमंत्री को लिखा कि ”बिजली ख़रीद समझौते सभी हस्ताक्षरकर्ताओं पर बाध्यकारी अनुबंध हैं। यदि अनुबंधों का सम्मान नहीं किया जाता है, तो निवेश आना बंद हो जाएगा। उपर्युक्त कारणों से, सभी पी.पी.ए. को रद्द करना ग़लत है और यह क़ानून के खि़लाफ़ होगा“।

दूसरी ओर, इजारेदार पूंजीपतियों को पी.पी.ए. का उल्लंघन करने की अनुमति दी गई है। जब गुजरात के समुद्र तट पर टाटा और अडानी के आयातित कोयले से चलने वाले संयंत्रों ने कोयले की क़ीमतों में वृद्धि के कारण, बिजली की क़ीमत में संशोधन करने की मांग की तो अनुबंध की शर्तों की अनदेखी करते हुए, इसकी अनुमति दे दी गई। हाल ही में, जब यूक्रेन में युद्ध के कारण कोयले की क़ीमतें बढ़ गईं, तो इन संयंत्रों ने अपने पी.पी.ए. की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया और अपने संयंत्रों को यह कहते हुए बंद कर दिया कि उन्हें दी जा रही बिजली की क़ीमत उत्पादन की लागत को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं थी।

यह स्पष्ट है कि पी.पी.ए. का असली उद्देश्य इजारेदार पूंजीपतियों के लिए गारंटीकृत मुनाफ़े सुनिश्चित करने के साथ-साथ, बिजली उत्पादन को उनके लिए “कम जोख़िम वाला” व्यवसाय बनाना ही रहा है। पी.पी.ए. ने सरकारी बिजली उत्पादन और वितरण कंपनियों की आर्थिक हालत को ख़राब कर दिया है, जिसके ज़रिये उनका निजीकरण के लिए रास्ता तैयार किया गया है। पूंजीपतियों के मुनाफ़ों को मज़दूरों और अन्य मेहनतकश लोगों से बिजली के लिए अधिक से अधिक दाम वसूल कर सुनिश्चित किया गया है।

तीसरा लेख पढ़िए: हिन्दोस्तान में बिजली आपूर्ति का ऐतिहासिक विकास – 1947 से 1992

पांचवां लेख पढ़िए: बिजली के वितरण का निजीकरण – झूठे दावे और असली उद्देश्य

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