किसी भी नाम या रूप में निजीकरण मंजूर नहीं!
13 साल पहले, फरवरी, 2000 में मज़दूर एकता कमेटी के नेतृत्व में, मॉडर्न फूड्स इंडस्ट्रीज़ (इंडिया) लिमिटेड (एम.एफ.आई.एल.) के मज़दूरों ने नयी दिल्ली में संसद सत्र के पहले दिन एक जोशीला प्रदर्शन किया। वे सरकार की मालिकी की एम.एफ.आई.एल.
किसी भी नाम या रूप में निजीकरण मंजूर नहीं!
13 साल पहले, फरवरी, 2000 में मज़दूर एकता कमेटी के नेतृत्व में, मॉडर्न फूड्स इंडस्ट्रीज़ (इंडिया) लिमिटेड (एम.एफ.आई.एल.) के मज़दूरों ने नयी दिल्ली में संसद सत्र के पहले दिन एक जोशीला प्रदर्शन किया। वे सरकार की मालिकी की एम.एफ.आई.एल. को निजी बहुराष्ट्रीय कंपनी हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड (एच.एल.एल.) को बेचने का विरोध कर रहे थे। एम.एफ.आई.एल. के मज़दूरों का साथ कानपुर के वस्त्र उद्योग के सैकड़ों मज़दूर दे रहे थे, जो मिलों में तालेबंदी का सामना कर रहे थे और मांग कर रहे थे कि उनकी बंद मिलें वापस खोली जायें। यह संयुक्त कार्यवाई, हिन्दोस्तानी मज़दूर वर्ग द्वारा पूंजीपतियों के निजीकरण व उदारीकरण के कार्यक्रम के खिलाफ़ संघर्ष में एक महत्वपूर्ण मील पत्थर था।
राजग सरकार ने एम.एफ.आई.एल. और भारत एल्यूमिनियम कंपनी (बाल्को) के निजीकरण का फैसला जनवरी 2000 में दावोस में होने वाले विश्व आर्थिक शिखर सम्मेलन की पूर्वसंध्या पर घोषित किया था। दुनिया के लिये यह एक घोषणा थी कि हिन्दोस्तानी शासक वर्ग, हिन्दोस्तानी आर्थिक नीति को हिन्दोस्तानी व वैश्विक इजारेदारों के हित में चलायेगा। इसके पहले, संयुक्त मोर्चा की देव गौड़ा की सरकार ने विनिवेश आयोग का गठन किया था, जिसने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को “रणनैतिक”, “मूल” और एक तीसरी श्रेणी में डाला था जो न “रणनैतिक” हो और न ही “मूल“। निजीकरण का हमला सबसे पहले उन पर होने वाला था जो इस तीसरी श्रेणी में थे।
उस समय, संसदीय पार्टियों से जुड़े ट्रेड यूनियनों ने पूंजीपतियों के प्रचार को स्वीकार किया था कि “निजीकरण का कोई विकल्प नहीं है”। उन्होंने एम.एफ.आई.एल. के निजीकरण को स्वीकार किया था क्योंकि वह “रणनैतिक” उद्योग नहीं था और उसमें “घाटा“ हो रहा था। मज़दूर एकता कमेटी ने पूंजीपतियों के सभी झूठों के खिलाफ़, ईंट के जवाब में पत्थर का संघर्ष किया। सात साल तक जब तक अंतिम मज़दूर को नौकरी से नहीं निकाल दिया गया, हिन्दोस्तान में एम.एफ.आई.एल. के प्रमुख कारखाने, दिल्ली में लॉरेंस रोड पर स्थित एम.एफ.आई.एल. की इकाई पर देश भर के एम.एफ.आई.एल. के 3000 नियमित व ठेके के मज़दूरों ने निजीकरण के खिलाफ़ संघर्ष जारी रखा।
मज़दूर एकता कमेटी और एम.एफ.आई.एल. यूनियन ने ऐलान किया कि निजीकरण देश विरोधी और मज़दूर विरोधी है। राजग सरकार के विनिवेश मंत्री की टिप्पणी, कि सरकार का काम डबलरोटी बनाना नहीं है, इसके जवाब में उन्होंने मंत्री से पूछा कि, “फिर सरकार का काम क्या है?” उन्होंने पर्दाफाश किया कि किस तरह निजीकरण की सफाई देने के लिये, सरकार ने जानबूझ कर लाभ में चलने वाली एक कंपनी को क्रमशः घाटे की कंपनी बना दिया। उन्होंने पर्दाफाश किया कि एम.एफ.आई.एल. को, जिसकी चल और अचल सम्पत्ति का मूल्यांकन सन् 2000 में 2000 करोड़ रु. से ज्यादा था, उसको बहुराष्ट्रीय कंपनी हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड को मात्र 124 करोड़ रु. में सौंप दिया। उन्होंने निजीकरण के प्रचारकों के झूठों का पर्दाफाश किया कि निजीकरण के बाद एच.एल.एल. इस कंपनी को “कार्यकुशलता” से चलायेगा। उन्होंने दिखलाया कि किस तरह एच.एल.एल. एक के बाद एक सम्पत्ति बेच कर एम.एफ.आई.एल. की संपत्ति से फायदा उठा रहा था और मॉडर्न ब्रेड का ब्रांडनाम इस्तेमाल करके ठेके पर अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में डबलरोटी बनवा रहा था।
मज़दूर एकता कमेटी और एम.एफ.आई.एल. यूनियन के द्वारा किये संघर्ष से दूसरे मज़दूरों को निजीकरण के कार्यक्रम के खिलाफ़ आंदोलन करने का प्रोत्साहन मिला। मज़दूर वर्ग की बढ़ती एकता व लड़ाकू उत्साह फरवरी 2003 में आयोजित विशाल जन रैली में स्पष्ट था। निजीकरण के विरोध में लगातार अपने संघर्ष के दौरान, एम.एफ.आई.एल. के मज़दूरों की सबसे बड़ी और बहादुर, दिल्ली की इकाई ने अनेक रूप के संघर्ष किये – संसद के सामने प्रदर्शन, दिल्ली सरकार के खिलाफ़ प्रदर्शन, सांसदों से निवेदन, आदि। दो साल तक लगातार उन्होंने कंपनी के फाटक के सामने धरना दिया। उनके संघर्ष के कारण वाजपेयी सरकार को, एम.एफ.आई.एल. और बाल्को के निजीकरण के नतीजों की जांच पड़ताल करने के लिये प्रधान मंत्री की एक विशेष समिति बनानी पड़ी। मज़दूर एकता कमेटी और एम.एफ.आई.एल. यूनियन ने समिति के सामने दस्तावेजी सबूत रखे कि कैसे एच.एल.एल. का प्रबंधन कंपनी के कारखानों व मशीनों को बेच रहा है और श्रम कानूनों का उल्लंघन करते हुये, नियमित मज़दूरों का काम ठेका मज़दूरों से करवा रहा है। उन्होंने दिखलाया कि एच.एल.एल. प्रबंधन को सिर्फ मॉडर्न ब्रेड के ब्रांडनाम में और बहुमूल्य भूमि भवन में रुचि है जो निजीकरण से उन्हें प्राप्त हुये हैं।
जब निजीकरण पर समिति ने सरकार को अपनी रिपोर्ट दी, तब एम.एफ.आई.एल. के मज़दूरों ने मांग की कि रिपोर्ट को संसद में पेश किया जाये और इस पर चर्चा की जाये। परन्तु मनमोहन सिंह सरकार में, जो वाम पार्टियों के समर्थन से सत्ता में आयी थी, इस मांग को पूरा नहीं होने दिया। एम.एफ.आई.एल. और बाल्को के निजीकरण को उलटने की मांग पर चुप्पी साध कर, संप्रग सरकार ने निजीकरण का दूसरा रास्ता अपनाया, हालांकि उसी मकसद को पाने के लिये।
इस ऐतिहासिक संघर्ष से मज़दूरों को सीखने वाले पाठों को दोहराना महत्वपूर्ण है।
इस संघर्ष ने सरकार को सार्वजनिक सम्पत्ति को सीधे तौर पर बेचने की क्रिया को त्यागने पर मज़बूर किया। परन्तु, पूंजीपतियों ने निजीकरण को दूसरे रूपों में जारी रखा है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के अलग-अलग हिस्से बना कर, उन्हें निजी कंपनियों के द्वारा बाहर से चलवाना शुरू किया गया, जैसे कि रेलवे में। शिक्षा, स्वास्थ्य व दूसरी सामाजिक सेवाओं का निजीकरण, राज्य सरकारों द्वारा “सार्वजनिक निजी सांझेदारी (पी.पी.पी.)” के रूप में किया गया है, जिसके लिये तकनीकी सहयोग केन्द्र सरकार द्वारा विश्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय परामर्श कंपनियों की मदद से जुटाया गया है। चाहे राज्य की मालिकी की कंपनी एक झटके में निजी मालिक को बेची जाती है या थोड़ी-थोड़ी करके, दोनों का अंतिम नतीजा एक ही है, कि समाज के औपचारिक प्रतिनिधि बतौर राज्य की मालिकी से यह निजी कंपनियों की मालिकी में आ जाती है।
पिछले दशक में एम.एफ.आई.एल. और दूसरे उद्यमों के मज़दूरों के संघर्षों के अनुभव के सबक साफ हैं। मज़दूर वर्ग को निजीकरण के मुद्दे पर समझौता नहीं करना चाहिये। “अंधाधुंध निजीकरण” के पर्याय में “गैर रणनैतिक और घाटे में चलने वाली इकाइयों का चुनिंदा निजीकरण” को मान जाना या किसी और तरीके से या किसी भी नाम से निजीकरण को स्वीकार करना, अपने ही आधार को कमजोर करना है और पूंजीपतियों के झांसे में फंस जाने के बराबर है।
मज़दूर वर्ग को सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम के टुकड़े करना, ठेके पर चलाना, या और किसी तरह से बेचने या विनिवेश करने की हर कोशिश के खिलाफ़ एक बिना-समझौता संघर्ष के लिये एकजुट होना होगा।
हम निजीकरण व उदारीकरण के कार्यक्रम के प्रश्न पर किसी तरह का समझौता नहीं सह सकते। हमें इस कार्यक्रम के सार और उद्देश्य का विरोध करना होगा, न सिर्फ उसके लागू करने के तरीके को। संघर्ष उनके बीच है जो पूंजीवादी निजी सम्पत्ति का विस्तार करना चाहते हैं और वे जो इसको सामाजिक सम्पत्ति में बदलना चाहते हैं।
चलो हम मॉडर्न फूड्स के मज़दूरों द्वारा शुरू किये संघर्ष को पूरा करें! निजीकरण व उदारीकरण के कार्यक्रम से समझौतों के रास्तों को ठुकरा दें! चलो हम पूंजीवादी-साम्राज्यवादी कार्यक्रम के विरोध में बिना समझौता संघर्ष करें! चलो हम मज़दूर वर्ग के समाजवाद बनाने के वैकल्पिक कार्यक्रम के इर्द-गिर्द एकजुट हों!
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी, मज़दूर वर्ग को बुलावा देती है कि हिन्दोस्तानी राज्य की निजीकरण की दौड़ के खिलाफ़ मजबूत एकता बनायें और शासक वर्ग के कार्यक्रम के विकल्प में मज़दूर वर्ग के एक सांझे कार्यक्रम के बारे में चर्चा करें और इसके इर्द-गिर्द एकजुट हों!