“हिन्दोस्तानी लोकतंत्र” का असली चेहरा
9 फरवरी की सुबह को, अत्यंत गुप्त रूप से हिन्दोस्तानी राज्य ने मोहम्मद अफ़ज़ल गुरु को फांसी पर चढ़ाया और दिल्ली के तिहाड़ जेल में ही उसे दफना दिया। उसके परिवार और बाकी देशवासियों को फांसी हो जाने के बाद ही उसकी जानकारी मिली। अफ़ज़ल गुरु की फांसी एक बेशर्म और कायरतापूर्ण हरकत है जिसे कानून और न्
“हिन्दोस्तानी लोकतंत्र” का असली चेहरा
9 फरवरी की सुबह को, अत्यंत गुप्त रूप से हिन्दोस्तानी राज्य ने मोहम्मद अफ़ज़ल गुरु को फांसी पर चढ़ाया और दिल्ली के तिहाड़ जेल में ही उसे दफना दिया। उसके परिवार और बाकी देशवासियों को फांसी हो जाने के बाद ही उसकी जानकारी मिली। अफ़ज़ल गुरु की फांसी एक बेशर्म और कायरतापूर्ण हरकत है जिसे कानून और न्याय के नाम पर कभी उचित नहीं ठहराया जा सकता है। बल्कि, सभी सबूतों से यही दिखता है कि इस मामले में कानून और न्याय की धज्जियां उड़ाई गयी हैं।
अफ़ज़ल गुरु को हमेशा के लिये खामोश इसलिये किया गया ताकि लोगों के मन में उठे उन तमाम सवालों को खत्म कर दिया जाये, कि दिसंबर 2001 को संसद में हुई गोलाबारी – जिस हादसे के संबंध में अफ़ज़ल गुरु पर आरोप लगाया गया था – के लिये वास्तव में कौन जिम्मेदार था और उसका मकसद क्या था। राज्य के अधिकारियों ने इन सवालों का कभी भी जवाब नहीं दिया है, बल्कि उन्होंने अफ़ज़ल गुरु को बलि का बकरा बनाने का रास्ता अपनाया।
अफ़ज़ल गुरु को लगभग सात वर्ष तक मृत्यु दंड के लिये बिठाकर रखा गया, जिस दौरान तरह-तरह की प्रतिक्रियावादी ताकतों ने उसे फांसी की सज़ा देने के पक्ष में खूब शोर मचाया। इस सब के बाद, इस समय अफ़ज़ल गुरु को इस प्रकार फांसी देना, कुछ खास राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने के लिये लिया गया एक राजनीतिक कदम है। इसका उद्देश्य है हिन्दोस्तानी राज्य द्वारा उस उत्तेजित प्रचार को बढ़ावा देना कि ‘आतंकवाद’ आज हिन्दोस्तानी लोगों का मुख्य दुश्मन है, कि यह राज्य लोगों की सुरक्षा का रक्षक है। इसका उद्देश्य है साम्प्रदायिक बंटवारे को और गहरा करना तथा उन लोगों के खिलाफ़ बदले की भावना को उकसाना, जिन्हें राज्य “जनता के दुश्मन” करार देना चाहता है। इसकी वजह से कश्मीर के लोगों और आम तौर पर मुसलमान धर्म के लोगों, खास कर नौजवानों, पर पहले से ही चल रहा असहनीय दबाव और बढ़ जायेगा।
सच यह है कि अफ़ज़ल गुरु कश्मीर में एक पूर्व-उग्रवादी था जिसने हथियार डाल दिया था और पुलिस की निगरानी में था। संसद पर हमला कांड के नाम से जानी जाने वाली, दिसंबर 2001 में हुयी संदिग्ध साज़िश में उसे काफी छोटे किरदार बतौर इस्तेमाल किया गया था। उस साज़िश के पीछे किसका हाथ था? उसका क्या उद्देश्य था? उसमें कौन-कौन शामिल थे? 11 वर्ष से अधिक समय बीत चुका है परन्तु इन सवालों के जवाब अभी भी खुलकर सामने नहीं आये हैं। उस घटना में तथाकथित आरोपित बतौर 4 लोगों को उठाकर जेल में बंद कर दिया गया था, परन्तु उनमें से 3 लोगों के खिलाफ़ मामले इतने कच्चे थे कि अदालत उन्हें खारिज़ करने को मजबूर था। अफ़ज़ल के मामले में यह स्पष्ट था कि उसे मार-पीट कर दोष कबूल करने और अन्तर्विरोधी बयान देने को जबरन मजबूर किया गया था, यहां तक कि अदालतों ने भी माना कि ये बयान बहुत कमज़ोर थे और सबूत बतौर नहीं स्वीकार किये जा सकते थे। परन्तु इन तथाकथित “दोष कबूल” के बयानों के आधार पर और बड़ी पूंजीवादी कंपनियों द्वारा नियंत्रित मीडिया के सहारे, उस साज़िश की संदिग्ध, अज्ञात बारीकियों (जिनकी कभी जांच नहीं की गई) से जनता का ध्यान हटाया गया। सच्चाई का खुलासा करने के बजाय, अफज़ल के “दोष” पर जनता का ध्यान केंद्रित करवाया गया, हालांकि निर्णायक सुनवाई के समय उसे सही कानूनी मदद प्राप्त करने का मौका तक नहीं दिया गया। आज तरह-तरह के नेता ऐलान कर रहे हैं कि “कानून ने अपना रास्ता लिया”, परन्तु अफ़ज़ल के मामले में कानून ने कौन-सा रास्ता लिया, उसकी यही सच्चाई है।
अफ़ज़ल के मामले में मौत की सज़ा का अनुमोदन करते हुये, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह स्वीकार किया कि अफ़ज़ल के खिलाफ़ सबूत पूरी तरह पारिस्थितिक था। यह बहुत ही आश्चर्यजनक है कि किसी व्यक्ति को सिर्फ पारिस्थितिक सबूत के आधार पर ही मृत्युदंड दिया जाये। परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला उचित ठहराने के लिये यह कहा कि “सामूहिक विवेक” अफ़ज़ल गुरु की मौत से कम किसी कदम से संतुष्ट नहीं होगा। क्या है यह “सामूहिक विवेक”, जिसने अफ़ज़ल गुरु की मौत की मांग की थी, जैसा कि हमें बताया जा रहा है? यह तथाकथित “सामूहिक विवेक” शासक वर्ग और उसके राज्य की एक भयानक रचना है, एक हव्वा है जो मीडिया द्वारा, झूठे और मनगढ़ंत प्रचार द्वारा, खौफ फैलाकर, बदले की भावना को उकसाकर और दूसरे घिनावने तरीकों से रचित किया जाता है। जनता में उत्तेजना फैलाने के लिये इन्हीं तरीकों को बार-बार इस्तेमाल किया जाता है, जब भी कभी समाज के किसी तबके के अधिकारों के खिलाफ़ किसी प्रमुख हमले की योजना बनायी जाती है या किसी जंग की तैयारी की जाती है, ताकि इस झूठे तरीके से उसे “जनमत” बताया जा सके। अफ़ज़ल गुरु का मामला और इतने वर्षों तक बहुत-चर्चित वाद-विवाद, कि उसे फांसी होनी चाहिये या नहीं, इसका मकसद था लोगों का ध्यान “आतंकवाद” के हव्वे पर केन्द्रित रखना और अन्य ज़रूरी समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाना।
सरकार और उसकी सफाई देने वाले अब इसे अपनी जीत मान रहे हैं और ऐलान कर रहे हैं कि अफ़ज़ल की फांसी से “सख्त संदेश” भेजा जा रहा है। यही “सख्त संदेश” नवंबर 1984 में भेजा गया था, फिर दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद आयोजित खून-खराबे के द्वारा भेजा गया था, फिर 2002 में गुजरात में जनसंहार आयोजित करके भेजा गया था। यह संदेश है कि अपने राजनीतिक मकसदों को हासिल करने के लिये राज्य और शासक वर्ग और उसके नेतागण बेगुनाह लोगों का खून बहाने या आतंक व असुरक्षा का माहौल खड़ा करने से पीछे नहीं हटेंगे। देश को अफ़ज़ल की फांसी की खबर मिलने से पहले ही, पूरे कश्मीर में मोबाइल फोन और इंटरनेट कनेक्शन काट दिये गये, टी.वी. संचार भी बंद कर दिया गया, लोगों को जबरन अपने घरों के अन्दर रहने को मजबूर किया गया, और इस तरह के कठोर कदम लागू किये गये। यह “हिन्दोस्तानी लोकतंत्र” का असली चेहरा दिखाता है।
मजदूर एकता लहर हिन्दोस्तानी राज्य की इस कायरतापूर्ण हरकत की कड़ी निंदा करती है और अपना गुस्सा जाहिर करती है।