श्रीलंका द्वीप, जो हिन्दोस्तान के दक्षिण में स्थित हमारा पड़ोसी देश है, इस समय एक चौतरफे और अपने इतिहास के सबसे गहरे संकट से गुज़र रहा है। हाल के महीनों में वहां पर भोजन, ईंधन, दवाओं और अन्य आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बहुत कम हो गई है। श्रीलंका लोगों के उपभोग की कई आवश्यक वस्तुओं को पूरा करने के लिए आयात पर निर्भर है। उन वस्तुओं को विदेशों से ख़रीदने के लिए आवश्यक विदेशी मुद्रा की कमी के कारण लाखों लोग अपनी बुनियादी ज़रूरतों से वंचित हो गए हैं। तेल के आयात में गिरावट के कारण ईंधन की भारी किल्लत हो गई है, जिसके कारण बिजली की कटौती की समस्या काफी गंभीर हो गई है।
इसके विरोध में लोग बड़ी संख्या में सड़कों पर उतर आए हैं। 1 अप्रैल को राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने आपातकाल घोषित कर दिया था। आपातकाल लगाये जाने को इतने व्यापक और भारी गुस्से से भरे विरोध का सामना करना पड़ा कि उन्हें आपातकाल को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके बाद प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को इस्तीफ़ा देना पड़ा। राष्ट्रपति ने उनकी जगह पर पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त किया।
श्रीलंका में इस चौतरफे संकट के लिए ज़िम्मेदार घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कारण क्या हैं? सच्चाई क्या है? इन सवालों पर सबसे ज्यादा भ्रम फैलाया जा रहा है।
विदेशी क़र्ज़ और निर्यात आधारित विकास
2019 के अंत में श्रीलंका का विदेशी क़र्ज़ अपनी सबसे अधिक ऊंचाई पर, 56 अरब अमरीकी डॉलर तक पहुंच गया था। पश्चिमी साम्राज्यवादी मीडिया और तमाम तरह के तथाकथित विशेषज्ञ, इसके लिए चीन को तथा राजपक्षे शासन द्वारा चीन पर आर्थिक मदद के लिए निर्भर होने को दोषी ठहराने की कोशिश कर रहे हैं। अमरीका चीन पर “क़र्ज़जाल की कूटनीति” का आरोप लगा रहा है।
सच तो यह है कि श्रीलंका के विदेशी क़र्ज़ में चीन का हिस्सा सिर्फ 10 फ़ीसदी है। विदेशी क़र्ज़ के सबसे बड़े हिस्से को “बाज़ार के उधार” के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जो कि अमरीका और यूरोप के बड़े इजारेदार बैंकों का बकाया है। इसमें विश्व बैंक और एशियन डेवलपमेंट बैंक, प्रत्येक का लगभग 10 प्रतिशत है (चार्ट-बी)। दूसरे शब्दों में श्रीलंका द्वारा लिये गये क़र्ज़ में अमरीकी, यूरोपीय और जापानी पूंजीपतियों की मालिकी वाली वित्तीय संस्थाओं की कुल हिस्सेदारी 80 प्रतिशत है। श्रीलंका के क़र्ज़ की समस्या के लिए चीन पर आरोप लगाने का कोई आधार नहीं है।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) ने अब तक श्रीलंका को 16 क़र्ज़ दिए हैं और इन सभी को चुका दिया गया है। आई.एम.एफ. से मिले प्रत्येक क़र्ज़ की शर्त थी, खाद्य सब्सिडी सहित सरकारी सब्सिडी में कटौती करना, सामाजिक सेवाओं पर होने वाले खर्च को कम करना और श्रीलंका के निर्यात को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए राष्ट्रीय मुद्रा का अवमूल्यन करना।
श्रीलंका को आर्थिक विकास के एक ख़तरनाक रास्ते पर धकेलने के लिए आई.एम.एफ. और साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी के अन्य संस्थान ज़िम्मेदार है, जिसे निर्यात आधारित विकास कहा जाता है। उस रास्ते पर चलने के विनाशकारी परिणामों में से एक है क़र्ज़ का बोझ।
विश्व बैंक, आई.एम.एफ. और पूर्व औपनिवेशिक देशों की नव-औपनिवेशिक लूट की अन्य एजेंसियों द्वारा निर्यात आधारित विकास या निर्यात-उन्मुख विकास को बढ़ावा दिया गया है। विशेषकर 1980 के दशक से इसे एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के देशों में विकास के लिये सर्वोत्तम मार्ग के रूप में प्रचारित किया गया है। इसका मतलब उत्पादन को विश्व बाज़ार की ओर उन्मुख करना है। इसका अर्थ यह हुआ कि श्रीलंका को ऐसी वस्तुओं के उत्पादन में अधिक से अधिक निवेश करना चाहिए, जिनका निर्यात लाभकारी मूल्य पर किया जा सके।
“मुक्त बाज़ार” के सिद्धांतकारों ने और उदारीकरण, निजीकरण तथा निर्यात उन्मुख विकास के पैरोकारों ने यह दावा किया कि निर्यात की तीव्र वृद्धि से नए रोज़गार पैदा होंगे। यह अतिरिक्त आय उत्पन्न करेगा जो सभी को थोड़ा-थोड़ा लाभान्वित करेगा।
इस सिद्धांत के समर्थकों ने एक देश को अपनी ज़रूरतों का यथासंभव अधिक से अधिक उत्पादन करने की आवश्यकता के विरुद्ध तर्क दिया। उन्होंने दावा किया कि जहां तक लोगों की ज़रूरत की वस्तुओं का सवाल है, यदि देश में पर्याप्त मात्रा में उनका उत्पादन नहीं होगा तो उनका आयात किया जा सकता है। जब तक निर्यात और पर्यटन तेज़ गति से बढ़ते रहेंगे और जब तक श्रीलंका विदेशी बैंकों से ऋण प्राप्त कर सकता है, तब तक जो कुछ भी आवश्यक है उसका आयात करने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा उपलब्ध रहेगी।
संक्षेप में, श्रीलंका विदेशी बाज़ारों, विदेशी पर्यटकों, विदेशी व्यापार और विदेशी पूंजी पर निर्भर रहने के सिद्धांत पर आधारित विकास के मार्ग पर चल रहा है। यह आत्मनिर्भरता के सिद्धांत के विपरीत है। तथ्य यह है कि श्रीलंका को आई.एम.एफ. से 16 बार संपर्क करना पड़ा, यह विकास के इस मार्ग में शामिल उच्च जोखिम को दर्शाता है।
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी की प्रमुख एजेंसियों में से आई.एम.एफ. एक है, जो अमरीका की अगुवाई वाली प्रमुख साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा समर्थित है। विश्व के अधिकांश पूंजीवादी राज्य इसके सदस्य हैं। विदेशी मुद्रा की कमी का सामना कर रहे किसी भी सदस्य राज्य के लिए इस केंद्रीय बैंक की औपचारिक भूमिका, एक अंतिम उपाय के क़र्ज़दाता की तरह है।
जब अमरीकी साम्राज्यवादी आर्थिक संकट और राजनीतिक अस्थिरता के लिए किसी विशेष देश को लक्षित करने का निर्णय लेते हैं, तो वित्तीय पूंजी के विभिन्न संस्थान हरक़त में आ जाते हैं। क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां उस देश को निशाना बनाती हैं, उसे डाउनग्रेड करती हैं और इजारेदार बैंकिंग कंपनियां अपने क़र्ज़ाें पर ब्याज दर में वृद्धि करती हैं। निजी लाभ चाहने वाले संस्थान और साम्राज्यवादी राज्य, मिलकर काम करते हैं, वे लक्षित देश की सरकार को क़र्ज़ के जाल में और विदेशी मुद्रा के संकट में फंसा लेते हैं। फिर उस सरकार को सलाह दी जाती है कि क़र्ज़ से उबरने के लिए वह आई.एम.एफ. से संपर्क करे। उदारीकरण और निजीकरण के साम्राज्यवादी नुस्ख़ों को आगे बढ़ाने के लिए आई.एम.एफ. स्थिति का फ़ायदा उठाता है। इन्होंने श्रीलंका को निर्यात आधारित विकास के रास्ते पर आगे धकेल दिया है।
अधिक तात्कालिक कारण या घटना के रूप में, हमें विदेशी मुद्रा की प्राप्तियों में हुई भारी गिरावट के कारण की जांच करनी होगी, जो 2019 में शुरू हुई थी और जो श्रीलंका के भाग्य में महत्वपूर्ण मोड़ बन गई। इसकी शुरुआत कोरोना वायरस के फैलने से बहुत पहले हुई थी। पर्यटन से होने वाली प्राप्तियों की प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि अप्रैल 2019 को ईस्टर रविवार को हुआ बम विस्फोट महत्वपूर्ण मोड़ था (चार्ट-सी)।
ईस्टर रविवार को हुये बम विस्फोटों ने विश्वभर में प्रसिद्ध श्रीलंका के पर्यटन उद्योग को बहुत नुक़सान पहुंचाया। इसने कई वस्तुओं के निर्यात को भी प्रभावित किया। आतंकवादी हमले से पैदा हुई अनिश्चितता के कारण विदेशी ख़रीदारों ने श्रीलंका के सामग्री भेजनेवाले सप्लायरों को ऑर्डर देने बंद कर दिये। अप्रैल 2019 के बाद पर्यटन और निर्यात प्राप्तियों में हुई गिरावट, भुगतान संतुलन के संकट में बदल गई। कोविड ने 2020 के बाद से समस्याओं को और बढ़ा दिया।
2019 में ईस्टर रविवार को हुये बम विस्फोट
21 अप्रैल, 2019 को ईस्टर रविवार के दिन श्रीलंका में तीन चुर्चों और वाणिज्यिक राजधानी कोलंबो में तीन लक्जरी होटलों को आत्मघाती बम विस्फोटों की एक श्रृंखला में लक्षित किया गया था। इसके बाद उसी दिन, एक आवासीय परिसर और एक गेस्ट हाउस में छोटे-छोटे विस्फोट हुए। विकिपीडिया के अनुसार, इन हमलों में कुल 269 लोग मारे गए थे, जिनमें से कम से कम 45 विदेशी नागरिक, तीन पुलिस के अधिकारी और बम विस्फोट को अंजाम देने वाले आठ व्यक्ति शामिल थे। इस घटना में कम से कम 500 लोग घायल हुए।
पश्चिम के साम्राज्यवादी प्रचार के साथ-साथ, श्रीलंका की सरकार के प्रचार ने बम विस्फोटों के लिए “इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड द सेवेंट” (आई.एस.आई.एस.) को ज़िम्मेदार ठहराया। हमले के ठीक दो दिन बाद 23 अप्रैल को, रक्षा मंत्री विजेवर्धने ने संसद में कहा कि सरकार को अनुमान है कि यह हमला न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में मस्जिदों में हुई गोलीबारी का प्रतिशोध था। न्यूजीलैंड की सरकार ने इस सिद्धांत का विरोध किया।
श्रीलंका में मुस्लिम-ईसाई मतभेद का कोई इतिहास नहीं है। ईस्टर के दिन हुये आतंकवादी हमले के साथ या उसके बाद ईसाई विरोधी प्रचार का प्रसार नहीं हुआ।
श्रीलंका के आपराधिक जांच विभाग (सी.आई.डी.) के वरिष्ठ अधिकारी ने जुलाई 2019 में एक विशेष संसदीय चयन समिति के सामने गवाही देते हुए कहा कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि बम विस्फोटों के पीछे इस्लामिक स्टेट (आई.एस.) का हाथ था। बताया जाता है कि उसने कहा था कि हमलों के पीछे आतंकवादी समूह ने आई.एस. के नेता से इंडोनेशिया में एक तीसरे पक्ष के माध्यम से इस मामले पर एक बयान जारी करने का अनुरोध किया था। उनके बयानों से संकेत मिलता है कि असली मास्टरमाइंड की पहचान छिपी हुई है, जबकि आई.एस. को बलि का बकरा बनाया गया है।
गंभीरता से किया गया विश्लेषण, भू-राजनीतिक कारणों से की गई एक साज़िश की ओर इशारा करता है।
वह कौन सी शक्ति है जो श्रीलंका के पर्यटन को बर्बाद करने और वर्तमान शासन को अस्थिर करने में एक राजनीतिक लाभ समझेगी? संदेह की सुई अमरीका की ओर इशारा करती है।
अमरीकी साम्राज्यवाद श्रीलंका के शासक वर्ग को चीन के साथ घनिष्ठ संबंध विकसित करने के ख़िलाफ़ चेतावनी देता रहा है। इन चेतावनियों के बावजूद, राजपक्षे शासन ने 2021 में सहायता के लिए चीन की ओर रुख़ किया। अमरीकी साम्राज्यवादियों ने इसे बर्दाश्त नहीं किया। यह ध्यान देने योग्य है कि बाइडन प्रशासन ने दिसंबर 2021 में आयोजित लोकतंत्र शिखर सम्मेलन के लिए आमंत्रितों की सूची से श्रीलंका को स्पष्ट रूप से बाहर कर दिया। जबकि हिन्दोस्तान और पाकिस्तान को आमंत्रित किया गया था, लेकिन श्रीलंका को नहीं।
यह संभव है कि श्रीलंका को घुटनों पर लाने के लिए, भीख के कटोरे के साथ आई.एम.एफ. में वापस लाने के लिए और अमरीकी साम्राज्यवादियों के हितों के अनुरूप शासन परिवर्तन की स्थितियां बनाने के लिए आतंकवादी हमले का आयोजन किया गया था। इससे पहले, श्रीलंका दशकों से चले आ रहे नागरिक संघर्ष और राज्य द्वारा किये जा रहे तमिल लोगों के क्रूर दमन से गुजरा था। इसने लोगों की एकता को कमज़ोर कर दिया था और श्रीलंका को विदेशी साम्राज्यवादी हस्तक्षेपों के प्रति और भी अधिक संवेदनशील बना दिया था।
निष्कर्ष
श्रीलंका के लोग साम्राज्यवाद द्वारा निर्धारित किये गये आर्थिक विकास के रास्ते का शिकार हैं। यह एक ऐसा रास्ता है, जिसने देश को विदेशी बाज़ारों, विदेशी पर्यटकों और विदेशी पूंजी पर लगातार बढ़ती आर्थिक और वित्तीय निर्भरता में धकेल दिया है। अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने, राजनीतिक प्रतिष्ठानों को अस्थिर करने और श्रीलंका में अमरीकी साम्राज्यवाद की स्थिति को मजबूत करने वाले शासन परिवर्तन को लाने के लिए अमरीका द्वारा सबसे अधिक संभावना वाला एक शैतानी साम्राज्यवादी साज़िश का वे शिकार भी हैं।