पूंजीवादी लालच बनाम सामाजिक आवश्यकता

सभी मज़दूर, राष्ट्रीय संपत्ति और सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण का विरोध कर रहे हैं क्योंकि यह समाज के सामूहिक हितों के खि़लाफ़ है। निजीकरण का यह कार्यक्रम लोगों की सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करने के बजाय, इजारेदार पूंजीपतियों के अधिकतम मुनाफ़े बनाने के सभी उपायों को सुनिश्चित करने के लिए, उनके संकीर्ण हितों की सेवा करता है।

सार्वजनिक संपत्तियों और सेवाओं के निजीकरण के खि़लाफ़, हमारे देश में एक बड़ा संघर्ष चल रहा है। अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों और ट्रेड यूनियनों से जुड़े मज़दूर अपने सभी मतभेदों से ऊपर उठकर, निजीकरण के खि़लाफ़ संघर्ष में एकजुट हो रहे हैं।

सरकार और बड़ी पूंजीवादी कंपनियों के प्रवक्ता यह दावा करते हैं कि सार्वजनिक उद्यम निक्कमे हैं और वे जनता के धन को बर्बाद कर रहे हैं। उनका दावा है कि उन्हें निजी मालिकी वाली कंपनियों को सौंपने से इन कंपनियों की कुशलता में सुधार होगा और इस प्रकार देश की पूरी आबादी को इसका फ़ायदा मिलेगा। वे इस बात पर भी ज़ोर दे रहे हैं कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में करोड़ों लोगों के दैनिक जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं सहित किसी भी वस्तु का उत्पादन और आपूर्ति करना सरकार का काम नहीं है।

निजीकरण के पक्ष में किये जा रहे इस धूर्ततापूर्ण प्रचार को मज़दूर वर्ग जबरदस्त चुनौती दे रहा है।

भारतीय रेल, कोल इंडिया, राज्य बिजली बोर्ड, पेट्रोलियम और अन्य भारी उद्योगों, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और बीमा कंपनियों, आयुध कारखानों, अस्पतालों और अन्य सार्वजनिक सेवाओं के मज़दूर, इस हक़ीक़त को उजागर करने के लिए लड़ रहे हैं कि उनकी मेहनत, समाज की एक महत्वपूर्ण ज़रूरत को पूरा कर रही है। वे अनेक विश्वासपूर्ण तर्कों की मदद से यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि ये सब ऐसी सेवाएं नहीं हैं जिन्हें निजी मालिकों के लिए अधिकतम मुनाफ़े कमाने के इरादों से चलाया जाये।

जैसा कि रेल मज़दूरों ने बताने की कोशिश की है कि यदि रेल यात्रा सुविधा, ज्यादा से ज्यादा पूंजीवादी मुनाफ़े बनाने के लिए चलायी जायेगी तो इसका नतीजा यात्रियों की सुरक्षा की उपेक्षा होगी। इससे यात्री किराए में भी वृद्धि होगी और दूर-दराज के क्षेत्रों तक रेल यात्रा की सुविधा पहुंचाने के लक्ष्य की उपेक्षा होगी। रेल मज़दूरों के काम करने की हालतों और उनकी नौकरी की सुरक्षा पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। हम अपने अनुभव के आधार पर इस हक़ीक़त को दावे से पेश कर सकते हैं कि निजी इजारेदार कंपनियां नियमित मज़दूरों की छंटनी करेंगी और ठेका मज़दूरों के बढ़ते इस्तेमाल का सहारा लेंगी। इस समय भारतीय रेल नौकरी देने वाला देश का सबसे बड़ा स्रोत है, इसलिये इस क्षेत्र के निजीकरण का देश में रोज़गार की संख्या और गुणवत्ता दोनों पर एक बड़ा नकारात्मक असर पड़ेगा।

सरकारी बैंकों और बीमा कंपनियों में काम करने वाले कह रहे हैं कि उनके द्वारा दी जाने वाली वित्तीय सेवाएं, सभी के लिए सुलभ और सस्ती होनी चाहिएं। इनका काम होना चाहिये मेहनतकश लोगों की ज़रूरतों को पूरा करना। इन्हें अधिकतम मुनाफ़े के लिए इजारेदार पूंजीपतियों के हितों की सेवा की दिशा में उनके लिये ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़े बनाने वाले उद्यमों में बदलने में नहीं किया जाना चाहिए।

लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल करने वाले कर्मचारी यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि निजी अस्पताल और नर्सिंग होम अपने मुनाफ़े को बढ़ाने के लिए डॉक्टरों पर दबाव डालते हैं कि वे मरीजों को अनावश्यक जांच और परीक्षण करवाने की सलाह दें। निजी अस्पताल और नर्सिंग होम अधिक पैसा कमाने के लिए रोगियों को आवश्यकता से अधिक समय तक अस्पताल में भर्ती रखते हैं। कोरोना वायरस जैसे संकट का सामना करने में, ये निजी अस्पताल और नर्सिंग होम समाज के लिए उस तरह का योगदान नहीं देते, जिस तरह से हमारे देश के सरकारी अस्पताल करते आये हैं। स्वास्थ्य देखभाल एक सामाजिक आवश्यकता है, जबकि ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़े बनाने के मक़सद से चलाये जा रहे निजी अस्पताल और नर्सिंग होम इन सभी सेवाओं को ग़रीब लोगों की पहुंच से बाहर कर देते हैं – जिनके पास इन निजी अस्पतालों का खर्च चुकाने के लिए पैसे नहीं हैं।

सरकारी प्रवक्ताओं का आरोप है कि मज़दूरों को सिर्फ अपनी नौकरियों की चिंता है, देश के हितों की चिन्ता नहीं है। ये सरकारी प्रवक्ता इस सफेद झूठ को सच साबित करने की नाकाम कोशिश कर रहे हैं। मज़दूर इस तरह की संकीर्ण सोच नहीं रखते हैं। हक़ीक़त तो यह है कि ये सरकारें ही अरबपति पूंजीपतियों के संकीर्ण हितों में काम करती हैं और करती आई हैं। सरकार, सामाजिक उत्पादन के सभी क्षेत्रों को इजारेदार पूंजीपतियों के अधिकतम मुनाफ़ों को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से निजीकरण के कार्यक्रम को लागू कर रही है।

मूल अंतर्विरोध

वस्तुओं और सेवाओं के सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया का काम, समाज की ज़रूरतों और उसके विस्तारित प्रजनन को पूरा करना होना चाहिए। इस प्रक्रिया के ज़रिये, सभी के लिए सुरक्षित आजीविका और अधिकतम संभव समृद्धि सुनिश्चित की जानी चाहिए। यही आज के समय और इस युग का व्यापक रूप से स्वीकृत सिद्धांत है। जाहिर है कि अधिकतम मुनाफ़े बनाने के लिए पूंजीपतियों की लालच को पूरा करने का एजेंडा ही, सामाजिक आवश्यकताओं की निर्बाध आपूर्ति के प्रयासों में एक बहुत बड़ा रोड़ा है।
170 साल से भी अधिक पहले, कार्ल मार्क्स ने शोध करके यह खोजा था कि पूंजीवादी देशों में समय-समय पर होने वाले आर्थिक संकटों में फंसने का मूलभूत कारण, उत्पादन के सामाजिक चरित्र और उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के निजी चरित्र के बीच का अंतर्विरोध है। दूसरे शब्दों में, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में, अति उत्पादन की समस्या और इस तरह के संकट के बार-बार आने का मूल कारण है, सामाजीकृत उत्पादन प्रक्रिया पर अधिक से अधिक मुनाफ़े बनाने की पूंजीवादी लालच का हावी होना।

निजी मुनाफ़े बनाने के उद्देश्य से संचालित, प्रत्येक कंपनी अपने कर्मचारियों को दी गई मज़दूरी को “लागत” के रूप में देखती है, जिसे यथासंभव कम रखा जाता है। पूंजीपति नियोक्ताओं द्वारा “श्रम लागत” को कम से कम करने की कोशिश का संयुक्त प्रभाव मज़दूर वर्ग की क्रय शक्ति में गिरावट है। पूंजीवादी व्यवस्था में एक तरफ बाज़ार के लिये अधिक से अधिक वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है और दूसरी तरफ उन वस्तुओं के संभावित ख़रीदारों की क्रय शक्ति में उतनी बढ़ोतरी नहीं होती। यह इस व्यवस्था का मूलभूत चरित्र है। पूंजीवाद में अंतर्निहित यह प्रवृत्ति बार-बार अति उत्पादन के संकट की ओर ले जाती है, जब लोगों के पास पर्याप्त क्रय शक्ति न होने के कारण, पूंजीपति अपनी वस्तुओं को बेचने में असमर्थ हो जाते हैं और बाज़ार में उन वस्तुओं की मांग घट जाती है। इस पर गौर करने की ज़रूरत है कि इन वस्तुओं की मांग में कमी इसलिए होती है क्योंकि उपभोक्ताओं के पास उन वस्तुओं को ख़रीदने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं होता – वे सब वस्तुयें उनकी पहुंच के बाहर हो जाती हैं।

हिन्दोस्तान की अर्थव्यवस्था का उदाहरण हमारे सामने है, जो कोरोना वायरस की महामारी आने से पहले ही संकट में थी। 2019 में ही, अर्थव्यवस्था की विभिन्न शाखाओं में उत्पादन धीमा हो रहा था या घट रहा था। बाज़ार में उन वस्तुओं और सेवाओं की पर्याप्त मांग नहीं है जिन्हें बेचकर पूंजीवादी कंपनियां मुनाफ़ा बना सकें। इसका कारण यह है कि मज़दूरों और किसानों, जो कि आबादी का बहुसंख्य हिस्सा हैं, उनकी क्रय शक्ति का नुकसान हुआ है। लालची इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा मज़दूरों और किसानों का शोषण और लूट इस हद तक पहुंच गई है कि यह पूंजीवादी के और विकास के लिए एक बाधा बन गई है।

पूंजीवादी व्यवस्था के इस मूलभूत अंतर्विरोध को कैसे सुलझाया जा सकता है, इस प्रश्न का हल दुनिया के पहले समाजवादी देश सोवियत संघ में प्रस्तुत किया गया था। 1917 की अक्तूबर क्रांति की जीत के बाद के पहले दो दशकों में, सोवियत सरकार और आम लोगों ने उत्पादन के साधनों को लोगों की सामूहिक संपत्ति और किसान सहकारी समितियों की सामूहिक संपत्ति में बदल दिया था। सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में से अर्थव्यवस्था का दिशा-निर्देश करने वाली पूंजीवादी लालच के हावी होने की भूमिका को समाप्त कर दिया गया।

सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति के प्रमुख उद्देश्य के साथ, सोवियत लोगों और सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि सभी उपलब्ध संसाधनों का निवेश अधिक पौष्टिक भोजन, कपड़े, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और पूरी आबादी की अन्य बुनियादी ज़रूरतों के उत्पादन में किया जाए। खपत के साधनों की बढ़ी हुई मात्रा के उत्पादन के लिए आवश्यक मशीनरी, लोहा और इस्पात, सीमेंट, ऊर्जा और अन्य उत्पादन के साधनों को पर्याप्त मात्र में तैयार किया जाये। इस तरह सोवियत संघ में सामाजिक उत्पादन, एक समग्र योजना के अनुसार आयोजित किया गया था न कि चंद पूंजीपतियों के अधिकतम मुनाफ़ों को बनाने के लिए।

अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशों की पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाएं, 1929 से शुरू हुये एक विशाल संकट से (जिसको ग्रेट डिप्रेशन के नाम से जान जाता है) गुजरीं, जबकि सोवियत संघ की समाजवादी अर्थव्यवस्था ने निरंतर विकास किया। दो विश्व युद्धों के बीच की अवधि में सोवियत संघ बिना किसी संकट के और बिना किसी बेरोज़गारी की समस्या के विकसित हुआ और देश ने लगातार प्रगति की।

जब सभी उपलब्ध संसाधनों का समाज के सभी सदस्यों की ज़रूरतों को पूरा करने के उद्देश्य साथ एक योजनाबद्ध तरीक़े से निवेश किया जाता है, तो इस तरह के निवेश और उत्पादन में विस्तार से बहुत बड़े पैमाने पर नए रोज़गार पैदा होते हैं। हिन्दोस्तान और अन्य पूंजीवादी देशों में ऐसा क्यों नहीं हो रहा है, इसका कारण है मुनाफ़े की भूखी इजारेदार पूंजीवादी कंपनियों द्वारा बड़े पैमाने पर उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व और नियंत्रण। इजारेदार पूंजीपति अपनी पूंजी का तभी निवेश करते हैं जब उनके लिये अधिकतम मुनाफ़ा हासिल करने के हालात सुनिश्चित हों।

पिछले कई वर्षों से हिन्दोस्तानी इजारेदार घराने, भारी मुनाफ़ा कमा रहे हैं लेकिन वे देश के भीतर, उत्पादक क्षमता का विस्तार करने के लिए बहुत कम निवेश कर रहे हैं। वे अपने अधिकांश मुनाफ़े का उपयोग या तो विदेश में निवेश करने के लिए कर रहे हैं या देश के भीतर सट्टेबाजी की गतिविधियों में निवेश कर रहे हैं।

पूंजीवादी लालच ही अर्थव्यवस्था में बेरोज़गारी और बार-बार आने वाले संकटों का मूल कारण है। पूंजीवादी लालच के संचालन के क्षेत्र का और भी विस्तार करने का, निजीकरण और उदारीकरण का एजेंडा और भी अधिक गंभीर संकटों और बेरोज़गारी के असहनीय स्तरों तक पंहुचाने का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।

इजारेदार पूंजीपतियों के सुधार का एजेंडा

निजीकरण और उदारीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण का एजेंडा, हिन्दोस्तानी और विदेशी इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा निर्धारित किया गया है। इसका उद्देश्य, इन इजारेदार पूंजीपतियों की ज़रूरतों के अनुरूप हिन्दोस्तान में पूंजीवादी विकास के रास्ते को बदलना है।
1947 में हिन्दोस्तान की राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद, पूंजीवादी विकास का जो मार्ग अपनाया गया, वह भी उस समय के सबसे बड़े पूंजीवादी घरानों द्वारा ही निर्धारित किया गया था। हालांकि, जो नीतियां, क़ानून और नियम बनाए गए थे, वे उस समय की परिस्थितियों के अनुकूल पूंजीवादी व्यवस्था के विकास के लिए ज़रूरी थे, जो वर्तमान परिस्थितियों से बहुत अलग थे।

1940 के दशक के मध्य में समाजवाद के लिए विश्व स्तर पर क्रांतिकारी संघर्ष आगे बढ़ रहा था। यूरोप के प्रमुख पूंजीवादी देशों में शासक पूंजीपति वर्ग सोशल डेमोक्रेसी नामक शासन की एक भ्रामक पद्धति का सहारा ले रहा था। मज़दूर वर्ग को क्रांति और समाजवाद के रास्ते पर जाने से रोकने के लिए, पूंजीपति वर्ग ने सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों के विस्तार के लिए सार्वजनिक धन का इस्तेमाल किया। उनका उद्देश्य था – मज़दूर वर्ग को यह विश्वास दिलाना कि क्रांति के द्वारा हासिल की गयी समाजवादी अर्थव्यवस्था में जो सुविधाएं लोगों को मिलती हैं वे सब पूंजीवादी ढांचे के भीतर भी बिना किसी क्रांति के हासिल की जा सकती हैं।

हिन्दोस्तान की राजनीतिक स्वतंत्रता की संभावना जैसे-जैसे नजदीक आती गई, टाटा, बिरला और अन्य हिन्दोस्तानी पूंजीवादी घरानों ने उपनिवेशवाद के बाद के विकास की योजना बनानी शुरू की, जो उस समय उनके हितों के लिए सबसे उपयुक्त थी। वे उस समय हिन्दोस्तान को एशिया में एक शक्तिशाली औद्योगिक और सैन्य शक्ति के रूप में स्थापित करने और उसका नेतृत्व करने का सपना देख रहे थे। हालांकि, उस समय उनके पास मशीन निर्माण उद्योग या पर्याप्त स्टील और बिजली नहीं थी। उनकी अपनी पूंजी उन बड़े निवेशों का वित्तपोषण करने के लिए पर्याप्त नहीं थी, जिसकी उन्हें बहुत आवश्यकता थी।

तब बड़े पूंजीपतियों ने फ़ैसला किया कि सार्वजनिक धन का उपयोग भारी उद्योग और बुनियादी ढांचे के सार्वजनिक क्षेत्र को बनाने के लिए किया जाना चाहिए। उन्होंने विभिन्न प्रकार की उपभोक्ता वस्तुओं के आयात को प्रतिबंधित करने का निर्णय लिया, ताकि वे स्वयं उन बाज़ारों पर हावी हो सकें और अधिकतम मुनाफ़ा हासिल कर सकें। इस प्रकार की अर्थव्यवस्था के पूरे ढांचे का विस्तृत वर्णन 1944-45 में प्रकाशित किये गये बाम्बे प्लान नामक एक विजन-डॉक्यूमेंट में था, जिसे जे.आर.डी. टाटा और जी.डी. बिड़ला के नेतृत्व में बड़े पूंजीपतियों के प्रमुख प्रतिनिधियों ने तैयार किया था।

1951-65 की अवधि के दौरान देश की पहली तीन पंचवर्षीय योजनाएं बाम्बे प्लान पर आधारित थीं। उस समय की सामाजिक-लोकतांत्रिक शैली में पूंजीवादी उद्योग को विकसित करने के लिए, राज्य पर निर्भर रहने की रणनीति को नेहरू की अध्यक्षता वाली कांग्रेस पार्टी ने “समाजवादी नमूने का समाज” बनाने के एक एजेंडे के रूप में पेश किया था। पूंजीवादी विकास की योजना को एक समाजवादी एजेंडे के रूप में पेश करके उन सभी मज़दूरों और किसानों को गुमराह किया गया, जिनके दिल में देश में समाजवाद स्थापित करने की तमन्ना थी।

बड़े पूंजीवादी घरानों की निजी कंपनियों को सार्वजनिक क्षेत्र से बहुत लाभ हुआ – उन्हें रियायती क़ीमतों पर इस्पात, कोयला, बिजली और रेल परिवहन की आपूर्ति और उनकी आवश्यकताओं के अनुसार ज़रूरी बुनियादी ढांचे की गारंटी मिली। उन्हें उपभोग और परिवहन के साधनों के आयात पर सरकार द्वारा लगाये गए प्रतिबंधों से लाभ हुआ। उदाहरण के लिए कारों, बसों और ट्रकों के बाज़ार में टाटा मोटर्स और बिड़ला की हिन्दुस्तान मोटर्स का दबदबा था। उनके फ़ायदे के लिए ही, आयातित वाहनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था या आयातित वाहनों पर बहुत अधिक आयात शुल्क वसूल करने का प्रावधान किया गया था।

1960 और 1970 के दशक के दौरान, पूंजीवादी विकास के एजेंडे को और आगे ले जाने के लिए राज्य द्वारा अर्थव्यवस्था में आवश्यक हस्तक्षेप को और भी विकसित किया गया, जिसमें हरित क्रांति के झंडे तले पूंजीवादी खेती और ग्रामीण बाज़ारों के विस्तार को बढ़ावा देने जैसे उपाय शामिल थे।

1980 का दशक एक ऐसा दशक था, जब ब्रिटेन में सार्वजनिक संपत्ति और सेवाओं के निजीकरण के लिए बड़े पैमाने पर एक अभियान शुरू किया गया था, जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री थैचर ने किया था। राष्ट्रपति रीगन के नेतृत्व में अमरीकी राज्य ने राष्ट्रीय प्रतिबंधों को कम करने और दुनिया के सभी बाज़ारों को पूंजी और वस्तुओं के लिए सभी रुकावटों से मुक्त बाज़ार खोलने के लिए ज़रूरी क़दमों को लागू करने के लिए आक्रामक रूप से ज़ोर देना शुरू कर दिया। गोर्बाचोव ने सोवियत संघ में पूंजीवादी सुधारों की शुरुआत की। आयात और विदेशी पूंजी निवेश के लिए घरेलू बाज़ार खोलने के लिए हिन्दोस्तान भी विश्व बैंक और आई.एम.एफ. के बढ़ते दबाव में आ गया।

सोवियत संघ के विघटन के साथ-साथ विश्व स्तर पर होने वाले बड़े और अचानक परिवर्तनों के साथ 1990 के दशक की शुरुआत हुई। विश्व क्रांति का प्रवाह ज्वार से भाटे (उतार) में बदल गया। सभी देशों के पूंजीपतियों ने यह दावा करना शुरू कर दिया कि समाजवाद फेल हो गया है और “बाज़ार उन्मुख अर्थव्यवस्था” से बेहतर कुछ भी नहीं है। जिसका मतलब है कि एक ऐसी अर्थव्यवस्था की स्थापना करना जो पूंजीपतियों के निजी मुनाफ़े को अधिकतम करने के लिए वचनबद्ध हो और जिसका उद्देश्य हो देशी और विदेशी पूंजीपतियों के मुनाफ़ों को बढ़ाने के लिए सभी उपाय उपलब्ध कराना। उन्होंने ज़ोर देकर यह भी कहना शुरू कर दिया कि जो पूंजीपतियों के लिए सबसे अच्छा है वही पूरे देश की प्रगति के लिए भी सबसे अच्छा है।

1991 से शुरू करके, इजारेदार घरानों के नेतृत्व में हिन्दोस्तानी शासक वर्ग ने समाजवादी नमूने के समाज के निर्माण के ढोंग का खुलेआम त्याग करना शुरू कर दिया। उन्होंने निजीकरण और उदारीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण के नुस्ख़े को पूरी तरह से अपना लिया।

सार्वजनिक क्षेत्र का इस्तेमाल करके निजी पूंजी पर आधारित अपने औद्योगिक साम्राज्य का निर्माण कर लेने के बाद हिन्दोस्तानी इजारेदार घरानों ने फ़ैसला किया कि समय आ गया है कि वे अपने निजी औद्योगिक साम्राज्यों का और विस्तार करें, जिसके लिए सार्वजनिक संपत्ति को भी कौड़ियों के दाम हड़प लें। विदेशी प्रतिस्पर्धा को सीमित करके अपने औद्योगिक आधार का निर्माण कर लेने के बाद, उन्होंने यह भी फ़ैसला किया कि विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनने के लिए अर्थव्यवस्था पर से सभी प्रतिबंधों को हटाने का समय आ गया है। वे चाहते थे कि हिन्दोस्तान की सरकार आयात और विदेशी पूंजी निवेश के लिए घरेलू बाज़ार को खोले और विदेशी सरकारें हिन्दोस्तान से निर्यात करने और पूंजी निवेश के लिए अपने बाज़ार खोलें।
संक्षेप में, हिन्दोस्तान में ब्रिटिश उपनिवेशवादी व्यवस्था ख़त्म होने बाद से, हिन्दोस्तान की सरकार की सभी नीतियों, क़ानूनों और विनियमों की प्रमुख प्रेरणा और उद्देश्य, देश के सबसे अमीर इजारेदार पूंजीवादी घरानों के निजी मुनाफ़ों को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाना ही रहा है।

प्रारंभिक दशकों में राज्य के स्वामित्व वाले भारी उद्योग, राज्य के स्वामित्व वाले बैंकों और बीमा कंपनियों के निर्माण और विस्तार की नीति ने देश में औद्योगीकरण के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण करने, पूंजीवाद के लिए घरेलू बाज़ार का विस्तार करने और इजारेदार पूंजीपतियों के लिए अधिकतम लाभ की गारंटी देने का काम किया। वर्तमान में निजीकरण और उदारीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण के एजेंडे के द्वारा, आज के हालातों में इजारेदार पूंजीपतियों के लिए अधिकतम एकाधिकार मुनाफ़े सुनिश्चित करने के प्रयास जारी है।

निजीकरण और उदारीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण का एजेंडा है क्रांति और समाजवाद की लहर में उतार की हालतों का फ़ायदा उठाना तथा सर्वहारा वर्ग और सभी मेहनतकश लोगों के खि़लाफ़ बेलगाम हमले करना। इसका उद्देश्य इजारेदार कंपनियों और वित्तीय संस्थानों द्वारा मज़दूरों के शोषण को और भी तेज़ करना, छोटे उत्पादकों और लोगों की लूट को बड़े पैमाने पर बढ़ाना है। इसका उद्देश्य उन सभी अधिकारों को कुचलना है जिन अधिकारों को लोगों ने 20वीं शताब्दी में अपने लगातार संघर्ष के ज़रिये जीता है।

असली विकल्प

पूरी अर्थव्यवस्था को एक नई दिशा देने का क्रांतिकारी कार्यक्रम ही वर्तमान निजीकरण और उदारीकरण का एकमात्र असली विकल्प है। यह क्रांतिकारी कार्यक्रम, निजी मुनाफ़ों को अधिकतम करने और पूंजीवादी लालच को पूरा करने के उद्देश्य को बदलकर, एक नयी दिशा प्रदान करने का कार्यक्रम है – जिसका उद्देश्य, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति को अधिकतम करना होगा – हर संभव प्रयत्न लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए किया जाएगा।

हिन्दोस्तान की आज़ादी के प्रारंभिक दशकों में विकास के जिस रास्ते को अपनाया गया, उसका मक़सद सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना नहीं था। अधिकतम निजी मुनाफ़े बनाना ही उसका भावी मक़सद था। सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण और विस्तार तभी तक किया गया जब तक कि वह इजारेदार पूंजीवादी घरानों के हितों के अनुकूल था। हाल के दशकों में सार्वजनिक उद्यमों और सेवाओं को जानबूझकर कमजोर और बर्बाद किया जा रहा है। यह राज्य के स्वामित्व वाले इन उद्यमों और सेवाओं को इजारेदार घरानों को सौंपने के इरादों को सही ठहराने के लिए किया जा रहा है, ताकि पूंजीपतियों के निजी साम्राज्यों का तेज़ी से विस्तार हो सके।

मज़दूर वर्ग का लक्ष्य है सामाजिक उत्पादन पर हावी निजी लालच की भूमिका को समाप्त करना। वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन की पूरी व्यवस्था सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर उन्मुख होनी चाहिए। यह निष्कर्ष, विश्व स्तर पर बुर्जुआ वर्ग के खि़लाफ़ सर्वहारा वर्ग के संघर्ष के केंद्र में है। यह पूंजीवाद के खि़लाफ़ समाजवाद का संघर्ष है – दो विरोधी सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच का संघर्ष।

हमारे संघर्ष का तात्कालिक उद्देश्य, निजीकरण और उदारीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण के समाज-विरोधी एजेंडे को रोकना है। हालांकि, हमारा संघर्ष इस एजेंडे को रोकने तक ही सीमित नहीं है। हमें सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के उद्देश्य को सामाजिक उत्पादन व्यवस्था को संचालित करने वाली प्रमुख प्रेरणा बनाने के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा। सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए, पूंजीवादी लालच को दबाना होगा।

बड़े पैमाने पर उत्पादन के साधनों की मालिकी और नियंत्रण का सामाजीकरण, वर्तमान निजीकरण के कार्यक्रम का असली विकल्प है। मज़दूर वर्ग को किसानों और अन्य सभी उत्पीड़ित जनता के साथ मिलकर राजनीतिक सत्ता हासिल करने के संघर्ष को आगे बढ़ाना चाहिए। मज़दूरों और किसानों के नए राज्य को, बड़े पैमाने पर उत्पादन और विनिमय के साधनों को पूंजीपतियों की निजी संपत्ति के बजाय, पूरी जनता की सामाजिक संपत्ति में बदलना होगा। तभी सामाजिक उत्पादन और वितरण को एक योजनाबद्ध तरीक़े से आयोजित किया जा सकता है, जिसका उद्देश्य पूरी आबादी की बढ़ती भौतिक और सांस्कृतिक ज़रूरतों की अधिकतम संभव पूर्ति करना होगा। यह मज़दूर वर्ग के आंदोलन का रणनीतिक उद्देश्य है।

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