हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के महासचिव, कामरेड लाल सिंह के साथ
मज़दूर एकता लहर (म.ए.ल.) का साक्षात्कार
म.ए.ल.: पंजाब के कुछ किसान यूनियनों ने विधानसभा चुनावों में भाग लेने के लिए एक नई पार्टी बनाई है। दूसरे किसान यूनियनों ने इसका विरोध किया है और उन्होंने इन चुनावों में भाग न लेने का फैसला किया है। इन गतिविधियों के बारे में आपका क्या विचार है?
लाल सिंह: पंजाब में अलग-अलग किसान यूनियनें इन चुनावों में अलग-अलग रास्ते अपना रही हैं। यह किसान आंदोलन के हित में बिल्कुल नहीं है।
देशभर के 500 से अधिक किसान यूनियनों का एक मंच पर एकजुट हो जाना, यह कई सालों की लगातार कोशिशों के बाद हासिल हुआ है। पंजाब की किसान यूनियनों ने दिल्ली की सरहदों पर साल भर चले आंदोलन को अगुवाई दी थी। यह कहा जा सकता है कि पंजाब और हरियाणा के किसानों के जुझारू संघर्ष की वजह से हम सभी रुकावटों को पार करके, दिल्ली की सरहदों पर पहुंच पाए। अब पंजाब की किसान यूनियनों के बीच में इस बंटवारे से हमारे एकजुट संघर्ष को नुक्सान हुआ है।
हाल के वर्षों में, हमारे पूरे संघर्ष के दौरान हुक्मरान सरमायदार वर्ग इस लाइन को बढ़ावा देता रहा है कि सत्ता में बैठी पार्टी को चुनाव द्वारा बदलकर, हमारी समस्याओं का हल हो सकता है। लेकिन कृषि व्यापार के उदारीकरण के कार्यक्रम को केंद्र में आई हर पार्टी की सरकार ने, पहले कांग्रेस पार्टी और फिर भाजपा, सब ने उसी कार्यक्रम को चलाया है। राज्य सरकारों पर बैठी दूसरी पार्टियों ने भी उसी कार्यक्रम को चलाया है। यानी कृषि व्यापार के उदारीकरण का कार्यक्रम हुक्मरान सरमायदार वर्ग का कार्यक्रम है, जिसकी अगुवाई टाटा, अंबानी, बिरला, अडानी और दूसरे इजारेदार पूंजीपति कर रहे हैं।
हजारों-हजारों किसान नवंबर 2020 को “दिल्ली चलो” के आह्वान पर, दिल्ली की सरहदों पर पहुंचे थे। क्या वे दिल्ली की सरहदों पर इसलिए आए थे कि वे चुनाव के ज़रिए सत्ता पर बैठी पार्टी को बदलना चाहते थे? नहीं। वे दिल्ली की सरहदों पर इसलिए आए क्योंकि वे अपनी ज़मीन और रोज़ी-रोटी को इजारेदार पूंजीपतियों, यानी कारपोरेट घरानों, के चंगुल से बचाना चाहते थे।
दिल्ली की सरहदों पर आंदोलन के पूरे समय के दौरान, देश के हुक्मरान हमारी एकता को तोड़ने की कोशिश करते रहे। उन्होंने यह झूठा प्रचार किया कि हमारे आंदोलन के अंदर आतंकवादी घुस गए हैं। उन्होंने पिछले साल गणतंत्र दिवस पर एक बहुत ही घिनावनी साज़िश रची थी, ताकि किसान आंदोलन को बदनाम किया जा सके। मगर किसानों की एकता और मजबूत होती गयी। देश के कोने-कोने से और विदेशों से किसान आंदोलन के लिए समर्थन बढ़ता रहा। अब चुनाव में भाग लेने के सवाल पर हमें बांटकर हुक्मरान वर्ग ने हमारी एकता को तोड़ने में क़ामयाबी हासिल कर ली है।
केंद्र सरकार के साथ कई बार वार्ता हुई जिसके दौरान सरकार ने हमारी मांगों को मानने से इंकार कर दिया। इसके बाद हुक्मरानों ने मुद्दे को और लंबा खींचने का फ़ैसला किया। किसानों के प्रतिनिधियों के साथ और बैठक न करके उन्होंने पूरे साल तक हमें सरहदों पर बैठा कर रखा। नवंबर 2021 में उन्होंने तीनों किसान क़ानूनों को रद्द करने का अपना फ़ैसला सुनाया, जो कि पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों के ठीक 3 महीने पहले था। यह सोच-समझकर, ऐसे समय पर किया गया ताकि सभी आंदोलनकारी अपने गांवों को वापस चले जाएंगे और फिर आपस में होड़ लगाने वाली इन सरमायदार पार्टियों के चुनाव अभियानों में फंस जाएंगे।
चुनाव में क्या कार्यनीति अपनानी चाहिए, इस सवाल पर बंट जाना हमारी एक बहुत बड़ी भूल हुई है। हमें इस बंटवारे पर काबू पाने और अपनी मांगों को पूरा करवाने के लिए अपने एकजुट संघर्ष को आगे बढ़ाने का रास्ता निकालना होगा।
अगर हम सब, जो मज़दूरों और किसानों की हकूमत को स्थापित करने के रणनीतिक लक्ष्य को मानते हैं, स्वतंत्र और खुलेआम तरीक़े से सभी संभव रास्तों पर चर्चा करते हैं तो हम आगे की कार्यनीति के बारे में एक सांझा फ़ैसला ले सकते हैं। हमारी कार्यनीति वर्ग संघर्ष की वर्तमान स्थिति के मूल्यांकन पर आधारित होनी चाहिए और उससे हमारा रणनैतिक लक्ष्य पूरा होना चाहिए।
म.ए.ल.: वर्तमान समय में चल रहे वर्ग संघर्ष की हालत के बारे में आपका क्या मूल्यांकन है?
लाल सिंह: ये चुनाव ऐसे समय पर हो रहे हैं जब मज़दूर वर्ग, किसानों और दूसरे छोटे उत्पादकों के ख़िलाफ़ इजारेदार पूंजीपति वर्ग का हमला असहनीय होता जा रहा है। अपने गिरते हालातों के ख़िलाफ़, मेहनतकश लोगों में बहुत गुस्सा है।
ज्यादा से ज्यादा संख्या में लोग इन हालातों का विरोध करने के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं, हालांकि उनके ऊपर ‘सामाजिक दूरी’ बनाए रखने की पाबंदियां लगाई गई हैं। यह हालात न सिर्फ अपने देश में है, बल्कि अमरीका, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस और बहुत सारे अगुवा पूंजीवादी देशों में भी है।
हमारे देश में 2016 में नोटबंदी, उसके बाद 2017 में वस्तु और सेवा कर (जी.एस.टी.), इन दोनों की वजह से करोड़ों-करोड़ों नौकरियां ख़त्म हो गयीं और बहुत सारे छोटे उद्योग ख़त्म हो गये। इसकी वजह से हिन्दोस्तानी और विदेशी इजारेदार पूंजीपतियों के हाथों में बेशुमार धन इकट्ठा हो गया।
2020 से, बार-बार लॉक डाउन लगने के कारण, भारी संख्या में नौकरियां ख़त्म हो गई हैं और नौकरी-शुदा मज़दूरों का शोषण बहुत तेज़ हो गया है। उतने ही वेतन या उससे कम वेतन पर ज्यादा घंटों तक काम करना – यह एक के बाद दूसरे उद्योग में स्वाभाविक हो रहा है।
मज़दूर वर्ग की असुरक्षा बहुत बढ़ गई है। पूंजीवादी मालिक इस हालत का फ़ायदा उठाकर अपने कर्मचारियों से कम से कम वेतन पर ज्यादा से ज्यादा काम निचोड़ रहे हैं। घर से काम करने वाले मज़दूरों को हर रोज़ पहले से ज्यादा घंटे काम करना पड़ रहा है।
मज़दूरों के शोषण के तीव्र हो जाने से, मज़दूरों का गुस्सा बहुत बढ़ गया है। उदारीकरण कार्यक्रम के ख़िलाफ़ तथा मज़दूर-विरोधी श्रम संहिता (लेबर कोड) के ख़िलाफ़ एकता बढ़ रही है। बड़े-बड़े उद्योगों और सेवाओं में मज़दूरों की यूनियनें अपने पार्टीवादी संबंधों को एक तरफ छोड़कर, संघर्ष में एकजुट हो रही हैं।
उदारीकरण कार्यक्रम की वजह से किसानों में बड़े पैमाने पर तबाही फैल गई है और फैल रही है। कृषि को ज्यादा से ज्यादा हद तक विश्व बाज़ार के साथ जोड़ा जा रहा है। कृषि के लिए राज्य का समर्थन कम किया जा रहा है और कृषि की लागत की वस्तुओं तथा कृषि उत्पादों के बाज़ार पर इजारेदार पूंजीवादी कंपनियों का विस्तार हो रहा है। इसकी वजह से किसानों की शुद्ध आमदनी बहुत घट गई है। ख़रीदी के दाम लागत की क़ीमत से बहुत कम हो गए हैं, जिसकी वजह से करोड़ों-करोड़ों किसान भारी क़र्ज़े में डूबे हुए हैं। जो अपने क़र्जे़ नहीं चुका पा रहे हैं, उनके सामने अपनी ज़मीन खोने का ख़तरा है।
अपनी हालतों के इस तरह बिगड़ जाने की वजह से मज़दूरों, किसानों और दूसरे मध्यम श्रेणी के लोगों में बहुत गुस्सा और असंतोष है। विरोध-प्रदर्शन करने के लिए सड़कों पर उतरने वालों की बढ़ती संख्या से यह साफ दिख रहा है। यही वजह है कि आज मज़दूर यूनियनें और किसान यूनियनें सांझी मांगों पर एकजुट हो रही हैं।
फरवरी-मार्च 2022 के दौरान जो विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनका फ़ायदा उठाकर सरमायदार मज़दूरों, किसानों और दूसरे दबे-कुचले लोगों के विरोध को इन राज्यों में किसी संसदीय विकल्प के पीछे लामबंध करने की कोशिश कर रहा है।
इसी तरीक़े से सरमायदार अपनी हुकूमत को बरकरार रखते हैं। लोगों के ख़िलाफ़ हमले को एक पार्टी अगुवाई देती है जबकि दूसरी पार्टियां लोगों के गुस्से को उन दायरों के अंदर सीमित रखती हैं जो सरमायदार को मंजूर है।
म.ए.ल.: संसदीय विकल्प को विकसित करके सरमायदारों की हुकूमत को बरकरार रखने के इस तरीक़े के बारे में क्या आप और विस्तार में समझा सकते हैं?
लाल सिंह: हुक्मरान वर्ग अपने बीते अनुभव से अच्छी तरह जानता है कि जब भी वह मज़दूरों और किसानों की रोज़ी-रोटी और अधिकारों पर कोई बड़ा हमला करता है तो यह लाज़मी है कि जन-विरोध बहुत बढ़ जायेगा। तो पूंजीपति वर्ग अपनी भरोसेमंद पार्टियों में से किसी एक को दबे-कुचले लोगों के मसीहा के रूप में आगे लाता है, ताकि लोगों के विरोध को मौजूदा संसदीय व्यवस्था के दायरों के अंदर ही सीमित रखा जा सके।
जब मनमोहन सिंह की अगुवाई में कांग्रेस पार्टी की सरकार बहुत बदनाम हो गयी थी, तो सरमायदार ने भाजपा को एक ऐसी पार्टी के रूप में बढ़ावा देना शुरू किया, जो केंद्र में भ्रष्टाचार-हीन और मजबूत सरकार दिला सकती है। 2012 और 2013 में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के ज़रिये, भाजपा को केंद्र सरकार में तथा आम आदमी पार्टी को दिल्ली सरकार में लाया गया था।
बीते 8 वर्षों से सरमायदार ने भाजपा को देश की मेहनतकश बहुसंख्या के ख़िलाफ़ एक के बाद दूसरे भयानक हमले करने का दायित्व दे रखा है। इसके साथ-साथ, सरमायदार यह भी कोशिश कर रहे हैं कि भाजपा के भरोसेमंद विकल्प के रूप में किसी संसदीय विपक्ष को विकसित किया जाये।
हमें यह याद रखना चाहिए कि किस प्रकार 1970 के दशक में सरमायदार ने क्रांतिकारी संकट को टाला था।
26 जून, 1975 को इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी सरकार ने राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की थी। एक ही झटके में मज़दूरों, किसानों और अधिकतम लोगों के सभी लोकतांत्रिक अधिकार और नागरिक अधिकार छीन लिए गए थे।
वह ऐसा समय था जब जनता के विरोध संघर्ष चरम सीमा तक पहुंच गए थे। 1974 में लाखों-लाखों रेल मज़दूर अनिश्चितकालीन हड़ताल पर थे, जिसकी वजह से पूरी अर्थव्यवस्था ठप्प हो गई थी। देशभर में छात्र बड़ी से बड़ी संख्या में निकल कर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। लोग क्रांति के लिए तरस रहे थे।
आपातकाल की घोषणा के पीछे मुख्य उद्देश्य था क्रांति के ख़तरे को दूर करना। राष्ट्रीय एकता की सुरक्षा के नाम पर, मज़दूरों, किसानों, सभी क्रांतिकारियों और सरकार की आलोचना करने वाले सभी लोगों पर वहशी दमन की मुहीम चलायी गयी।
ट्रेड यूनियनों के नेताओं और कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को बड़ी संख्या में गिरफ़्तार किया गया। इसके अलावा, इंदिरा गांधी की सरकार ने संसदीय विपक्ष के कई जाने-माने नेताओं को भी गिरफ़्तार किया। इनमें शामिल थे जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेई, चरण सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडिस, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव। इन नेताओं को गिरफ़्तार करके, इन्हें सभी लोगों के जनतांत्रिक अधिकारों के योद्धाओं के रूप में पेश किया गया।
सरमायदारों की कई विपक्षी पार्टियों ने लोकतंत्र की पुनः स्थापना का नारा दिया। उन्होंने 1977 के लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए एक साथ मिलकर जनता पार्टी का गठन किया। सरमायदार ने कांग्रेस पार्टी के स्थान पर जनता पार्टी की सरकार स्थापित की और अपने शोषण की हकूमत को बरकरार रखा। इस प्रकार से क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए संघर्ष को गुमराह कर दिया गया।
आपातकाल के दौरान कई ऐसे नेताओं को लोकतंत्र के रक्षक के रूप में उछाला गया था। उनमें से कई बाद में मुख्यमंत्री बन गए। कुछ तो देश के प्रधानमंत्री भी बन गए। उनमें से एक हिस्से ने भाजपा का गठन किया, जिसे 1980 के दशक में हुक्मरान वर्ग ने कांग्रेस पार्टी के प्रमुख विपक्ष के रूप में बढ़ावा दिया।
आपातकाल की घोषणा और उसके बाद लोकतंत्र की पुनः स्थापना का आंदोलन, ये दोनों सरमायदार की योजना के हिस्से थे। उनका मक़सद था लोगों को बांटना और गुमराह करना, क्रांति को रोकना और मौजूदा संसदीय व्यवस्था पर लोगों के भरोसे को बनाये रखना।
हाल के वर्षों में मज़दूरों, किसानों और दूसरे मेहनतकशों के ख़िलाफ़ आर्थिक और राजनीतिक हमले को भाजपा ने अगुवाई दी है। कांग्रेस पार्टी और उसके साथ-साथ, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी और दूसरी विपक्ष की पार्टियां मज़दूरों और किसानों के असंतोष का फ़ायदा उठाकर, खुद को भाजपा के भरोसेमंद संसदीय विकल्प के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही हैं।
सरमायदार जन-विरोध का फ़ायदा उठाकर किसी ऐसे संसदीय विकल्प को तैयार करने की कोशिश करते हैं, ताकि जब वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी जनता की नज़रों में बहुत ज्यादा बदनाम हो जाती है तो तब उस विकल्प को सत्ता पर लाया जा सकता है। बीते कुछ वर्षों से पूंजीपति किसान आंदोलन का इस्तेमाल करके भाजपा का संसदीय विकल्प विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं।
बीते समय में कई बार ऐसा हुआ है कि चुनाव के बाद पक्ष और विपक्ष की पार्टियों ने एक दूसरे का स्थान ले लिया है। कांग्रेस पार्टी की संप्रग सरकार और भाजपा की राजग सरकार ने केंद्र में एक दूसरे की जगह ले ली है। पंजाब में कांग्रेस पार्टी और अकाली दल ने एक दूसरे की जगह ले ली है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा ने एक दूसरे की जगह ले ली है। मणिपुर, गोवा और उत्तराखंड में भाजपा ने कांग्रेस पार्टी की जगह ले ली है।
हालांकि सत्तारूढ़ पार्टी बदल गई है, पर राजनीतिक सत्ता के चरित्र में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ है। सरकार के कार्यक्रम और आर्थिक विकास की दिशा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।
उदारीकरण और निजीकरण के ज़रिए हिन्दोस्तान की पूंजी और उत्पादन के भूमंडलीकरण का कार्यक्रम बीते 3 दशकों में प्रत्येक सरकार का मार्गदर्शक रहा है। मुट्ठीभर अति अमीर तबके की अमीरी बढ़ती रही है जबकि मेहनतकश जनसमुदाय ग़रीब ही रहा है और ज्यादा से ज्यादा हद तक क़जेऱ् में डूबता जा रहा है।
इस व्यवस्था के अंदर लोग कोई भी फ़ैसला नहीं कर सकते हैं। टाटा, अंबानी, बिरला, अडानी और सरमायदारों की अगुवाई करने वाले दूसरे इजारेदार पूंजीपति ही सारे फै़सले करते हैं। वे ही यह फ़ैसला करते हैं कि किसी समय पर सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी किस को सौंपी जाएगी।
सरमायदार ने अपने अत्यधिक धनबल और साथ-साथ अपनी भरोसेमंद पार्टियों के बाहुबल, बूथ कैप्चर करने में उनकी कुशलता, आदि का इस्तेमाल करके हमेशा यह सुनिश्चित किया है कि पूंजीपतियों की पसंद की पार्टी ही सरकार बना पाती है। अब धनबल और बाहुबल के साथ-साथ सरमायदार मीडिया के बल का भी इस्तेमाल करते हैं और इसके साथ-साथ, इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के साथ छेड़छाड़ करने की अपनी क्षमता का भी।
चुनावी दंगल में मुख्य पार्टियों के प्रचार अभियानों को पूंजीपति वर्ग से खूब सारा पैसा मिलता है। वे सब मिलकर इस भ्रम को बरकरार रखते हैं कि मज़दूरों और किसानों की खुशहाली इस बात पर निर्भर है कि सरकार किस पार्टी की बनती है और यह सरकार कौन सी नीतियां अपनाती है।
पर सच तो यह है कि जब तक सरमायदार की सत्ता क़ायम है और आर्थिक व्यवस्था पूंजीवादी है, तब तक एक ही कार्यक्रम लागू होता है, जैसा कि इस समय हो रहा है। जब तक बड़े पैमाने के उत्पादन के साधन पूंजीपतियों की निजी संपत्ति बने रहते हैं, तब तक उत्पादन का लक्ष्य उनके मुनाफ़ों को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाना ही रहेगा।
म.ए.ल.: चुनावों में क्रांतिकारी पार्टियों और जन संगठनों की क्या भूमिका होनी चाहिए? क्या हमें चुनावों में भाग लेना चाहिए या उनका बहिष्कार करना चाहिए?
लाल सिंह: किसी क्रांतिकारी पार्टी को सरमायदार शासन के चलते चुनाव में भाग लेना चाहिए या नहीं और फिर किस रूप में भाग लेना चाहिए, यह कोई नया सवाल नहीं है। इस सवाल पर हमारे देश में कम्युनिस्ट आंदोलन बहुत लंबे समय से त्रस्त रहा है।
पर यह एक कार्यनीतिगत सवाल है, जिसका यह मतलब है कि इसके लिए कोई स्थाई फार्मूला नहीं हो सकता है। किसी क्रांतिकारी पार्टी के लिए न तो हर चुनाव में भाग लेना आवश्यक है और न ही हर चुनाव से परे रहने या चुनाव का बहिष्कार करना उसके लिए बाध्यकारी है।
कांग्रेस और भाजपा जैसी सरमायदार पार्टियों के लिए, चुनाव वह मुख्य ज़रिया है जिसके सहारे में वर्तमान व्यवस्था के अंदर अपनी-अपनी पार्टियों के स्थान और प्रभाव को बनाकर रख सकते हैं और बढ़ा सकते हैं। जो भी पार्टी वर्तमान व्यवस्था के साथ घुलमिल जाती है और एक चुनावी मशीन बतौर खुद को विकसित करती है, उसका यही नज़रिया बन जाता है।
कम्युनिस्ट पार्टी का यह नज़रिया है कि चुनाव वर्ग संघर्ष का सिर्फ एक अखाड़ा है। राजनीतिक सत्ता के लिए मज़दूरों और किसानों के संघर्ष में चुनाव मुख्य अखाड़ा नहीं है।
कम्युनिस्ट पार्टी को चुनावों में उस रूप से नहीं भाग लेना चाहिए, जिस रूप से सरमायदार पार्टियां भाग लेती हैं। अगर हम यह वादा करें कि हमारी पार्टी की सरकार बनने से मज़दूरों और किसानों की समस्याएं हल हो जाएंगी तो हम भ्रम फैला रहे हैं। हम सरमायदारों के उसी प्रचार में योगदान दे रहे हैं कि मज़दूरों और किसानों के हित वर्तमान व्यवस्था के अंदर ही हल हो सकते हैं, कि राजनीतिक तथा आर्थिक क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन की कोई ज़रूरत नहीं है।
लेकिन ऐतिहासिक अनुभव हमारी पार्टी और कम्युनिस्ट आंदोलन की कई और पार्टियों के उस निष्कर्ष की पुष्टि करता है कि इस व्यवस्था के चलते, चुनावों से सत्ता पर बैठे वर्ग में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है। परंतु इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचना गलत होगा कि किसी क्रांतिकारी पार्टी को कभी भी चुनाव में हिस्सा नहीं लेना चाहिए।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा है, चुनाव वर्ग संघर्ष का एक अखाड़ा है। सरमायदार इस चुनावी अखाड़े का इस्तेमाल करके मेहनतकश लोगों को धोखा देते हैं और गुमराह करते हैं और सांझे दुश्मन के ख़िलाफ़ उनकी एकता को कमजोर और नष्ट करते हैं। अगर क्रांतिकारी इस अखाड़े से दूर रहेंगे तो मज़दूर और किसान सरमायदार के विचारधारात्मक हमले के बेसहारे शिकार बन जायेंगे।
चुनाव एक ऐसा मौका होता है जब ज्यादा से ज्यादा लोग राजनीति पर चर्चा करने लगते हैं। सरमायदार इस चर्चा को सबसे घटिया और निचले स्तर पर रखने की कोशिश करते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का काम है कि राजनीतिक चर्चा और लोगों की राजनीतिक जागरुकता को सबसे ऊंचे स्तर तक ले जाया जाए।
हाल के वर्षों में मज़दूर और किसान पहले से कहीं ज्यादा जागरुक हो गए हैं कि उनके मुख्य और सांझा दुश्मन इजारेदार पूंजीपति हैं। पांचों राज्यों के चुनाव अभियानों का इस्तेमाल करके सरमायदार मज़दूरों और किसानों की इस बढ़ती जागरुकता को कमजोर और नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं।
चुनाव अभियानों का इस्तेमाल करके सरमायदार लोगों को प्रतिस्पर्धी सरमायदार पार्टियों के बीच तथाकथित घमासान लड़ाई में इस या उस का पक्ष लेने के जाल में फंसा देते हैं। कम्युनिस्टों का काम है कि लोगों में यह जागरुकता लाई जाए कि असली घमासान लड़ाई पूंजीपति वर्ग और श्रमजीवी वर्ग के बीच में है। असली लड़ाई पूंजीवाद की पुरानी व्यवस्था जो बड़े खतरनाक तरीक़े से संकटग्रस्त हो गयी है, और समाजवाद की नई व्यवस्था जो जन्म लेने के लिए बेसब्री से इंतजार कर रही है, इन दोनों के बीच में है।
हमारा काम और हर प्रगतिशील ताक़त का काम है क्रांतिकारी विकल्प के इर्द-गिर्द लोगों को लामबंद करना और इस प्रकार, सरमायदार की इन धोखेबाज तरकीबों को नाक़ामयाब करना।
हमें एक ही कार्यक्रम को लेकर, यानी सरमायदार के कार्यक्रम के क्रान्तिकारी विकल्प के लिए हर प्रकार का संघर्ष करना होगा – सड़कों पर, चुनावों के दौरान और निर्वाचित विधानसभाओं के अंदर भी।
म.ए.ल.: सरमायदार के कार्यक्रम के क्रांतिकारी विकल्प के बारे में आप थोड़ा और समझा सकते हैं?
लाल सिंह: कम्युनिस्ट और मज़दूर यूनियनों तथा किसान यूनियनों के आपस बीच में कुछ फौरी आर्थिक क़दमों के बारे में काफी हद तक सहमति है। इन आर्थिक क़दमों में शामिल है एक सर्वव्यापक सार्वजनिक ख़रीदी व्यवस्था जिसमें सभी कृषि उत्पाद शामिल होंगे और जो एक सर्वव्यापक सार्वजनिक वितरण व्यवस्था से जुड़ा हुआ होगा, जिसमें उपभोग की सभी आवश्यक वस्तुएं शामिल होंगी। इनमें निजीकरण कार्यक्रम को फ़ौरन ख़त्म करने की मांग है, मज़दूर-विरोधी श्रम संहिता को रद्द करने और ठेकेदारी मज़दूरी की प्रथा को ख़त्म करने की मांग भी शामिल है।
अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्यक्रम का मक़सद है अर्थव्यवस्था की मौलिक दिशा को बदल देना। इस समय अर्थव्यवस्था मुट्ठी भर अति-धनवानों के मुनाफ़ों को बढ़ाने की दिशा में चलायी जाती है। उसे बदलकर, सामाजिक उत्पादन को मेहनतकश आबादी की बढ़ती भौतिक और सांस्कृतिक ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में आयोजित करना होगा। विदेश व्यापार, घरेलू थोक व्यापार और बड़े पैमाने पर खुदरा व्यापार और इसके साथ-साथ, बैंकिंग, लोहा-इस्पात उद्योग, ऊर्जा तथा कुछ और रणनीतिक उद्योगों को फ़ौरन निजी मुनाफ़ाखोर कंपनियों के हाथों से हड़प लेना होगा और समाज के नियंत्रण में लाना होगा। वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन और वितरण को एक सर्व व्यापक सामाजिक योजना के अनुसार करना होगा। अगर कोई पूंजीपति इस सामाजिक योजना के खि़लाफ़ काम करते हैं तो राज्य को उनकी संपत्ति को अपने हाथों में ले लेना होगा।
राजनीति के क्षेत्र में हमारे कार्यक्रम का मक़सद है लोकतंत्र की ऐसी व्यवस्था की स्थापना करना जिसमें फ़ैसले लेने की ताक़त व्यापक जनता के हाथों में होगी।
आज मज़दूरों और किसानों के गुस्से का एक मुख्य कारण यह है कि उनके द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ऐसे क़ानून बनाते हैं और ऐसी नीतियां लागू करते हैं जो मज़दूरों और किसानों के हितों के बिलकुल ख़िलाफ़ हैं। राजनीतिक क्षेत्र में कौन से परिवर्तन लाने होंगे ताकि मज़दूर और किसान खुद सत्ता में आए? हमें इन परिवर्तनों के लिए आंदोलन चलाना होगा।
अगर हम एक ऐसा कार्यक्रम पेश करें जिसमें सभी सही आर्थिक क़दम शामिल हों मगर राजनीतिक व्यवस्था में गुणात्मक परिवर्तन लाने की ज़रूरत को न उठाया जाए, तो हम सरमायदारों की हुकूमत की वर्तमान व्यवस्था को मजबूत करने में योगदान दे रहे होंगे। मज़दूरों और किसानों को उसी पुराने भ्रम में फंसाकर रखने में योगदान दे रहे होंगे, कि सत्ता में पार्टी को बदलने से आर्थिक नीति और कार्यक्रम में गुणात्मक परिवर्तन हो सकता है।
जब कोई क्रांतिकारी पार्टी चुनाव के लिए किसी उम्मीदवार को खड़ा करती है या उसका समर्थन करती है, चाहे राज्य स्तर पर हो या केंद्र स्तर पर, तो उसे मौजूदा संसदीय व्यवस्था और उसकी राजनीतिक प्रक्रिया में खामियों पर रोशनी डालनी पड़ेगी। हमें उन परिवर्तनों के लिए आंदोलन चलाना पड़ेगा जो श्रमजीवी लोकतंत्र की वैकल्पिक व्यवस्था के अनुकूल हैं और जो मेहनतकश बहुसंख्या को सत्ता में लाने के लिए ज़रूरी हैं।
संविधान के पूर्व कथन में यह ग़लत धारणा पेश की गई है कि “हम, लोग” फ़ैसले लेते हैं। लेकिन हिन्दोस्तानी गणराज्य की हक़ीकत यही है कि सिर्फ निर्वाचित प्रतिनिधि ही फ़ैसले ले सकते हैं। निर्वाचित प्रतिनिधि सरमायादारों के तंग हितों के प्रतिनिधि होते हैं, न कि मेहनतकश बहुसंख्या के हितों के प्रतिनिधि।
क़ानून बनाने का अधिकार संसद और राज्य विधानसभाओं में संकेंद्रित है। चाहे श्रम क़ानून हो या कृषि क़ानून, इन क़ानूनों पर फ़ैसला लेने में मज़दूरों और किसानों की कोई भूमिका नहीं होती है। इस स्थिति को बदलना होगा। लोगों को न सिर्फ वोट डालने का अधिकार होना चाहिए, बल्कि क़ानूनों और नीतियों को प्रस्तावित करने या ख़ारिज़ करने का अधिकार भी होना चाहिए।
फ़ैसले लेने की ताक़त ऐसे राजनीतिक नेताओं के हाथों में संकेंद्रित है, जो सरमायदारों और अपनी-अपनी पार्टियों के हाई कमान के प्रति जवाबदेह होते हैं, न कि उस जनता के प्रति जिसके प्रतिनिधि होने का वे दावा करते हैं। संविधान इसे वैधता देता है। इसे बदलना होगा। मतदाताओं और निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच में संबंध को बदलना होगा।
लोगों को फ़ैसले लेने की ताक़त को निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथों में पूरा-पूरा नहीं सौंप देना चाहिए। लोगों को अपने प्रतिनिधियों को जवाबदेह ठहराने के अधिकार को अपने हाथों में रखना चाहिए। लोगों को निर्वाचित प्रतिनिधि को किसी भी समय वापस बुलाने के अधिकार को अपने हाथ में रखना चाहिए।
हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था अंग्रेज सरमायदार राजनीतिक सिद्धांत पर आधारित है, जिसे उपनिवेशवादी हुक्मरानों ने विदेश से लाकर हिन्दोस्तान की धरती पर स्थापित किया था। इस सिद्धांत का यह आधार है कि हमारे देश के लोग खुद अपना शासन करने के क़ाबिल नहीं हैं और इसीलिए हमें अपने ऊपर शासन करने के लिए श्वेत पुरुषों की ज़रूरत है। आज भी यही सिद्धांत लागू है। फ़र्क़ सिर्फ इतना है कि श्वेत पुरुष की जगह पर ऐसे हिन्दोस्तानी नेता और ऐसी पार्टियां आ गई हैं, जिन्हें पूरा प्रशिक्षण दिया गया है कि वह सब कुछ कहें जो लोग सुनना चाहते हैं और करें ठीक वैसा ही जो सबसे धनवान पूंजीपतियों के हित में हो।
उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष के दौरान, बीसवीं सदी के पहले पचास सालों में बरतानवी हुक्मरानों ने एक राजनीतिक प्रक्रिया को विकसित किया था जिसमें प्रादेशिक वैधानिक निकायों में हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों और जागीरदारों के प्रतिनिधियों को कुछ स्थान दिए गए थे। विशिष्ट लोगों को चुनकर सत्ता में शामिल करने की यह प्रक्रिया उपनिवेशवाद के बाद की अवधि में भी जारी रही है। आज इजारेदार पूंजीपति अलग-अलग इलाकों, समुदायों और जातियों से विशिष्ट लोगों को सत्ता में शामिल करते हैं। अधिकतम लोगों को सत्ता से बाहर रखा जाता है।
संविधान सभा ने सर्वव्यापक प्रौढ़ मताधिकार की लोकप्रिय मांग को मानने का फ़ैसला किया था, जबकि इससे पूर्व बरतानवी हुकूमत के दौरान सीमित मताधिकार हुआ करता था। लेकिन बीते 72 वर्षों के अनुभव से यह साफ हो जाता है कि सर्वव्यापक प्रौढ़ मताधिकार से यह सुनिश्चित नहीं होता कि लोगों के हाथ में सत्ता है।
चुनाव के उम्मीदवारों का चयन करने में अधिकतम लोगों की कोई भूमिका नहीं होती है। प्रतिस्पर्धी पार्टियों के नेता धर्म और जाति के आधार पर अपने उम्मीदवारों का चयन करते हैं। जैसा कि कार्ल मार्क्स ने कहा था, लोगों से कहा जाता है कि आप यह चुनो कि “हुक्मरान वर्ग का कौन-सा सदस्य संसद में आपके हितों के खि़लाफ़ आप का प्रतिनिधित्व करेगा और आपका दमन करेगा”।
चुनाव अभियानों के लिए निजी धन के इस्तेमाल के कारण चुनावी लड़ाई बहुत असमान हो जाती है। कम्युनिस्ट पार्टियों, किसानों या दूसरी मध्यवर्ती श्रेणियों के उम्मीदवारों की तुलना में सरमायदारों की पार्टियों के उम्मीदवारों को बहुत सारे फ़ायदे मिलते हैं। धनबल में बहुत बड़ा अंतर होता है और टेलीविजन पर प्रचार में भी बहुत अंतर होता है।
एक सांझे चुनाव चिन्ह पर अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवारों को खड़ा करने का अधिकार सिर्फ उन संगठनों के पास होता है जो रिप्रेजेंटेशन आफ पीपल्स एक्ट के तहत खुद को राजनीतिक पार्टी बतौर रजिस्टर करते हैं। यह अधिकार जन संगठनों को नहीं दिया जाता है। मज़दूर यूनियन और किसान यूनियन उम्मीदवारों को खड़ा करके एक सांझा चुनाव चिन्ह नहीं मांग सकते हैं। जो सभी उम्मीदवार किसी रजिस्टर्ड पार्टी द्वारा नामांकित नहीं होते हैं, उन्हें “निर्दलीय उम्मीदवार” घोषित कर दिया जाता है, जैसे कि उनका कोई संगठन ही नहीं है।
हर एक राजनीतिक सत्ता एक राजनीतिक सिद्धांत पर आधारित होती है जो उस सत्ता को और उसके गठन के तौर-तरीक़ों को जायज़ ठहराता है। मज़दूरों और किसानों के लोकतंत्र की नई व्यवस्था का भी अपना राजनीतिक सिद्धांत होना पड़ेगा। उस सिद्धांत के कुछ आवश्यक तत्व इस प्रकार होंगे: (1) संप्रभुता सभी लोगों की होगी और (2) सभी की सुख-सुरक्षा सुनिश्चित करना राज्य का फ़र्ज़ होगा।
राजनीतिक पार्टी की भूमिका लोगों के नाम पर शासन करना नहीं होनी चाहिए, बल्कि लोगों को वह नज़रिया और संगठित अगुवा जागरुकता दिलाना, जिससे लोग खुद अपना शासन कर सकें। मतदाताओं को चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन करने और किसी भी समय निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार होना चाहिए। हमें क़ानून और नीति प्रस्तावित करने, उन पर सहमति जताने या उन्हें ख़ारिज़ करने और संविधान में संशोधन करने या संविधान को फिर से लिखने का अधिकार होना चाहिए। चयन और चुनाव की पूरी प्रक्रिया के लिए राज्य को धन देना चाहिए और किसी भी चुनाव अभियान के लिए किसी निजी धन के प्रयोग की इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए।
वर्गों के नजरिए से, नई व्यवस्था श्रमजीवी वर्ग का लोकतंत्र होगा। किसानों और दूसरे मेहनतकश व दबे कुचले लोगों के साथ मज़दूर वर्ग के गठबंधन की हकूमत होगी। वह हर प्रकार के शोषण और दमन को ख़त्म करने की हुकूमत होगी, सामंतवाद और जातिवादी व्यवस्था के सभी अवशेषों को ख़त्म करने वाली हुकूमत होगी, संपूर्ण उपनिवेशवादी विरासत को ख़त्म करने और पूंजीवाद को बदलकर समाजवाद व कम्युनिज्म की स्थापना करने की हुकूमत होगी। इस क्रांतिकारी विकल्प के इर्द-गिर्द एकजुट होकर ही हम संसदीय विकल्प के पीछे लोगों को लामबंद करने की सरमायदारों की योजना को हरा सकते हैं।
हमारे देश में कम्युनिस्ट आंदोलन बहुत लंबे समय तक इस बात पर बंटा रहा है कि वर्तमान व्यवस्था में चुनावों के दौरान हमारी क्या कार्य नीति होनी चाहिए। आज वक्त की मांग है कि कम्युनिस्ट आंदोलन की एकता को पुनः स्थापित किया जाए ताकि मज़दूरों और किसानों की हकूमत के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाया जा सके। यह अति-आवश्यक है कि सभी कम्युनिस्ट इस क्रांतिकारी विकल्प पर खुलकर और गहराई से चर्चा करें, जिसके इर्द-गिर्द मेहनतकश लोगों की राजनीतिक एकता बनायी जा सकती है और आज बनाना ज़रूरी है।
म.ए.ल.: इस अत्यंत ज्ञानवर्धक साक्षात्कार के लिए, धन्यवाद कामरेड।