किसान आन्दोलन : वर्तमान स्थिति और आगे की दिशा

मज़दूर एकता कमेटी द्वारा आयोजित सातवीं सभा

“आने वाले समय में सबको मिलकर इस संघर्ष को आगे बढ़ाना है…”

इन उत्साहजनक शब्दों के साथ, भारती किसान यूनियन क्रान्तिकारी (पंजाब) के जाने-माने नेता, सुरजीत सिंह फूल ने सभासदों का हौसला बुलंद किया। वे ‘किसान आन्दोलन : वर्तमान स्थिति और आगे की दिशा’, इस विषय पर मज़दूर एकता कमेटी द्वारा 12 फरवरी, 2022 को आयोजित, इस श्रृंखला की सातवीं सभा के मुख्य वक्ता थे।

मज़दूर एकता कमेटी की ओर से बिरजू नायक ने सुरजीत सिंह फूल और उनके संगठन का परिचय दिया। भारती किसान यूनियन क्रान्तिकारी (पंजाब) तीन किसान-विरोधी क़ानूनों को रद्द करवाने के इस लम्बे संघर्ष में एक जुझारू योद्धा रही है और संयुक्त किसान मोर्चा (एस.के.एम.) में उसकी सक्रिय भूमिका रही है।

सुरजीत सिंह फूल का वक्तव्य

सबसे पहले तो मैं इस जूम मीटिंग को आयोजित करने के लिये मज़दूर एकता कमेटी के साथियों को धन्यवाद देना चाहता हूं। जूम मीटिंग में शामिल किसान, मज़दूर और किसान आंदोलन में दिलचस्पी रखने वाले सभी साथियों को मैं नमस्कार करता हूं।

आज की मीटिंग के विषय – ”किसान आंदोलन की वर्तमान स्थिति और आगे की दिशा“ के बारे में बोलने से पहले, मैं यह कहना चाहता हूं कि दिल्ली का आंदोलन जो संयुक्त किसान मोर्चे की अगुवाई में एक साल 13 दिन तक चला, उसके कारण जो तीन काले क़ानून से ख़तरा था कि खेती को कार्पोरेट घरानों के हवाले कर दिया जायेगा, वह ख़तरा टल गया है। इन कृषि-विरोधी क़ानूनों के ख़िलाफ़ यह एक ऐतिहासिक जीत है।

आने वाले विशाल किसान आंदोलन के लिये इस आंदोलन ने रास्ता विस्तृत कर दिया है। आने वाले दिनों में इस आंदोलन में एम.एस.पी. की गारंटी का मुद्दा एक अहम मुद्दा रहेगा। एक बात यह है कि किसानी में जो छोटे किसान हैं, उन पर क़र्ज़ का बहुत बड़ा बोझ है। जब तक यह बोझ हटाया नहीं जायेगा, तब तक किसान आगे नहीं बढ़ सकते हैं। क़र्जे़ के बारे में, इस सरकार से पहले वाली सरकार ने भी वादा किया था कि वह छोटे किसानों को क़र्ज़ मुक्त करेगी। पर यह काम अभी तक पेंडिंग है। आने वाले दिनों में जो मुद्दे हम और एस.के.एम. भी उठायेंगे, वह होगा कि सभी फ़सलों पर एम.एस.पी. की गारंटी हो तथा छोटे किसानों के क़र्ज़ का बोझ और खेत मज़दूरों की दुर्दशा ख़त्म हो।

पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश, दिल्ली आंदोलन के केन्द्र में रहे हैं। हरियाणा को छोड़कर अब पंजाब, उत्तर प्रदेश और साथ ही उत्तराखंड चुनावी दंगल में हैं और किसान आंदोलन के कुछेक लोग इसमें कूद गये हैं। चुनाव में किसानी एक मुद्दा है।

किसानी का सबसे बड़ा रोग है कि किसानी के लिये कार्पोरेट-पक्षीय मॉडल का इस्तेमाल किया जा रहा है, जो किसानी की स्थानीय समस्याओं को पूरी तरह नज़रंदाज़ करता है। यह मॉडल कार्पोरेट और साम्राज्यवादी हितों को पूरा करने की दिशा में है। पिछले 30-40 सालों से हरित क्रांति (ग्रीन रेवोल्यूशन) के ज़रिये किसानी के विकास का जो मॉडल लागू किया गया है, वह उन्हीं के हितों को पूरा करने के लिये है। इससे कीटनाशक और दूसरे तरीक़ों की वजह से ज़मीन जहरीली हो गयी, पानी जहरीला हो गया। इससे बड़ी-बड़ी कंपनियों को खूब मुनाफ़ा मिला, पर किसान क़र्ज़े में डूब गये और खुदकुशी करने को मजबूर हो गये। खाद, कीटनाशक और बीज की बड़ी-बड़ी कंपनियों को अरबों का मुनाफ़ा मिला। यही किसानी का असली रोग है और इस कार्पोरेट-पक्षीय रोग को ख़त्म करने के लिये जो मांगें आयेंगी वे आने वाले आंदोलन के मुख्य मुद्दे रहेंगे।

एक और चीज ध्यान देने योग्य है कि किसान इन मुद्दों पर चुनाव में खड़ी पार्टियों से सवाल कर रहे हैं। किसान आंदोलन ने किसी भी बड़ी राजनीतिक पार्टी को अपने मंच पर आने नहीं दिया था, क्योंकि इन सब पार्टियों ने उन उदारीकरण की नीतियों का समर्थन किया था और उन्हें लागू किया था। ये नीतियां डब्ल्यू.टी.ओ. के निर्देशों के अनुसार बनी थीं। सभी पार्टियों द्वारा उन नीतियों का समर्थन करने की वजह से किसानी संकट में फंसी। इसीलिये किसानों ने इन पार्टियों को अपने आंदोलन से दूर रखा था, उन्हें स्टेज पर नहीं आने दिया था। किसान पूछ रहे हैं कि उनके चुनावी घोषणा पत्र में किसानों के लिये नया क्या है? कि वे इस मॉडल को ख़त्म करने के लिये क्या कर रहे हैं? इन नीतियों के कारण देश को गिरवी रख दिया गया है और देश सात लाख करोड़ के क़जेऱ् में डूब गया है। इसकी वजह से देश की अर्थव्यवस्था, ख़ासकर कृषि अर्थव्यवस्था, क़जेऱ् पर निर्भर हो गयी है। बड़े साम्राज्यवादी देश शर्तें रखते हैं कि क़र्ज़ा तभी मिलेगा जब खेती में कार्पोरेट मॉडल की नीतियों को लागू किया जायेगा। आने वाले दिनों में यह एक मुद्दा रहेगा।

हम चुनावों में भाग नहीं ले रहे हैं क्योंकि चुनाव में भाग लेने वाली सारी राजनीतिक पार्टियां विश्व बैंक, आई.एम.एफ. की गुलाम हैं। ये राज्य विधानसभाओं में जाकर इन्हीं नीतियों को अपनायेंगी। इसीलिये किसान आंदोलन चुनावों में भाग नहीं ले रहा है। हमें किसान आंदोलन के रास्ते को, जो संघर्ष का रास्ता है, उसी को आगे लेकर जाना है। किसानों और खेत मज़दूरों का भविष्य ऐसे ही किसान आंदोलन से सुधर सकता है। 20 फरवरी को पंजाब में चुनावी खेल ख़त्म हो जायेगा।

चन्नी सरकार ने पांच कीले तक की ज़मीन के मालिकी वाले छोटे किसानों को 1,200 करोड़ रुपये का जो वादा किया है, वह तो पूरा नहीं किया गया है। सरकार 1,200 करोड़ रुपया कहां से देगी, क्योंकि वह तो खुद क़जेऱ् में डूबी हुई है। सरकारें कार्पोरेट घरानों के क़र्जे़ में डूबी हुई हैं। इसीलिये इस मसले को खींचे जा रही हैं। इसीलिये हम सरकार को संदेश दे रहे हैं कि हम इस क़जेऱ् का भुगतान नहीं करने वाले हैं। आने वाले समय में, सबको मिलकर इस संघर्ष को आगे बढ़ाना है। दिल्ली वाले आंदोलन ने बहुत सी उम्मीदें जगा दी हैं। इसीलिये आने वाले दिनों में आंदोलन अवश्य ही बढ़ने वाला है।

आने वाले समय में संयुक्त किसान मोर्चे का भविष्य क्या होगा, इसके बारे में मैं आपको एक बात और बता दूं। एस.के.एम. कोई संगठन नहीं है; यह अलग-अलग संगठनों का ज्वाइंट फोरम है – एक मिनिमम प्रोग्राम के लिये। आने वाले समय में संघर्ष के लिये इसकी ज़रूरत रहेगी। इसका घेरा और आकार बड़ा होगा, गिनती में भी। इसके लीडर्स के काम को परखा जायेगा और उनका फिर से मूल्यांकन किया जायेगा। दिल्ली आंदोलन में जो लीडर्स दिखते थे, उनमें से कुछ पीछे जायेंगे और इस आंदोलन के ज्वलंत मुद्दों पर जो संघर्ष कर रहे थे, वे आगे आयेंगे। कहने का मतलब है कि इसकी रचना में तब्दीली आयेगी – कुछ पीछे हटेंगे और कुछ आगे आयेंगे।

हमें कहा जाता है कि हम राजनीति के ख़िलाफ़ हैं। हम चुनावी वोट बैंक की राजनीति के ख़िलाफ़ हैं। पर संघर्ष की राजनीति को हम आगे लेकर जायेंगे। आने वाले दिनों में हम गांवों के संगठन, किसानों के संगठन, खेत मज़दूरों के संगठन, महिलाओं के संगठन और अलग-अलग संगठनों को मजबूती देंगे। सबको मिलजुल कर संघर्ष करना है और ख़ासतौर पर दलित मज़दूर हमारे संघर्ष का दायां हाथ होगा।

संघर्ष आगे बढ़ेगा, नया सृजन होगा और अब भगत सिंह के नारे, ”साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!“, ”इंक़लाब ज़िन्दाबाद!“ का पूरा होने का समय आ गया है। लोग समझते हैं कि ”साम्राज्यवाद मुर्दाबाद!“ 1947 में ही हो चुका था। बस्तीवादी राज ख़त्म हो गया था, पर नया बस्तीवादी राज आ गया था। हमारी विदेशी गुलामी ख़त्म नहीं हुई है। इस आंदोलन से लोग भगत सिंह के ”साम्राज्यवाद मुर्दाबाद“ के नारे को समझने लगे हैं, कि कार्पोरेट खेती की गुलामी से निकलना ज़रूरी है। उनके द्वारा लूटा जाने वाला पैसा लोगों को ही मिलना चाहिये। हमें पूरी उम्मीद है कि आने वाला दशक बड़े संघर्षों और क़ामयाबियों का होगा।

सुरजीत सिंह फूल के भाषण के बाद, मज़दूर एकता कमेटी की ओर से संतोष कुमार ने अपने विचार रखे।

दिल्ली, महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार, ओड़िशा, मणिपुर, तमिलनाडु, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, आदि जैसे देश के अनेक इलाकों से और ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि कई अन्य देशों से कार्यकर्ताओं ने सभा में भाग लिया। उनमें से अनेक लोगों ने किसान आन्दोलन पर अपने विचार रखे तथा मुख्य वक्ता से अपने सवाल पूछे।

साथियों के सवालों को उठाते हुए सुरजीत सिंह फूल ने अपने विचार इस प्रकार रखे।

पहला सवाल एक साथी का एम.एस.पी. की क़ानूनी गारंटी के बारे में था। वे जानना चाहते थे कि जब ऐसा क़ानून बन जाता है तो क्या सारी ख़रीद सरकार करेगी या निजी कंपनियां करेंगी? एम.एस.पी की घोषणा तो पहले भी होती थी। घोषणा तो सब फ़सलों की होती थी, पर ख़रीद सिर्फ दो फ़सलों की ही होती थी। इसीलिये जो एम.एस.पी. गारंटी क़ानून बनेगा उसके तहत इसकी ज़िम्मेदारी सरकार की ही होगी। सरकार को धनराशि जुटाकर पूरी ख़रीद करना चाहिये। अगर निजी व्यापारी ख़रीदे तो भी वह न्यूनतम क़ीमत से कम में न ख़रीदे। अगर वह कम में ख़रीदे तो उस पर क़ानून लागू हो। निजी व्यापारी को ख़रीदने की छूट होनी चाहिये पर न्यूनतम समर्थन क़ीमत से कम पर नहीं।

दूसरा सवाल था कि जो पंजाब के 22 संगठनों ने मिलकर एक राजनीतिक पार्टी बनाई है और उसका नाम उन्होंने संयुक्त समाज मोर्चा (एस.एस.एम.) रखा है। दिल्ली में 15 जनवरी की मीटिंग में कहा गया था कि व्यक्तिगत तौर पर कोई भी चुनाव में खड़ा हो सकता है। संगठन जो एस.एस.एम. में हैं वे तो किसान संगठन नहीं हैं, वे तो राजनीतिक पार्टी हैं। तो जैसा एस.के.एम. का दूसरी पार्टियों की तरफ रुख़ है वैसा ही रुख़ एस.एस.एम. की तरफ रहेगा। चार महीने के लिये उन्हें एस.के.एम. से बाहर रखा गया है। अगर वे एस.एस.एम. से रिश्ता तोड़कर एस.के.एम. में वापस आते हैं तो फिर से विचार किया जा सकता है। चार महीने के बाद देखा जायेगा कि वे एस.एस.एम. में रहना चाहते हैं या एस.के.एम. में वापस आना चाहते हैं। एस.एस.एम. में रहते हुए वे एस.के.एम. में वापस नहीं आ सकते हैं। अगर वे एस.एस.एम. से बाहर होकर एस.के.एम. में वापस आना चाहते हैं तो उनके आवेदन पर पुनर्विचार किया जा सकता है। 15 जनवरी की मीटिंग का यही फ़ैसला था।

अंत में जैसा कि मैंने पहले बताया था, साम्राज्यवादियों और कार्पोरेट घरानों द्वारा कृषि पर नियंत्रण जमाने के लिये (5 जून, 2020) को ये क़ानून लाये गये थे। उनके मुनाफ़े को बढ़ाने के लिये ये क़ानून डब्ल्यू.टी.ओ. की नीतियों को आगे बढ़ाने के लिये लाये गये हैं। अपना देश भी डब्ल्यू.टी.ओ. का सदस्य है। डब्ल्यू.टी.ओ. सभी देशों के व्यापार को और अर्थव्यवस्था को अपनी नीतियों के नियंत्रण में रखता है। सरकार ने खेती-विरोधी क़ानून तो वापस ले लिये परन्तु उन्होंने अपनी नीतियों को नहीं बदला है। सरकार किसी न किसी तरह अपनी नीतियों को लागू करेगी। इसीलिये हमारे सामने एक चुनौती है। हम इस चुनौती को कबूल करेंगे और इस व्यवस्था में जड़ से परिवर्तन करके एक नयी व्यवस्था के लिये संघर्ष करेंगे जो सबके भले के लिये होगी।

मैं मज़दूर एकता कमेटी को इस जूम मीटिंग को आयोजित करने के लिये एक बार फिर धन्यवाद देता हूं।

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