‘राडिया टेप्स और हिन्दोस्तानी लोकतंत्र के असली चेहरे’ पर गोष्ठी

देश भर में, बड़े से बड़े मंत्रियों, अफसरों, बड़े पूंजीपतियों और जानी-मानी मीडिया की हस्तियों से जुड़े विभिन्न घोटालों की खबरों ने वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के बारे में और भी ज्यादा लोगों की आंखें खोल दी हैं। हालांकि इसे लोकतंत्र कहा जाता है, परन्तु सच्चाई में यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कुछ मुट्ठीभर लोग अपनी सत्ता और दौलत के द्वारा देश का भविष्य तय करते हैं और सार्वज

देश भर में, बड़े से बड़े मंत्रियों, अफसरों, बड़े पूंजीपतियों और जानी-मानी मीडिया की हस्तियों से जुड़े विभिन्न घोटालों की खबरों ने वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के बारे में और भी ज्यादा लोगों की आंखें खोल दी हैं। हालांकि इसे लोकतंत्र कहा जाता है, परन्तु सच्चाई में यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें कुछ मुट्ठीभर लोग अपनी सत्ता और दौलत के द्वारा देश का भविष्य तय करते हैं और सार्वजनिक संसाधनों की सरेआम लूट खसौट करते हैं। चाहे वह राष्ट्रमंडल खेल हो, 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो, मुंबई का आदर्श आवास घोटाला हो, या दूसरे घोटाले हों, इन पर चर्चा से वर्तमान व्यवस्था के दीवालियेपन पर ही ध्यान आता है और यह प्रश्न उठता है कि इनके बारे में क्या करना होगा।
28 जनवरी को नयी दिल्ली में लोक राज संगठन ने ”राडिया टेप्स का खुलासा और हिन्दोस्तानी लोकतंत्र का असली चेहरा” विषय पर एक आम चर्चा आयोजित की। यह याद होगा कि राडिया टेप्स से, बहुत स्पष्ट तरीके से, यह खुल कर आया था कि बड़े उद्योगपति कैसे सरकार के सबसे ऊंचे मंत्रियों की नियुक्ति तय करते हैं, कैसे दांव-पेंच करते हैं ताकि नीतियां उनके अनुकूल हों, कैसे सार्वजनिक राजकोष को लूटते हैं और अपने हित में क्या कुछ नहीं करते हैं। इस सभा में प्राध्यापक भरत सेठ, वरिष्ठ पत्रकार परंजोय गुहा थाकुर्ता, जाने-माने सर्वोच्च न्यायालय के वकील प्रशांत भूषण तथा अन्य लोगों ने अपने विचार रखे और खुलासों की महत्ता का विश्लेषण किया तथा बताया कि इससे वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के बारे में क्या पता चलता है।
एक बात पर सभी वक्ता सहमत थे कि ये घोटाले किसी व्यक्तिविशेष की असाधारण भूल के कारण नहीं थे, परन्तु ये दिखाते हैं कि हिन्दोस्तानी व्यवस्था असलियत में सबसे धनी और शक्तिशालियों के पक्ष में कैसे चलती है। मंत्री, उंचे पद के नौकरशाह और मीडिया के नवाब, अंबानी, टाटा व अन्य इजारेदार पूंजीपतियों के इशारे पर नाचते हैं। किसी खास पूंजीपति के हित में नीति बनाने के लिये, किसी अहम ओहदे पर ”अपना नुमाईंदा” नियुक्त करने के लिये, उनके हित के विरोध में काम करने वाले को सजा दिलाने के लिये, या लोगों के सामने मीडिया में क्या कहा जायेगा यह निर्धारित करने के लिये, मात्र एक फोन कॉल से काम चलता है। इससे इस लोकतंत्र का असली चरित्र दिखता है कि यह लोकतंत्र आम लोगों के लिये नहीं है बल्कि सिर्फ सबसे अमीर चंद लोगों के लिये है। एक वक्ता ने एक टीवी न्यूज चैनल का उदाहरण दिया, कि कैसे मुकेश अंबानी की रिलायेंस कंपनी द्वारा भ्रष्ट कार्य प्रणाली के बारे में एक वृत्ता चित्र बनाने की सजा बतौर उस चैनल को आई.डी.बी.आई. द्वारा पारित ऋण रुकवा दिया गया। उसे ऋण तभी दिया गया जब चैनल के मालिक ने उस वृत्ता चित्र को न दिखलाने का वायदा किया।
सरकार पर अपने नियंत्रण के जरिये सबसे बड़ी इजारेदार कंपनियां अपने मुनाफे को सुनिश्चित करती हैं और बढ़ाती हैं। एक वक्ता ने कहा कि कायदे या कानून या नीति में एक वाक्य बदलने से एक पूंजीपति करोड़ों का मुनाफा बना जाता है। ये मुनाफे जन साधारण पर भारी बोझ बनते हैं; जनता की सार्वजनिक परिसंपत्ति और संसाधन छीने जाते हैं, उन पर बढ़ती कीमतें लादी जाती हैं और ऐसे कानूनों व नीतियों के परिणाम स्वरूप उन्हें दूसरे बोझ सहने पड़ते हैं।
सभी वक्ता सहमत थे कि इन घोटालों के खुलासों से, प्रस्थापित व्यवस्था के स्वभाव की सच्चाई के बारे में लोग सचेत होते हैं। लोगों के संगठनों की जिम्मेदारी है कि वे इस सच्चाई को उजागर करें और इसे किसी भी बहाने छिपाने की कोशिशों का विरोध करें। जैसा कि लोक राज संगठन के प्रतिनिधि ने कहा, व्यवस्था में इस प्रकार के गहरे बदलाव की जरूरत है जिससे लोग वास्तव में खुद सत्तावान बन सकें। उन्होंने कहा कि यह और भी ज्यादा जरूरी है कि लोगों को उनके कार्यस्थलों और आवासीय इलाकों में संगठित किया जाये ताकि वे इस तरह के बदलाव लाने में और राजनीतिक प्रक्रिया में अपनी उचित भूमिका अदा करने में सक्षम बन सकें।

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