रूस में हुई 1917 की अक्तूबर क्रांति के फलस्वरूप, सोवियत संघ के जन्म के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में एक गुणात्मक परिवर्तन आया। उस क्रांति ने जिस नए सोवियत राज्य और समाजवादी व्यवस्था की हिफ़ाज़त की वह पूरी दुनिया के लोगों के लिए एक तमन्ना और प्रेरणा का स्रोत बन गई। मज़दूर वर्ग का एजेंडा ही राजनीतिक चर्चाओं का केंद्र-बिंदु बन गया। पूंजीपति वर्ग के प्रवक्ताओं को भी यह दिखावा करना पड़ा कि वे किसी न किसी प्रकार के समाजवाद के पक्षधर हैं।
दिसम्बर 1991 में सोवियत संघ के विघटन से, दुनिया में एक विपरीत प्रकार का अचानक परिवर्तन हुआ। यह प्रगति की दिशा में नहीं था। यह एक प्रतिगामी परिवर्तन था।
साम्राज्यवादियों ने सोवियत संघ के पतन का इस्तेमाल, मज़दूर वर्ग और समाजवाद को राजनीति के केंद्र से बाहर धकेलने के लिए किया। पिछले 30 वर्षों से साम्राज्यवादी इस बात पर ज़ोर देते आ रहे हैं कि पूंजीवाद और बहुपार्टी प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र का कोई विकल्प नहीं है।
सभी देशों के लिये वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण और नियमित बहुदलीय चुनावों को एकमात्र रास्ते के रूप में घोषित किया गया है। आज, यह रास्ता पूरी तरह से बेनकाब हो गया है – यह केवल इजारेदार पूंजीपतियों और उनकी सेवा में लगी सरकारों द्वारा किए गए क्रूर हमले के अलावा और कुछ नहीं है। जिन देशों में बहुपार्टी प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र का जन्म हुआ था, उन देशों में यह अत्यधिक बदनाम है। यह हक़ीक़त स्पष्ट तरीक़े से हम सब के सामने है कि यह बहुपार्टी प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र, इजारेदार पूंजीपतियों के द्वारा समाज पर अपनी इच्छा थोपने के लिए बनाई गयी एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें अधिकांश लोगों को निर्णय लेने की शक्ति से वंचित किया जाता है।
दुनिया का मज़दूर वर्ग और सभी उत्पीड़ित लोग, साम्राज्यवादी युद्धों का अंत चाहते हैं। वे संकटग्रस्त और अत्यधिक विनाशकारी पूंजीवादी व्यवस्था का अंत चाहते हैं। वे चाहते हैं कि लोकतंत्र का मतलब, केवल कुछ गिने-चुने लोगों द्वारा अपने निहित स्वार्थों की आपूर्ति के लिए चुने गए उम्मीदवारों में से एक या दूसरे उम्मीदवार को वोट देना ही न हो। वे यह मानने से इंकार कर रहे हैं कि इस व्यवस्था का “कोई विकल्प नहीं है”। पूरी दुनिया के लोग एक विकल्प की इच्छा रखे हुये हैं।
वैज्ञानिक समाजवाद
19वीं शताब्दी में यूरोप अंदर मज़दूर वर्ग और छोटे पैमाने के उत्पादकों पर पूंजीवाद के हानिकारक परिणाम सामने आए, तो समाजवादी विचारधारा की विभिन्न प्रकार की कई धाराएं उभर कर सामने आईं। कुछ ऐसे व्यक्ति भी थे जिन्होंने एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का सपना देखा था जहां शोषण, बेरोज़गारी, ग़रीबी या समय-समय पर आने वाला संकट न हो। कुछ नेक लोगों ने अपने व्यक्तिगत स्वामित्व वाले उद्यमों में समाजवादी सिद्धांतों को लागू करने की भी कोशिश की थी। हालांकि, जब तक कार्ल मार्क्स ने वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांत को जन्म नहीं दिया, तब तक समाजवाद एक काल्पनिक आदर्श (यूटोपिया) तक ही सीमित था।
मार्क्स ने दिखाया कि पूंजीवाद का विकल्प, एक ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें उत्पादन के साधनों को पूंजीपतियों की निजी संपत्ति को, मेहनतकश लोगों की सामाजिक संपत्ति में बदल दिया गया हो। यह उत्पादन के संबंधों को मौजूदा उत्पादक शक्तियों के सामाजिकीकरण की हक़ीक़त के अनुरूप बनाएगा। इससे समय-समय पर आने वाले संकट और बेरोज़गारी जैसी पूंजीवाद की अन्य बीमारियों का अंत हो जाएगा। इससे उस वर्ग के अस्तित्व का आर्थिक आधार ही समाप्त हो जायेगा, जो अन्य वर्गों के शोषण और लूट से निजी संपत्ति इकट्ठा करता है।
मार्क्स ने सर्वहारा वर्ग की पहचान उस वर्ग के रूप में की जिसमें क्रांति और समाजवाद के लिए संघर्ष का नेतृत्व करने की रुचि और क्षमता दोनों हैं। मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सर्वहारा वर्ग के लिए राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा करने और शासक वर्ग बनने के लिए क्रांति ही उनका पहला और आवश्यक क़दम है।
19वीं सदी में यूरोप के कई देशों में मज़दूर वर्ग की पार्टियों का उदय हुआ था। 20वीं सदी की शुरुआत तक पूंजीवाद, साम्राज्यवाद में विकसित हो चुका था, जिसका मतलब है – इजारेदार पूंजीवादी लालच को पूरा करने के लिए शोषण और लूट की एक विश्वव्यापी व्यवस्था। लेनिन ने उस समय तक होने वाले परिवर्तनों का विश्लेषण किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह पूंजीवाद की उच्चतम और अंतिम अवस्था है, जब इसके सभी अंतर्विरोध बहुत ही तीव्र हो चुकें हैं। सर्वहारा क्रांति अब सभी देशों में सफल करना सिर्फ भविष्य की संभावना नहीं थी, बल्कि एक ऐसी समस्या थी जिसे हल करने के लिए आवश्यक क़दम उठाये जाने थे। सर्वहारा वर्ग को नेतृत्व देने के लिए उसे अपनी हिरावल पार्टी की आवश्यकता थी जो उसे क्रांति में जीत की ओर ले जाए और श्रमजीवी वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित करके समाजवाद का निर्माण करने में सक्षम बनाये। लेनिन ने बोल्शेविक पार्टी को एक ऐसी पार्टी बनाने के संघर्ष का नेतृत्व किया।
रूस में 1917 की क्रांति और सोवियत संघ की उत्पति ने मार्क्स और लेनिन की शिक्षाओं की वैधता की पुष्टि की। सर्वहारा वर्ग ने अपेक्षाकृत एक पिछड़े देश, रूस में किसानों और अन्य सभी उत्पीड़ित लोगों के साथ गठबंधन बनाकर राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। मार्क्सवाद-लेनिनवाद द्वारा निर्देशित, नई सोवियत सत्ता बड़े पैमाने पर उत्पादन के साधनों को सामाजिक संपत्ति में बदलने में सफल रही। समय के साथ, यह नयी सत्ता किसानों को अपनी-अपनी छोटी जोतों को स्वैच्छा से मिलाने की प्रक्रिया के ज़रिये किसान-सहकारी समितियों की सामूहिक संपत्ति में परिवर्तित करने में भी सफल रही।
सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ (यू.एस.एस.आर.), एक नए प्रकार का राज्य था और लोकतंत्र की एक श्रेष्ठ प्रणाली। यह उन कई राष्ट्रों और लोगों का एक स्वैच्छिक संघ था, इससे पहले जिन्हें जारवादी साम्राज्य में उत्पीड़ित किया गया था। सोवियत संघ के संविधान ने प्रत्येक घटक राष्ट्र को संघ से अलग होने के अधिकार सहित प्रत्येक घटक राष्ट्र के आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता दी। सोवियत संघ में, संगठित मज़दूरों, किसानों और सैनिकों ने सभी विधायी निकायों के लिए अपने प्रतिनिधि चुने। उन्होंने स्थानीय और राष्ट्रीय गणतंत्र स्तर पर विधायी निकायों के सदस्यों के साथ-साथ सर्वोच्च सोवियत के सदस्यों को चुना, जो देश में सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था थी। उन्हें किसी भी समय चुने गए व्यक्ति को वापस बुलाने का अधिकार प्राप्त था। महिलाओं को पुरुषों के समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे, जिसमें चुनाव में भाग लेने और निर्वाचित होने का अधिकार भी शामिल था।
सोवियत संघ पूंजीपति (बुर्जुआ) वर्ग के खि़लाफ़ अपने संघर्ष में अंतर्राष्ट्रीय श्रमजीवी वर्ग के एक मुक्त आधार क्षेत्र के रूप में उभरा। यह साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ उनके संघर्ष में सभी उत्पीड़ित राष्ट्रों और लोगों के लिए सबसे विश्वसनीय समर्थक के रूप में उभरा।
1930 के दशक के मध्य तक, समाजवादी समाज के निर्माण का पहला चरण मुख्य रूप से पूरा हो गया था। पूंजीपतियों और जमींदारों के शोषक वर्ग अब वर्गों के रूप में मौजूद नहीं थे। समाज की वर्ग संरचना और उसके विकास के चरण में परिवर्तन को स्वीकार करते हुए, कम्युनिस्ट पार्टी ने लोगों के बीच व्यापक चर्चा की प्रक्रिया का नेतृत्व किया, जिससे एक नए संविधान को अपनाया गया।
सोवियत संघ के 1936 के संविधान ने न केवल सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार की स्थापना की, बल्कि राजनीतिक प्रक्रिया में जनता की भूमिका को व्यापक करने के प्रावधान भी बनाये। इसने लोगों को चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन करने के अधिकार की गारंटी दी, जो मज़दूरों, सहकारी समितियों में संगठित किसानों, महिलाओं और युवाओं के जन संगठनों द्वारा मनोनीत किये गए लोगों में से थे। 1936 के संविधान में उल्लिखित क़दमों पर आगे बढ़ने की प्रक्रिया में, द्वितीय विश्व युद्ध (1939-45) के शुरू होने से एक रुकावट आ गयी थी।
अंतर्राष्ट्रीय मामलों में सोवियत संघ की सैद्धांतिक भूमिका, साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ सभी राष्ट्रों और लोगों के संघर्षों को बिना शर्त समर्थन और फासीवाद के खि़लाफ़ संघर्ष के नेतृत्व के द्वारा सोवियत संघ ने सभी शांतिप्रिय लोगों का सम्मान और प्रशंसा हासिल की।
विचलन, पतन और विघटन
समाजवादी व्यवस्था और सोवियत लोकतंत्र, जो स्पष्ट रूप से पूंजीवाद और उसके प्रतिनिधिवादी लोकतंत्र से बेहतर था, फिर नष्ट क्यों हो गया? इसका मूल कारण, जे.वी. स्टालिन की मृत्यु के बाद, सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.एस.यू.) के नए नेतृत्व द्वारा सर्वहारा वर्ग संघर्ष के मार्ग से हटने में निहित है।
लेनिन और स्टालिन के नेतृत्व वाली हिरावल कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई में, मज़दूर वर्ग और उसके सहयोगियों द्वारा छेड़े गए एक लंबे, लगातार और सतत संघर्ष के माध्यम से ही समाजवाद की दिशा में प्रगति और सभी सफलताएं हासिल की गई थी। संघर्ष को क्रांति और समाजवाद के बाहरी और आंतरिक दोनों दुश्मनों के खि़लाफ़ निर्देशित किया गया था। सोवियत राज्य ने इन सभी शत्रुओं से मेहनतकश लोगों के हितों की रक्षा की। कम्युनिस्ट पार्टी ने समाजवाद को नष्ट करने के लिए बुर्जुआ वर्ग द्वारा प्रचारित सभी विचारों और प्रवृत्तियों के खि़लाफ़ वैचारिक संघर्ष का नेतृत्व किया।
1950 के दशक में युद्ध के बाद के पुनर्निर्माण की अवधि के बाद, सोवियत समाज को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। उत्पादन के संबंधों में लगातार क्रांति की आवश्यकता थी, जो अर्थव्यवस्था, राजनीति और संस्कृति को चलाने में जनता की भूमिका को बढ़ा सके। क्रांतिकारी सिद्धांत को अर्थव्यवस्था, राजनीति और संस्कृति के सामने आने वाली समस्याओं को हल करने के लिए और भी विकसित करने की ज़रूरत थी। आर्थिक सिद्धांत के क्षेत्र में, वितरण सहित उत्पादन के क्षेत्र से जुड़े सभी क़दमों को निर्धारित करने में मेहनतकश लोगों की भूमिका को प्राथमिकता देने की आवश्यकता थी। राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में, राजनीतिक तंत्र में क्रांति लाने की आवश्यकता थी ताकि लोग स्वयं शासन करने की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष रूप से भाग ले सकें। दर्शन के क्षेत्र में, यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता थी कि मानव-कारक और चेतना सभी क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभाएं।
इन समस्याओं को दूर करने के बजाय, ख्रुश्चेव की अगुवाई में पार्टी के नए नेतृत्व ने जोसेफ स्टालिन के व्यक्तित्व पर एक क्रूर हमला किया। 1956 में आयोजित सी.पी.एस.यू. की 20वीं कांग्रेस में अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रतिनिधियों को प्रस्तुत एक तथाकथित गुप्त रिपोर्ट में, ख्रुश्चेव ने उन सभी झूठों को दोहराया जो एंग्लो-अमरीकी साम्राज्यवादी प्रचार मशीन ने स्टालिन को एक दुष्ट तानाशाह के रूप में पेश करने के लिए गढ़ा था।
स्टालिन के व्यक्तित्व पर हमले ने वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांत और सर्वहारा वर्ग संघर्ष के रास्ते से ख़तरनाक विचलन को छिपाने का काम किया। इसका इस्तेमाल समाजवाद की सभी उपलब्धियों को कमजोर करने और पूंजीवादी व्यवस्था को पुनस्र्थापित करने का मार्ग प्रशस्त करने के लिए किया गया था। नए सोवियत नेतृत्व ने घोषणा की कि अब सोवियत समाज में वर्ग संघर्ष की कोई आवश्यकता नहीं है। ख्रुश्चेव ने घोषणा कर दी कि सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी अब सर्वहारा वर्ग की पार्टी नहीं है, बल्कि “सभी लोगों की पार्टी” है। उन्होंने घोषणा की कि सोवियत राज्य अब श्रमजीवी वर्ग का अधिनायकत्व नहीं बल्कि “संपूर्ण लोगों का राज्य” है।
मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत के अनुसार, पूंजीवाद और पूंजीपति वर्ग के खि़लाफ़ वर्ग संघर्ष तब तक जारी रहता है जब तक कि विश्व स्तर पर कम्युनिज़्म की अंतिम जीत हासिल नहीं हो जाती। तब तक, हिरावल कम्युनिस्ट पार्टी को वर्ग संघर्ष में अपनी अग्रणी भूमिका को और भी मजबूत करना चाहिए और हमेशा उच्च स्तर पर ले जाना चाहिए। राज्य के मामलों के प्रबंधन में मेहनतकश लोगों की अधिकाधिक भागीदारी के माध्यम से श्रमजीवी वर्ग के अधिनायकत्व को मजबूत किया जाना चाहिए।
इस वैज्ञानिक सिद्धांत के पूर्ण विरोध में ख्रुश्चेव के नेतृत्व वाले सी.पी.एस.यू. ने यह धारणा फैला दी कि सर्वहारा वर्ग संघर्ष अब उनके एजेंडा में नहीं है। इसने लोगों को अपने संघर्ष से पीछे हटाने का काम किया जबकि नए उभरते बुर्जुआ वर्ग ने राजनीतिक सत्ता हथियाने के लिए अपने को संगठित किया। पार्टी और राज्य के उच्च पदों से ऐसे लोग उभरे जिन्होंने अपने पद का इस्तेमाल निजी संपत्ति जमा करने के लिए किया।
कम्युनिज़्म के लिए अपने संघर्ष में सर्वहारा वर्ग के अगुआ होने के बजाय, सी.पी.एस.यू. पूंजीपति वर्ग की पार्टी में बदल गयी। इस प्रकार सोवियत राज्य श्रमजीवी वर्ग के अधिनायकत्व से नए पूंजीपति वर्ग की तानाशाही में तब्दील हो गया।
सभी आर्थिक निर्णय संयुक्त राज्य अमरीका के साथ हथियारों की होड़ की दिशा में और नए पूंजीपति वर्ग को समृद्ध करने की दिशा में तैयार किए गए थे और इसलिए 1960 के दशक में भोजन और अन्य आवश्यक वस्तुओं की गंभीर कमी सामने आने लगी। बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी और उपभोक्ता वस्तुओं के लिए एक काला बाज़ार उभरा। ग़रीबी और वेश्यावृत्ति सहित पूंजीवादी व्यवस्था की सभी बुराइयां समाज में फिर से प्रकट हुईं।
1960 के दशक के अंत तक, सोवियत संघ एक सामाजिक-साम्राज्यवादी राज्य के रूप में उभरा था, जो अपने साम्राज्यवादी चरित्र को छिपाने के लिए शब्दों में समाजवाद की बात कर रहा था। सोवियत सैनिकों ने 1968 में चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण किया और कब्ज़ा कर लिया। उन्होंने 1979 में अफगानिस्तान पर आक्रमण किया और कब्ज़ा कर लिया।
1970 के दशक के दौरान, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पूरी तरह से अंतर-साम्राज्यवादी विवाद और दो महाशक्तियों – अमरीकी साम्राज्यवाद और सोवियत सामाजिक-साम्राज्यवाद के बीच मिलीभगत से हावी थी। प्रत्येक महाशक्ति ने दूसरे को दुनिया के लोगों का मुख्य दुश्मन बताकर अपने नाजायज़ आक्रामक कार्यों को सही ठहराया।
1980 के दशक के मध्य तक सोवियत लोगों का असंतोष अभूतपूर्व स्तर तक बढ़ गया। अफगानिस्तान में युद्ध ने सोवियत राज्य के वित्तीय हालत को कमजोर कर दिया था और मेहनतकश लोगों की आर्थिक समस्याओं को और बढ़ा दिया था। एंग्लो-अमरीकी साम्राज्यवादियों ने इन समस्याओं का फ़ायदा उठाते हुए समाजवाद और सोवियत राज्य के अंतिम अवशेषों को नष्ट करने के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाया। उन्होंने गोर्बाचोव को सबतरफा समर्थन दिया, जिन्होंने लोगों की आर्थिक समस्याओं को दूर करने के नाम पर पूंजीवादी सुधारों की शुरुआत की। बहुपार्टीवादी चुनावों और पूंजीवादी लोकतंत्र की राष्ट्रपति प्रणाली को बढ़ावा देने की दिशा में राजनीतिक सुधार लागू किए गए।
गोर्बाचेव को समर्थन देते हुए, अमरीकी साम्राज्यवादियों ने सोवियत संघ के पूर्ण विघटन की देखरेख के लिए, एक उपयुक्त समय पर येल्तसिन नामक एक खुले तौर पर कम्युनिस्ट-विरोधी शख़्स को उनकी जगह लेने के लिए संगठित किया। 25 दिसंबर को, मास्को में क्रेमलिन के ऊपर से हथौड़ा और दरांती के साथ कम्युनिस्ट लाल झंडा उतारा गया।
निष्कर्ष
मौजूदा साम्राज्यवादी व्यवस्था के प्रवक्ता और विचारक सोवियत संघ के पतन का इस्तेमाल यह ऐलान करने के लिए करते हैं कि ”कम्युनिज्म ख़त्म हो चुका है“, जैसे कि अब आगे विश्लेषण करने के लिए और कुछ नहीं है। वे नहीं चाहते कि लोग सोवियत संघ के उत्थान और पतन के कारणों का गंभीरता से अध्ययन करें क्योंकि वे नहीं चाहते कि लोग साम्राज्यवादी व्यवस्था के वास्तविक विकल्प की तलाश करें।
सोवियत संघ के घटनाक्रमों के गहरे विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि यह सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा मार्क्सवाद-लेनिनवाद के साथ विश्वासघात है जिसके कारण समाजवाद का विनाश हुआ और सोवियत संघ का अंतिम विघटन हुआ। सर्वहारा वर्ग संघर्ष के रास्ते से भटकने से पूंजीवादी आर्थिक संबंधों की बहाली हुई और सोवियत संघ एक समाजवादी राज्य से एक सामाजिक-साम्राज्यवादी राज्य में परिवर्तित हो गया। यह वह शोषक और दमनकारी व्यवस्था और राज्य है जिसका संकट और भी गहरा होता गया और अंततः दिसंबर 1991 में सोवियत संघ टुकड़े-टुकड़े हो गया।
संकटग्रस्त पूंजीवादी व्यवस्था का एकमात्र वास्तविक विकल्प वैज्ञानिक समाजवाद ही है। वर्तमान समय की मांग है कि वैज्ञानिक समाजवाद और सर्वहारा वर्ग संघर्ष के रास्ते से भटकने की वकालत करने वालों के खि़लाफ़ एक बिना किसी समझौते वाला संघर्ष छेड़ते हुए कम्युनिस्टों को मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विज्ञान की रक्षा और आगे विकास करना चाहिए।