स्कूल-कॉलेजों के छात्र और नौजवान देश की राजधानी में सड़कों पर इंसाफ मांगने उतरे हैं, एक ऐसी व्यवस्था और शासक वर्ग से इंसाफ मांग रहे हैं, जिसने अपने खुदगर्ज़ हितों को पूरा करने के लिये अधिकांश लोगों के हितों की बलि चढ़ाई है।
स्कूल-कॉलेजों के छात्र और नौजवान देश की राजधानी में सड़कों पर इंसाफ मांगने उतरे हैं, एक ऐसी व्यवस्था और शासक वर्ग से इंसाफ मांग रहे हैं, जिसने अपने खुदगर्ज़ हितों को पूरा करने के लिये अधिकांश लोगों के हितों की बलि चढ़ाई है।
65 वर्ष पहले जब देष आज़ाद हुआ था तब अधीन लोगों को, सभी के अधिकारों का आदर करने वाले एक नये समाज को बनाने की सम्भावना की उम्मीद थी। परन्तु 65 वर्ष बाद भी, आधी आबादी के सबसे मौलिक अधिकार की मांग लेकर लोगों को सड़कों पर उतरना पड़ रहा है – महिलाओं के आत्मसम्मान का अधिकार।
16 दिसम्बर को दिल्ली में चलती बस में एक युवती के भयंकर बलात्कार और उस पर व उसके मित्र पर हमले की ओर सरकार की प्रतिक्रिया, लोगों के प्रति हिन्दोस्तानी शासक वर्ग की उदासीनता को दर्शाती है। पहली बात यह है कि इस हादसे के बाद कुछ भी सरकारी प्रतिक्रिया नहीं हुई। परन्तु सरकार ने इस आपराधिक हरकत के विरोध में नौजवान आबादी के इतने बड़े स्तर के जनप्रदर्शनों का अन्दाजा नहीं लगाया था। मीडिया में अपराध की रिपोर्ट आने के एक दिन के अंदर ही राजधानी में विरोध प्रदर्शनों का तूफान छा गया और यह देश के अन्य शहरों में भी फैल गया। दिल्ली में, प्रदर्शनकारियों ने राजपथ पर इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन तक विरोध प्रदर्शन किये और सोनिया गांधी के घर के सामने भी प्रदर्शन किये।
इसके बाद सरकार की क्या प्रतिक्रिया थी? उसने प्रदर्शनकारियों पर लाठियां बरसाईं और उनकी हिम्मत तोड़ने के लिये पानी की बौछार व आंसू गैस के गोले फैंके। उसकी मुख्य चिंता थी कि प्रदर्शनकारियों की जुलूस राष्ट्रपति भवन के परिसर के मुख्य द्वार पर न पहुंच जाये, या दौरे पर आये रूसी राष्ट्रपति को इसी राजधानी में दो नौजवानों पर हुई अपराधी हरकत की भनक न पड़ जाये। प्रदर्शन के पांचवें दिन, पुलिस को उकसाने व गाडि़यों की तोड़फोड़ करने तथा हिंसक कार्यवाइयां करने के लिये, जानबूझकर गुंडों को प्रदर्शनकारियों के बीच लगाया गया। पुलिस इसी के इंतजार में थी और उन्होंने अपना क्रोध बेगुनाह प्रदर्शनकारियों पर बरसाया।
परन्तु, इससे नौजवानों के उत्साह में कमी नहीं आयी। उनका दृढ़ संकल्प है कि जब तक सरकार शहर की महिलाओं की सुरक्षा के ठोस कदम नहीं उठाती, वे अपना विरोध प्रकट करते रहेंगे। प्रधान मंत्री, दिल्ली की मुख्य मंत्री या गृह मंत्री द्वारा उन्हें शांत कराने के प्रयासों से वे सहमत नहीं हैं। वे ऐसे आश्वासनों को सुनने के लिये तैयार नहीं हैं जो वे अपने अनुभव से जानते हैं कि सिर्फ दिखावे हैं। यह भी साफ है कि वे अपने आंदोलन को गुमराह करने के किसी भी राजनीतिक पार्टी के कदमों को मंजूरी नहीं दे रहे हैं।
अपने देश में यौन अपराधियों को सज़ा देने के लिये कानूनों की कमी नहीं है। फिर भी सच्चाई यह है कि बहुत ही कम गुनहगारों को सज़ा मिलती है, या उन पर मुकदमा चलता है। हिन्दोस्तान के दूसरे शहरों की तरह दिल्ली में भी अपराधी गुट और गुंडे आज़ादी से घूमते हैं और लोगों को आतंकित करते हैं। वे सज़ा से बेफिकर होकर अपनी कार्यवाइयां करते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उन्हें कोई पकड़ेगा नहीं और न ही उन्हें कोई सज़ा होगी। मौजूदा व्यवस्था में अमीर व शक्तिशाली लोगों को ऐसे अपराधियों की आवश्यकता होती है – चाहे इनका इस्तेमाल राजनीतिक पार्टियों के लिये वोट बटोरने के लिये हो, या बस्तियों या भू-माफि़या के आदेशों पर लोगों को बेघर करने के लिये हो, या पूंजीपतियों के पक्ष में हड़ताली मज़दूरों पर हमले करने के लिये हो, या साम्प्रदायिक जनसंहार, आदि में भाग लेने के लिये हो, ताकि उनका राज चलता रहे। पुलिस की जानकारी व राजनीतिक शक्तिशाली लोगों की शह के बिना अपराधी गुंडे टिक ही नहीं सकते हैं।
इस संदर्भ में, महिलाओं को आसानी से निशाना बनाया जाता है। हिन्दोस्तानी समाज में आज तक सामाजिक क्रांति नहीं हुई है, अतः हमारे समाज ने अपने मध्यकालीन अतीत से नाता नहीं तोड़ा है। जाति प्रथा तथा पिछड़ी धार्मिक रीतियों के साथ पिछड़े सामाजिक रीति-रिवाजों के ज़रिये, मौजूदा समाज में महिलाओं को दबाया-कुचला जाता है। उपनिवेशवादी समय, जब पूंजीवाद पनप रहा था, तब से लेकर वर्तमान तक, जब पूंजीवाद और अधिक विकसित हो गया है, पूंजीपतियों के लिये जाति प्रथा व महिलाओं के खिलाफ़ भेदभाव जैसे मध्यकालीन रीति-रिवाजों को बरकरार रखना फायदेमंद रहा है। इस तरह वे सभी लोगों के शोषण को और तीव्रता से कर सकते हैं।
पूंजीवाद में पितृसत्ता महिलाओं को उनके न्यायसंगत स्थान से वंचित रखती है। इस बहुत ही असमान समाज में महिलाएं सबसे अधिक भेदभाव से त्रस्त लोगों में शामिल हैं। उन्हें बार-बार बताया जाता है कि “अपनी औकात मत भूलो।” “सीमा पार” करने के लिये उन्हें अपमानित किया जाता है और उन पर हमले किये जाते हैं। उन्हें अपने निजी जीवन के फैसलों में भी पूछा नहीं जाता और उनके खिलाफ़ सभी अपराधों के लिये उन्हें खुद को ही दोषी ठहराया जाता है! साथ ही, पूंजीवादी व्यवस्था में यौन विलासिता के लिये नौजवान लड़कियों और लड़कों को प्रताडि़त किया जाता है। इसके चलते, कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि महिलायें देश की राजधानी में भी सुरक्षित महसूस नहीं कर सकती हैं।
जब हिन्दोस्तानी शासक वर्ग दावा करता है कि वे एक आधुनिक समाज के शीर्ष पर हैं, तब वे तकनीकी-औद्योगिक विकास, वित्तीय बाजारों और व्यापारिक कार्यवाइयों की बहुत ही संकीर्ण दायरे की बात करते हैं, जिनसे वे अपने निवेश पर अधिकतम मुनाफे पाते हैं। उन्हें मनुष्यों के आत्मसम्मान और कल्याण की कोई चिंता नहीं होती; महिलाओं के निम्न दर्जे के बारे में उन्हें रत्ती भर भी चिंता नहीं है।
एक समाज जो महिलाओं को अधीन रखता है उसमें पुरुषों की भी इज्जत नहीं होती है। कोई भी समाज कितना अग्रिम है यह महिला मुक्ति के स्तर में देखा जा सकता है। अगर समाज महिलाओं की सुरक्षा और आत्मसम्मान सुनिश्चित नहीं कर सकता, तथा उनके खिलाफ़ हिंसा को माफ करता है या होने देता है, तो उस समाज में मूलभूत परिवर्तन की सख्त जरूरत है! हम सब, जो महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा के बढ़ते हादसों से नाराज़ हैं, हमें एक नयी व्यवस्था के लिये काम करना होगा जिसमें सभी के मानव अधिकार सुनिश्चित होंगे तथा एक भी ऐसा हादसा सहा नहीं जायेगा। महिलाओं को इस संघर्ष में सबसे आगे होना होगा, क्योंकि महिला मुक्ति पूरे समाज की मुक्ति की षर्त है। हमारे संघर्ष का यही नज़रिया है – एक समाज जहां महिलाओं व पुरुषों, दोनों का सम्मान हो और सभी मनुष्य आत्मसम्मान के साथ रह सकें।