रेजिडेंट डॉक्टरों की दुर्दशा दिखाती है कि राज्य को लोगों के स्वास्थ्य की कोई चिंता नहीं है

2021 का साल दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना सहित पूरे हिन्दोस्तान में रेजिडेंट डॉक्टरों की एक बड़ी हड़ताल के साथ समाप्त हुआ। रेजिडेंट डॉक्टरों को हर समय अस्पतालों में मरीजों की देखभाल करने की बड़ी ज़िम्मेदारी निभानी पड़ती है। लेकिन कोरोना की महामारी के समय में संक्रमित मरीजों की देखभाल करने का बोझ उन पर कई गुना बढ़ गया है। एक तरफ सरकार ने जनता से आग्रह किया कि वह डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्य कर्मचारियों के लिए “ताली बजाए” और उन्हें “कोरोना योद्धा” के रूप में सम्मान दे। लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार ने डाक्टरों की समस्याओं के प्रति कोई चिंता नहीं दिखाई है, जिसके चलते उन्हें सड़कों पर उतरना पड़ रहा है।

रेजिडेंट डॉक्टर हड़ताल पर क्यों गए?

400_doctors-strike2रेजिडेंट डॉक्टरों के गुस्से का तात्कालिक कारण यह है कि 50,000 से अधिक खाली पदों पर नए लोगों की नियुक्ति नहीं की जा रही है। जिसकी वजह से वर्तमान में काम कर रहे डाक्टरों पर काम का अत्यधिक बोझ पड़ रहा है। यह समस्या पूरी तरह से स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा के लिए नीट (राष्ट्रीय-पात्रता सह प्रवेश) परीक्षा के संचालन के लिए एक सुसंगत नीति लाने में सरकार की विफलता के कारण पैदा हुई है। कोरोना महामारी का हवाला देते हुए परीक्षा को दो बार, जनवरी 2021 से अप्रैल तक और फिर सितंबर तक के लिए स्थगित किया गया था – अंत में इसे सितंबर में आयोजित किया गया। फिर सीटों के आरक्षण पर सरकार की नीति में बदलाव और अदालतों के हस्तक्षेप के कारण, स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा संस्थानों में सीटों को भरने के लिए काउंसलिंग में बहुत देरी हुई है। चूंकि काउंसलिंग में देरी हुई, इसलिए पीजी मेडिकल के प्रथम वर्ष के छात्रों को प्रवेश नहीं दिया जा सका, जिसका चिकित्सकों की संख्या पर बुरा असर हुआ है, क्योंकि प्रथम वर्ष के पीजी रेजिडेंट डॉक्टरों की संख्या कुल डॉक्टरों की संख्या का 33 प्रतिशत हिस्सा है।

नतीजतन, मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश करने वालों का कोई नया बैच नहीं है जो प्रथम वर्ष के रेजिडेंट डॉक्टरों के रूप में कार्य करेंगे और मरीजों की देखभाल के काम में मदद करेंगे। इस प्रकार रेजिडेंट डॉक्टरों के मौजूदा ग्रुप को ही मरीजों की देखभाल का अतिरिक्त बोझ उठाने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

विरोध कर रहे रेजिडेंट डॉक्टरों की मांग थी कि सरकार पहले मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए काउंसलिंग प्रक्रिया की अनुमति दे और नीति में बदलाव बाद में किया जाए।

रेजिडेंट डॉक्टर विशेष रूप से पिछले दो वर्षों से जबरदस्त तनाव में जी रहे हैं। वे 18 घंटे की शिफ्ट में काम करने के लिए मजबूर हैं, यहां तक कि उनके खाने-पीने या अवकाश लेने की भी कोई उचित व्यवस्था नहीं है। चूंकि कोविड-19 के मामले में अस्पताल में भर्ती होने की आवश्यकता पिछले एक साल के दौरान बहुत बढ़ी है और मरीजों के देखभाल करने की ज़िम्मेदारी, नर्सों, वार्ड-अटेंडेंट और अन्य चिकित्सा-कर्मचारियों के साथ-साथ मुख्य रूप से रेजिडेंट डॉक्टरों पर ही है। हालांकि, वे जो अमूल्य काम कर रहे हैं, उसके लिए उन्हें बहुत ही कम वेतन दिया जाता है और महामारी के दौरान तो कई लोगों को या तो वेतन प्राप्ति में विलम्ब या बहुत ही कम वेतन मिलने की स्थिति का सामना करना पड़ा है। वे खुद को और अपने परिवार को संक्रमण के दौरान सबसे बड़े जोखिम में डालते हुए काम कर रहे थे, लेकिन ज्यादातर अस्पतालों में उन्हें पर्याप्त सुरक्षा उपकरण भी नहीं दिए गए थे। ऐसे हालातों में रेजिडेंट डॉक्टरों के नए बैच को शामिल करने में होने वाली अनिश्चितकालीन देरी ने उनके धैर्य और सहनशीलता की सीमाओं को पूरी तरह से तोड़ दिया। रेजिडेंट डॉक्टरों ने सरकार और स्वास्थ्य अधिकारियों को कई बार नोटिस दिया, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। फिर, जब डॉक्टर आखिरकार सड़कों पर उतर आए, तो उनमें से कुछ डॉक्टरों को बेरहमी से पीटा गया और पुलिस थाने ले जाया गया, जैसा कि 27 दिसंबर को दिल्ली में हुआ था।

स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा के इच्छुक डॉक्टरों को कई महीनों तक उनके भविष्य को लेकर बड़ी अनिश्चितता में रखने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने 7 जनवरी, 2022 को एक अंतरिम आदेश में, 2021 के नीट-पीजी परीक्षा के लिए काउंसलिंग को फिर से शुरू करने की अनुमति दी।

रेजिडेंट डॉक्टरों द्वारा सामना की जाने वाली समस्या, सार्वजनिक स्वास्थ्य-सेवा व्यवस्था में, पिछले कई वर्षों से राज्य की घोर उपेक्षा की बड़ी समस्या का ही एक हिस्सा है। सरकार अधिकांश अन्य देशों की तुलना में, प्रति व्यक्ति की स्वास्थ्य सेवा पर या सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में, बहुत कम खर्च करती है, यहां तक कि कई ग़रीब देशों से भी कम। सरकारों के कई बदलावों के बावजूद भी इस अनुपात में कोई बदलाव नहीं आया है। शासक वर्ग के लिए, लोगों के स्वास्थ्य और खुशहाली को सुनिश्चित करना, उसकी प्राथमिकताओं में नहीं आती है। इसके अलावा, स्वास्थ्य सेवा और चिकित्सा शिक्षा को भी, निजी हाथों में सौंपने की एक जानबूझकर बनाई गयी नीति चलती आ रही है – इसको एक ऐसे क्षेत्र के रूप में बदलने के लिए जहां पूंजीपति अधिकतम मुनाफ़ा कमा सकते हैं। इतनी बड़ी संख्या में ग़रीब लोगों वाले देश में यह किसी जघन्य अपराध से कम नहीं है। यह स्पष्ट है कि महामारी से निपटने के लिए अपर्याप्त बुनियादी ढांचे के कारण आम लोगों पर हुई भारी पीड़ा से सीखे गए सबक के बावजूद, सरकार के रवैये और नीतियों में कुछ भी नहीं बदला है।

स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को जायज़ ठहराने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को बिगाड़ने की शासक वर्ग की सोची-समझी नीति के खि़लाफ़, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के डॉक्टरों का विरोध संघर्ष पूरी तरह जायज़ है।

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