यह लेख बाबरी मस्जिद के विध्वंस के एक महीने पहले हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के 1 नवम्बर, 1992 के बुलेटिन में प्रकाशित किया गया था।
यह लेख बाबरी मस्जिद के विध्वंस के एक महीने पहले हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के 1 नवम्बर, 1992 के बुलेटिन में प्रकाशित किया गया था।
केंद्र सरकार के तहत, विश्व हिन्दू परिषद एवं आल इंडिया बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के बीच जो वार्तालाप शुरू किया गया है, क्या उससे अयोध्या विवाद के समझौते का कोई हल मिलेगा? उन दोनों के बीच दो बार चर्चा हो चुकी है, और दोनों को अपने-अपने दावों के समर्थन में आवश्यक दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के लिए 23 अक्तूबर अंतिम तारीख तय हो चुकी है। 29 अक्तूबर तक दोनों को केंद्र सरकार के सामने अपना जबाब रखना है। इस दौरान केंद्र सरकार ने जिम्मेदारी ली है कि दो दशक पहले अयोध्या के विवादास्पद स्थान पर जो खुदाई की गयी थी उसमें पाई गयी वस्तुओं व संबंधित दस्तावेज़, वह दोनों को उपलब्ध कराएगी।
प्रधानमंत्री ने ऐसे निर्देश दिए हैं कि 26 नवम्बर के पहले, देशभर के अलग-अलग न्यायालयों में अयोध्या के मसले से जुड़े सभी मुकद्दमें एक साथ करने का अपना काम केंद्र सरकार पूरा करेगी। मगर इस समस्या का समाधान किस तरह का होगा, इस बारे में वे कुछ भी नहीं कह रहे हैं। उन्होंने यह भी घोषित किया है कि जब तक दोनों पक्ष यह वचन नहीं देते हैं कि वे न्यायालय का फैसला मानेंगे, तब तक सर्वोच्च न्यायालय के विशेष न्यायपीठ के सामने यह मुकद्दमा नहीं रखा जायेगा।
बदले का रास्ता
केंद्र सरकार की रणनीति जिन सिद्धांतों पर आधारित है उससे इस विवाद पर न्यायोचित तथा स्थाई हल नहीं मिल सकता। क्योंकि अयोध्या का मुद्दा, आज जिस मुकाम पर है, वह धार्मिक या न्यायिक समस्या नहीं है। वह एक ऐसी समस्या है जिससे हमारे लोगों का भविष्य जुड़ा है, चाहे वे किसी भी धर्म या संप्रदाय के हों। हिन्दू, मुसलमान, सिख, इसाई, बौद्ध धर्मी, आस्तिक, नास्तिक, सभी के भविष्य पर इस समस्या का असर होगा। इस विवाद का असर हम राजनीति के अपराधीकरण, बढ़ता कट्टरतावाद, एवं पूरे देशभर में बड़े पैमाने पर खून-खराबा होने के बढ़ते खतरे में देख सकते हैं।
क्या ऐतिहासिक या पुरातत्विक तथ्यों को सिद्ध करने से अयोध्या का विवाद सुलझाया जा सकता है? अगर यह विवाद इतिहासकारों और पुरातत्वविदों के बीच होता तो शायद उस तरह सुलझाया जा सकता था। मगर अब विवाद उससे कहीं ज्यादा पेचीदा हो गया है। अगर यह सिद्ध किया भी जाये कि वहां पर पहले कोई मंदिर था या वह राम का जन्मस्थान था, तब भी उस आधार पर पूरे देश का जीवन सांप्रदायिक बनाने का समर्थन नहीं किया जा सकता है? अगर यह साबित भी किया जा सके कि बाबर के सेनापति ने अयोध्या स्थित मंदिर को ध्वस्त किया था, तो क्या उसकी सज़ा आज मुसलमानों को देनी चाहिये? क्या मस्जिद को ध्वस्त करने से लोगों की भलाई होगी? यह रास्ता तो सिर्फ प्रतिशोध लेने का रास्ता होगा और उससे बड़े पैमाने पर मानवीय हत्याकांड और खून-खराबे का रास्ता खुलेगा। अगर इस तरह से इतिहास का पुनः परीक्षण किया जायेगा तो सिर्फ मुसलमान ही नहीं बल्कि दूसरे भी कई संप्रदायों के लोग हिंसा तथा नफ़रत के शिकार होंगे। फिर इस तरह से ऐतिहासिक तथा पुरातत्विक प्रमाण खोजने के पीछे क्या मकसद है?
इसीलिए यह मसला केवल एक मंदिर बनाने का नहीं है मगर उससे कहीं ज्यादा उलझा हुआ एवं विस्फोटक है। इस मुकद्दमें की पिछली सुनवाई में, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश ने भी कहा था कि यह केवल तकनीकी विवाद नहीं है बल्कि एक सामाजिक तथा राजनीतिक सवाल है। अलग-अलग समय पर सरकार के विभिन्न मंत्रियों ने भी यही राय दी है। आम लोगों को सताने वाले असली मुद्दों पर एवं चिंताओं पर केंद्र सरकार ध्यान क्यों नहीं देती? अधिकांश आम लोग जिंदगी के साम्प्रदायिकरण, नफ़रत के भड़कावे, तथा खौफ़ और असुरक्षा के माहौल से चिंतित हैं। मगर ऐतिहासिक तथा पुरातत्विक सबूतों का इस्तेमाल करके केंद्र सरकार तनाव का वातावरण और बढ़ा रही है। प्रतिशोध लेने के रास्ते को केंद्र सरकार वैधता एवं औचित्य प्रदान कर रही है।
भाजपा जिस रास्ते की वकालत कर रही है वह विशेषकर खतरनाक है। एक तरफ वह पुरातत्विक खोजबीन का सर्मथन कर रही है और दूसरी तरफ उसके नेतागण यह भी ऐलान कर रहे हैं कि, उस जगह पर मंदिर था या नहीं, तथा वह श्रीराम का जन्मस्थान था या नहीं, यह श्रद्धा का मामला है। भाजपा नेता तथा संसद में विपक्ष के नेता, लालकृष्ण अडवानी ने बार-बार यह ऐलान किया है कि, आज जहां पर मस्जिद है ठीक उसी जगह पर मंदिर बनाया जाना चाहिए। भाजपा ने यह भी ऐलान किया है कि समस्या केवल अयोध्या की नहीं है बल्कि हिन्दुओं की खोई हुई शान को फिर प्रस्थापित करने की बड़ी समस्या का एक हिस्सा है। हिन्दोस्तान की समस्याओं के लिए भाजपा मुसलमानों को जिम्मेदार बताती है। हिन्दोस्तान की सभी समस्याओं के लिए इस तरह ’अल्पसंख्यकों’ को जिम्मेदार ठहराने का यह जो रास्ता भाजपा अपना रही है, वह सभी लोगों की तबाही का रास्ता है। यह नीति न तो हिन्दोस्तान की “खोई हुई शान” लौटाएगी और न ही “हिन्दुओं की प्रतिष्ठा”, बल्कि हमारे देश को मध्ययुगीन असभ्यता के युग में धकेलेगी, इससे भाई-भाई का क़त्ल करेंगे तथा हमारी जनता प्रतिक्रियावादी शक्तियों की गुलाम बनेगी। इन सवालों पर भाजपा के समर्थकों को भी सोचना चाहिए। प्रतिशोध के रास्ते पर चलकर किसका फायदा होगा?
राज्य द्वारा हिंसा एवं विधिवादिता
दूसरे एक रास्ते का सुझाव दिया जा रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय से एक फैसला घोषित किया जाये, जो विवाद करनेवाले दोनों पक्षों पर बाध्यकारी हो। यह भी कहा जा रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला हर हालत में, राज्य की पूरी शक्ति के साथ, और अगर जरूरत हो तो उसे विरोध करने वालों पर हिंसा का उपयोग करके, तथा अगर राज्य सरकार उस फैसले को लागू करने से इंकार करे, तो केन्द्रीय सुरक्षादलों की मदद से, लागू किया जाना चाहिये।
इस समस्या की शुरुआत कैसे हुई यह जिन्हें मालूम है, उन्हें यह स्पष्ट है कि अयोध्या में मंदिर बनाना यह “कानून एवं सुव्यवस्था” की समस्या नहीं है। न ही यह केवल किसी संपत्ति पर किसी का मालिकाना हक प्रस्थापित करने वाला कोई मसला है जो न्यायालय में प्रस्थापित किया जा सकता हो। अगर वह इतना सामान्य सवाल होता तो उसे आज जितना राष्ट्रीय तथा राजनीतिक महत्व प्राप्त हुआ है वह नहीं होता था।
जो न्यायालय के ज़रिये हल का सुझाव दे रहे हैं और हिंसा का समर्थन करते हैं वे संकुचित विधिवादिता के फंदे में फंस रहे हैं। तथाकथित न्यायालय के फैसले के आधार पर राज्य द्वारा हिंसा से सांप्रदायिक जद्दोजहद खत्म नहीं होगी। बल्कि सांप्रदायिक भावनाएं और भड़कंेगी एवं ज्यादा सांप्रदायिक कत्लेआम होंगे। कट्टर सांप्रदायिक शक्तियों को इससे लाभ होगा। इस भूमिका के समर्थक पेड़ पर ध्यान देने की वजह से जंगल को नहीं देख पा रहे हैं। अपने देश के बहुत से लोगों की नज़रों में न्यायालयों सहित राज्य के दूसरे संस्थानों की विश्वसनीयता खत्म हुई है। बिना पक्षपात किये वे न्याय देते हैं, ऐसा लोग नहीं मानते हैं। अतीत में कई बार न्यायालयों का उपयोग अलग-अलग समुदायों की धार्मिक भावनाओं का अपमान करके, संकीर्ण पक्षपाती हितों की रखवाली करने तथा सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने के लिए किया गया है। 1986 में फैजाबाद न्यायालय ने उस इमारत को हिंदुओं द्वारा पूजा के लिए खोल दिया था, जबकि दोनों में से किसी भी संप्रदाय के लोग इस इमारत का उपयोग 40 वर्ष से अधिक से प्रार्थना के लिए नहीं कर रहे थे। कांग्रेस पार्टी के संकुचित चुनावी तथा दूसरे उद्देश्यों के लिए, राजीव गांधी ने न्यायालय पर स्वयं दबाव डाला था, ऐसा कई लोगों का मानना है। फिर से नवम्बर 1990 में वी. पी. सिंह तथा मुलायम सिंह ने उच्च न्यायालय के निर्माण कार्य पर पाबंदी लगाने के फैसले के आधार कारसेवकों तथा कई दूसरों पर गोलियां बरसाने का आदेश दिया। जिससे समस्या और भी ज्यादा उलझ गई। एक बार फिर भावनाएं भड़काने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दुरुपयोग नहीं किया जायेगा इसकी क्या गारंटी है? जिन्हें इस समस्या पर न्यायोचित तथा शांतिपूर्ण समाधान चाहिए, उन्हें विधिवादिता अथवा संविधानवाद में नहीं फंसना चाहिए। उन्हें ऐसे प्रस्तावों का सुझाव देना चाहिए जिनसे आम जनता निर्णायक भूमिका अदा कर सकेगी ताकि इस समस्या का स्थाई एवं शांतिपूर्ण समाधान हो सके।
इस समस्या की चर्चा को केवल तकनीकी स्तर पर सीमित रखकर केंद्र सरकार एक स्थाई समाधान का रास्ता रोक रही है। स्थाई समाधान में रुचि होने का केंद्र सरकार केवल नाटक कर रही है जबकि असलियत में, भविष्य में फिर से परिस्थिति भड़काने के लिए आवश्यक सारे ताश के पत्ते वह अपने हाथों में रखना चाहती है। अतीत में हमारा यही तजुर्बा रहा है और लोगों को उससे सबक सीखना चाहिए।
लोगों के सीमांतीकरण के खिलाफ़
एक महत्वपूर्ण सामाजिक एवं राजनीतिक सवाल पर आम लोगों को दरकिनार किया जा रहा है। विश्व हिन्दू परिषद एवं आल इंडिया बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी, ये हिन्दुओं तथा मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं ऐसा केंद्र सरकार ने मान लिया है। यह किस बलबूते पर किया गया है? दोनों संप्रदाय के बहुसंख्य लोग दोनों में से किसी भी संगठन से जुड़े नहीं हंै। फिर उन संगठनों को लोगों की ओर से समझौते के लिए बातचीत क्यों करनी चाहिए? कई दूसरे मामलों में भी ऐसा हुआ है और इसीलिए समस्याओं का समाधान नहीं होता और अलग-अलग संप्रदाय के लोग असंतुष्ट रहते हैं। यह कोई मासूम दावपेंच नहीं है। आम लोगों को दरकिनार करना ताकि वे समस्याओं के समाधान के लिए किसी की राह देखते रहें, जबकि सत्ता में बैठे लोग, आम लोगों के लिए नयी त्रासदियों की तैयारी करें।
आम लोग और उनके जनसंगठनों के लिए आवश्यक है कि वे इस विवाद पर जारी चर्चा में सक्रिय भाग लें और उस चर्चा के केंद्र में आयें। आम लोगों को जिस बारे में चिंता है उन्हें उठायें और चर्चा को इधर-उधर भटकने से रोकें। अयोध्या विवाद पर शांतिपूर्ण, न्यायोचित तथा स्थायी समाधान कैसे निकाला जा सकता है? दूसरे संबंधित सवालों पर भी चर्चा छेड़ना जरूरी है, जैसे कि, सांप्रदायिक हिंसा पर कैसे रोक लगायी जाये? उस मामले में राज्य की क्या जिम्मेदारी है? अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की इस विवाद पर क्या भूमिका है, फिर चाहे वे खुद को धर्म-निरपेक्ष कहें, या रूढ़ीवादी कहें, या धर्मवादी कहें, इस पर भी चर्चा छेड़ें।
आम लोगों के सभी तबकों के संगठनों को इस चर्चा में शामिल होना और अपने सुझाव रखना आवश्यक है। जब मसला लोगों के आपसी सम्बन्ध तथा राज्य और लोगों के बीच सम्बन्ध का होता है तब सभी को अपने विचार रखना लाजमी है। केवल राजनीतिक पार्टियां, विश्व हिन्दू परिषद, आल इंडिया बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ही नहीं, बल्कि ट्रेड यूनियनों, महिला संगठनों, युवा संगठनों, पर्यावरण के बारे में चिंतित संगठनों, सामाजिक तथा सांस्कृतिक संगठनों, बुद्धिजीवियों, आदि सभी को, मिलकर एक ऐसी सांझी भूमिका बनानी चाहिए, जिससे आम लोगों के हित और खुशहाली की रक्षा होगी। लोगों को अपना मतप्रदर्शन तथा संकल्प प्रस्थापित करना ही चाहिए और राज्य द्वारा उसे खत्म नहीं करने देना चाहिए।