मज़दूर-विरोधी और किसान-विरोधी संप्रग सरकार मुर्दाबाद! संसद इजारेदार पूंजीपतियों का साधन है! मज़दूरों और किसानों की हुकूमत स्थापित करने के लिये संघर्ष करो!

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान 13 दिसम्बर, 2012

मज़दूर साथियो!

जब हम मनमोहन सिंह सरकार के आर्थिक हमले के खिलाफ़ अपने एकजुट विरोध की तैयारी कर रहे हैं, हमें संसद में हो रही गतिविधियों पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देने की और उससे उचित राजनीतिक सबक सीखने की जरूरत है।

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान 13 दिसम्बर, 2012

मज़दूर साथियो!

जब हम मनमोहन सिंह सरकार के आर्थिक हमले के खिलाफ़ अपने एकजुट विरोध की तैयारी कर रहे हैं, हमें संसद में हो रही गतिविधियों पर गंभीरतापूर्वक ध्यान देने की और उससे उचित राजनीतिक सबक सीखने की जरूरत है।

मल्टीब्रांड खुदरा व्यापार में आधे से अधिक विदेशी मालिकी का नीतिगत फैसला, बड़े हिन्दोस्तानी पूंजीपति घरानों और विदेशी खुदरा कारोबार की श्रृंखलाओं के हित में है। वाल-मार्ट और कारेफोर जैसी वैशिवक विशालकाय खुदरा व्यापारी कंपनियां हिन्दोस्तानी बाजार में आने के लिये आतुर हैं, जब उत्तरी अमरीका और यूरोप के देशों में उपभोक्ताओं द्वारा खरीदी मंद है। खुदरा कारोबार में मौजूद हिन्दोस्तानी पूंजीपति घराने उनके साथ में भागीदारी के लिये आतुर हैं।

इस नीति का प्रस्ताव भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार ने 10 वर्ष पहले रखा था। उस वक्त, सत्ताधारी क्षेत्रीय पार्टियों के व्यापक विरोध की वजह से, जिसमें उसके गठबंधन की भी कुछ पार्टियां शामिल थीं, वे आगे नहीं बढ़ पाये थे।

टाटा, रिलायंस, बिड़ला, भारती के नेतृत्व में हिन्दोस्तानी पूंजीपति घराने भी 10 वर्ष पहले मल्टीब्रांड खुदरा कारोबार में एफ.डी.आर्इ. को न आने देने में रुचि रखते थे। इस फायदेमंद कारोबार में अपने पैर जमाने का वे पहले थोड़ा समय चाहते थे। अपने-आप एक दशक कोशिश करने के बाद, सबको मिलाकर, उन्हें बाजार का सिर्फ 5 प्रतिशत हिस्सा ही मिल पाया है। अब वे वैशिवक दैत्यों के साथ भागीदारी के ज़रिये तेज़ी से अपना हिस्सा बढ़ाना चाहते हैं। संप्रग सरकार अब गीत गा रही है कि इससे खाध पदार्थों की बढ़ती कीमतों की समस्या का हल निकलेगा और खराब होने वाली वस्तुयें कम बर्बाद होंगी।

इस नीतिगत फैसले का विरोध दो तरफ से हो रहा है। एक तरफ मज़दूर, किसान व छोटे दुकानदार हैं और दूसरी तरफ थोक व्यापार के पूंजीपति व्यापारियों के विभिन्न तबके व बड़े स्तर के व्यापारी हैं जो आज कृषि व औधोगिक वस्तुओं के व्यापार में हावी हैं।

2011 में, संप्रग सरकार ने वादा किया था कि वह संसद में इस मुद्दे पर एकमत बनायेगी। परन्तु, हिन्दोस्तानी पूंजीपति व वाल-मार्ट की तरफ से अमरीकी दबाव के साथ, विदेशी पूंजीपतियों के आग्रह पर, मनमोहन सिंह के मंत्रीमंडल ने सितम्बर 2012 में यह नीतिगत फैसला ले लिया। साथ ही, इसे क्षेत्रीय पूंजीपतियों के अनुकूल बनाने के लिये, उन्होंने राज्य सरकारों को छूट दी कि अपने-अपने क्षेत्रों में इसे वे कब लागू करना चाहते हैं इसका फैसला वे खुद ले सकते हैं।

भाजपा जो मूलरूप से खुदरा व्यापार में एफ.डी.आर्इ. के विरोध में नहीं है, उसने अपनी प्रधान प्रतिस्पर्धि कांग्रेस पार्टी को कमज़ोर और बदनाम करने के लिये विरोधी लहर पर सवारी करने का फैसला लिया। उसने संसद में चर्चा और मतदान करवाने का हठ किया और मंत्रीमंडल के फैसले को उलटने का प्रस्ताव रखा।

पशिचम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, तमिलनाडु तथा दूसरे राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों ने खुदरा व्यापार में एफ.डी.आर्इ. का उस हद तक विरोध किया जिस हद तक वहां के स्थानीय पूंजीपति गुटों को वाल-मार्ट व दूसरे वैशिवक दैत्यों से ख़तरा महसूस हुआ। इनमें से अधिकांश पार्टियां उनके हित में काम कर रही हैं जो उन इलाकों के बाज़ारों की बिक्री में हावी हैं और अपने अधिकार क्षेत्र को इजारेदार निगमों से बचाना चाहते हैं।

जहां तक मज़दूरों और किसानों का प्रश्न है, उनको न तो व्यापार की मौजूदा बनावट व दिशा से लाभ है, और न ही मल्टीब्रांड खुदरा व्यापार में एफ.डी.आर्इ. आने से कोर्इ फायदा है। मज़दूरों को सबिज़यों व फलों के लिये बहुत ही ऊंची कीमत अदा करनी पड़ती है जिसमें किसान उत्पादकों को 15 प्रतिशत भी नहीं मिलता है और बाकी पूंजीपति व्यापारियों तथा बिचौलियों के अनेक स्तरों की जेबों में जाता है।

अपने देश में खराब होनेवाली वस्तुओं की बड़ी मात्रा में बर्बादी को रोकने के लिए शीतघरों की सुविधा के साथ, व्यापार व्यवस्था में आधुनिकीकरण तथा बड़े स्तर पर प्रबंधन की आवश्यकता है। बड़े पूंजीपतियों के अर्थशास्त्री इस झूठे दावे का प्रचार कर रहे हैं कि व्यापार के आधुनिकीकरण का सबसे अच्छा तरीका, इसे सबसे अधिक मुनाफा बनाने वाले निजी निगमों के हाथ में सौंपने का है। इससे बहुत से निजी बिचौलियों की जगह कुछ थोड़ी संख्या के विशालकाय कार्पोरेट बिचौलिये ले लेंगे, जिनके पास मज़दूरों और किसानों को चूसने की अपार शक्ति है।

इसका असली समाधान व सबसे अच्छा विकल्प होगा कि बड़े स्तर पर व्यापार की मालिकी और नियंत्रण का सामाजीकरण किया जाये। इसका मतलब है कि एक सर्वव्यापी आधुनिक सार्वजनिक खरीदी व वितरण व्यवस्था स्थापित की जाये। हाल के वर्षों में मज़दूरों व किसानों के संगठनों की यह एक लगातार मांग रही है। केन्द्र सरकार इससे उल्टी दिशा में चल रही है – व्यापार का निजीकरण करके और उस पर निगमों की इजारेदारी थोप कर।

सर्वव्यापी आधुनिक सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के लिये Ñषि उत्पादों की खरीद पर और थोक के स्तर पर, सरकारी इजारेदारी की जरूरत है। उपभोक्ताओं के अंतिम स्तर तक वितरण के लिये सार्वजनिक व निजी खुदरा कारोबार हो सकते हैं। थोक व्यापार में सरकारी इजारेदारी से सभी खुदरा दुकानों का एक ही स्रोत से माल खरीदना सुनिशिचत होगा।

मज़दूरों, किसानों व समाज के दूसरे मध्यम तबकों की सभी पार्टियों और संगठनों को एकजुट होकर मांग करनी होगी व संघर्ष करना होगा, कि थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण तुरंत हो। इससे मज़दूरों-किसानों की निगरानी व नियंत्रण में सर्वव्यापी व आधुनिक सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के लिये जरूरी शर्त पूरी होगी।

कृषि उत्पादों की खरीद पर किसानों की समितियां व सहकारी समितियां निगरानी रखेंगी। शहरों में राशन की दुकानों, जहां से वस्तुओं की अंतिम बिक्री होती है, उन पर लोगों की समितियों को निगरानी रखनी पड़ेगी। वस्तुओं के व्यापार व वितरण पर निजी इजारेदारों के नियंत्रण का यही विकल्प है।

मज़दूर साथियो!

इजारेदार घरानों के नेतृत्व में पूंजीपति वर्ग इस वक्त एक हमलावर रास्ते पर है। अपने देश की भूमि और श्रम का संयुक्त शोषण तीव्र करने के लिये विदेशी इजारेदारों को अपने देश में पूंजीनिवेश के लिये आमंत्रित किया जा रहा है। साथ ही हिन्दोस्तानी इजारेदार पूंजी का निर्यात कर रहे हैं। इस साम्राज्यवादी दौड़ के समर्थन में नीतियों में सुधार लाया जा रहा है।

संसद के दोनों सदनों में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने जीत हासिल की, हालांकि वहां चर्चा में शामिल अधिकतर वक्ताओं ने मंत्रीमंडल के फैसले का विरोध किया था और वे उसे उलटने के पक्ष में थे। सत्ताधारी पार्टी ने केन्द्रीय वित्तीय संसाधनों व केन्द्रीय जांच ब्यूरो पर अपने कब्ज़े का इस्तेमाल करके, लालच और धमकियों के ज़रिये, समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी का समर्थन पाया था। मतदान के नतीजे का फैसला पीछे के कमरों में तय किया गया था। इससे मनमोहन सिंह के नेतृत्व की संप्रग सरकार के हाथ मजबूत हुये हैं, जो अब घरेलू व विदेशी इजारेदार पूंजीपतियों के हित में, लोगों की रोजी-रोटी व अधिकारों पर हमलों को बढ़ाने की तैयारी कर रही है।

पेंशन निधियों को निजी निगमों के लिये खोलने और इस क्षेत्र में विदेशी मालिकी की शुरुआत करने के विधेयक से मज़दूरों के अधिकारों पर सबसे शीघ्र हमले होने वाले हैं। ये सुधार सेवानिवृतित के बाद पेंशन की सुविधा को "बाज़ार के ख़तरों" से बांध देंगे। यह कानून अपनी खून-पसीने की कमार्इ को पूंजीपति वर्ग द्वारा लूटने के लिये उपलब्ध करायेगा और पूंजीपति घरानों के लिये पूंजी जुटाने के सस्ते स्रोत में परिवर्तित करेगा।

पेंशन सुधार के नाम पर मज़दूर वर्ग पर हमलों की सिथति तैयार करने के लिये संप्रग सरकार पहले अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये पदोन्नति में आरक्षण का एक विधेयक ला रही है। इसका मकसद मज़दूर वर्ग में फूट डालना है और जातियों की भिन्नताओं व उनके बीच स्पर्धा को इस्तेमाल करके ध्यान भटकाना है। साथ ही संसद में मतदान के दौरान कांग्रेस पार्टी को मदद करने के लिये बहुजन समाज पार्टी को इनाम देना है।

ये सब तथ्य क्या दिखलाते हैं? ये दिखलाते हैं कि संसदीय लोकतंत्र, वास्तव में, इजारेदार पूंजीपतियों के नेतृत्व में पूंजीपति वर्ग की हुक्मशाही है।

इजारेदार पूंजीपति नियमित तौर पर प्रमुख राजनीतिक पार्टियों और उनके चुनावी अभियानों को चंदा देते हैं और यह तय करते हैं कि उनके हितों की रक्षा करने वाली पार्टियों में से सिर्फ एक पार्टी के हाथ, सर्वोच्च कार्यकारी ताकत, यानि कि केन्द्रीय मंत्रीमंडल, सौंपा जायेगा।

अलग-अलग क्षेत्रों में पूंजीपति तथा जमींदार अपनी पार्टियां बनाते हैं और राज्य सरकारों में रौब और सत्ता के लिये होड़ लगाते हैं। केन्द्रीय मंत्रीमंडल पर नियंत्रण रखने वाली पार्टी के पास राज्य सरकार चलाने वाली पार्टियों के साथ पेश आने के बहुत से वित्तीय, गुप्तचर और सशक्त हथियार होते हैं ताकि उनको सीमा में रखा जाये।

मंत्रीमंडल की प्रमुख पार्टी एक के बाद एक आदेश निकाल कर राज करती है। संविधान मंत्रीमंडल को कोर्इ भी नीतिगत फैसला लेने की ताकत देता है जब तक उसे संसद में बहुमत प्राप्त हो। अगर कानून में बदलाव की जरूरत नहीं हो तो, उसे संसद की स्वी—ति की जरूरत नहीं होती। नीतिगत फैसलों में आम तौर पर चर्चा और मतदान तभी जरूरी होता है जब संसद में गहरा विभाजन हो और सत्ताधारी खेमें को अपनी लाज बचाये रखने के लिये चर्चा के लिये राजी होना पड़ता है जैसा कि इस बार हुआ।

संसदीय लोकतंत्र की यह व्यवस्था मेहनतकश बहुसंख्या पर एक शोषक अल्पसंख्या की मर्जी थोपने का और शोषकों के आपस बीच परस्पर विरोधों का समाधान निकालने का साधन है। मज़दूर और किसान, जो मिल कर आबादी के 90 प्रतिशत हैं, उनका यहां प्रतिनिधित्व नहीं होता है। इसमें अपने हित की रक्षा नहीं होती है। उन पर हमले होने दिये जाते हैं।

मज़दूर साथियो!

आंग्ल-अमरीकी पद्धति में सोचने वाले डा. मनमोहन सिंह तथा दूसरे अर्थशास्त्री ऐसे बात करते हैं जैसे कि अर्थव्यवस्था इस पर निर्भर है कि दुनिया के सबसे बड़े पूंजीपति अपने देश में कितना निवेश करना चाहते हैं। वे ऐसे बात करते हैं मानों यह पूंजीपति वर्ग ही है जो मज़दूर वर्ग और दूसरे मेहनतकश लोगों को रोजी-रोटी देता है। सच्चार्इ इससे बिल्कुल उल्टी है। मज़दूर, किसान व कारीगर अपने समाज की दौलत बनाते हैं, जबकि पूंजीपति परजीवी हैं जो दूसरों के श्रम पर जीते हैं। वे मेहनतकशों द्वारा बनाया अतिरिक्त मूल्य हड़प लेते हैं।

अत: जब हम सभी मज़दूरों व किसानों के परिवारों के जीवन स्तर में, संकटों व आघातों से सुरक्षा के साथ, लगातार बढ़ोतरी की मांग करते हैं, तब हम सिर्फ अपने द्वारा निर्मित सामाजिक धन दौलत के अपने हिस्से का ही दावा करते हैं। हम उसी की मांग कर रहे हैं जो न्यायसंगति से हमारा है, और यह निशिचत तौर पर संभव है, अगर फैसले लेने की शकित पूंजीपतियों व उनकी विश्वसनीय पार्टियों में संकेदि्रत न हो और मेहनतकश लोगों की बहुसंख्या फैसले ले।

पूंजीवादी अर्थशास्त्री घोषणा करते हैं कि बाजार के सबसे बड़े इजारेदारों के हित में अर्थव्यवस्था को सुधारने के सिवाय कोर्इ और रास्ता नहीं है। मज़दूर वर्ग के राजनेताओं को बेखटके तर्क देना चाहिये कि अर्थव्यवस्था के "बाजार उन्मुख सुधारों का वैकलिपक रास्ता अवश्य है।

विकल्प है कि अर्थव्यवस्था को आबादी की बढ़ती भौतिक व सांस्—तिक जरूरतों को पूरा करने की दिशा में मोड़ा जाये। मेहनतकश लोगों के सामूहिक श्रम द्वारा उत्पादित अतिरिक्त मूल्य का इस्तेमाल आबादी के सुख और उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिये किया जाये।

लोगों और प्राकृतिक पर्यावरण में पूंजी लगाना, न कि उनका शोषण व लूटपाट करना, यह होगी अर्थव्यवस्था का लक्ष्य और प्रेरक शकित। इस उद्देश्य के लिये मौजूद श्रम शकित को पूरा रोजगार मिलेगा। न बेरोजगारी होगी न ही महंगार्इ, और न ही मंदी और अति-उत्पादन या न्यूनतम-उपभोग का कोर्इ संकट।

अर्थव्यवस्था के इस रास्ते को खोलने के लिये जरूरी यह है कि धन-दौलत का उत्पादन करने वाले मेहनतकश लोग ही समाज के मालिक बनें। इसके लिये लोकतांत्रिक व्यवस्था और राजनीतिक प्रक्रिया में गहरे बदलाव की जरूरत है।

हमें एक नये संविधान के आधार पर एक नयी राज्य व्यवस्था की जरूरत है जिसमें लोगों को फैसले लेने वाला माना जाये; तथा मज़दूरों, किसानों के अधिकारों की गारंटी, व सभी वयस्क नागरिकों के बराबरी के राजनीतिक अधिकारों की, राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं व जनजातियों और सभी मनुष्यों के अधिकारों की मान्यता हो।

मौजूदा राजनीतिक प्रक्रिया में, लोगों को उन उम्मीदवारों के बीच चुनाव करना होता है जिनका चयन उनकी अनुमति के बिना किया गया होता है। आज अधिकांश मेहनतकश लोगों की मांग है कि उनकी जिन्दगी पर असर डालने वाले सभी फैसलों में उनकी सुनवार्इ होनी चाहिये। धन-दौलत व विशेषाधिकारों वाली पार्टियों द्वारा ऊपर से थोपे गये उम्मीदवारों के लिये सिर्फ वोट डालने से हम संतुष्ट नहीं हैं।

हमें ऐसे कानूनों व तंत्रों के लिये मांग करना व लड़ना होगा जो प्रत्येक मज़दूर व किसान के चुनने व चुने जाने के अधिकार को सुनिशिचत करें, यानि कि उम्मीदवारों के चयन में हम में से हर एक की सुनवार्इ होनी चाहिये। सभी मज़दूर यूनियनों व अन्य लोगों के संगठनों को अपने उम्मीदवार खड़े करने का अधिकार होना चाहिये। प्रत्येक उम्मीवार का चयन एक सांझी चयन प्रक्रिया के माध्यम से मतदान क्षेत्र में सभी मतदाताओं द्वारा होना चाहिये।

मेहनतकश लोगों को अपने काम के स्थानों पर और रिहायशी इलाकों में संगठित होकर चुनाव के उम्मीदवारों के चयन, उनकी स्वी—ति और अस्वी—ति करने का अधिकार होना चाहिये। हम सबको उन्हें कभी भी वापस बुलाने का, और नये कानूनों व नीतिगत फैसलों में पहलकदमी लेने का अधिकार होना चाहिये। इन अधिकारों का इस्तेमाल करने के लिये हमें प्रत्येक मतदान क्षेत्र में एक चुनी हुयी समिति स्थापित करनी चाहिये जिसमें अधिकांश लोगों के आदर के पात्र और विश्वसनीय उस क्षेत्र के नागरिकों का समावेश हो।

मज़दूर साथियो!

ऐतिहासिक अनुभव से एक अहम सबक है कि, रूढ़ीवादीसाम्प्रदायिक भाजपा से धर्मनिरपेक्षवादी कांग्रेस पार्टी को बचाने की लार्इन, हमें बड़े पूंजीपतियों के हमलों के खिलाफ़ राजनीतिक एकता बनाने के रास्ते से भटकाती है।  

कांग्रेस पार्टी और भाजपा, दोनों ही इजारेदार पूंजीपतियों के हित के लिए नीतिगत सुधारों के एक ही कार्यक्रम के लिये वचनबद्ध हैं। कांग्रेस पार्टी की धर्मनिरपेक्षता और भाजपा की साम्प्रदायिकता, फूट डाल कर राज करने के आज के राज चलाने के पसंदीदा तरीके के ही दो पहलू हैं। इन दोनों पार्टियों ने साम्प्रदायिक हिंसा छेड़ने और गुनहगारों को सजा से बचाने में, होड़ लगार्इ है व सहयोग किया है।

सभी कम्युनिस्टों को, धर्मनिरपेक्षता को बचाने के नाम पर पूंजीपतियों के अजेंडे से जुड़ने के रास्ते से नाता तोड़ने के आधार पर एकजुट होने की जरूरत है।

बड़े पूंजीपतियों के अजेंडे के विरोध में, क्षेत्रीय पूंजीवादी पार्टियों की भूमिका न तो दृढ़ होती है और न ही विश्वास के योग्य है। यह हम 1996 से 1999 के दौरान तीसरे मोर्चे की सरकार के कामकाज में देख चुके हैं। हाल की संसदीय चर्चा और मतदान में भी यही दिखार्इ दिया है।

कुल मिलाकर निष्कर्ष यही निकलता है कि कम्युनिस्ट तथा मज़दूर वर्ग के सभी कार्यकर्ताओं को अपना बल, मज़दूर वर्ग की एकता मजबूत करने में और किसानों व लोगों के अन्य दबे-कुचले तबकों के साथ उसके गठबंधन को सुदृढ़ बनाने में लगाना चाहिये। अपना काम एक धर्मनिरपेक्ष मोर्चा या तथाकथित तीसरा मोर्चा बनाने का नहीं है। क्षेत्रीय पार्टियां हमारे संघर्ष में हमारी अस्थायी मित्र हो सकती हैं, परन्तु वे हमारी नेता नहीं हो सकती हैं।

सिर्फ दो ही तरह के मोर्चे या राजनीतिक गठबंधन हो सकते हैं। या तो वह मौजूदा पूंजीवादी राज को बचाने का मोर्चा हो सकता है या वह मज़दूरों व किसानों के राज को स्थापित करने का मोर्चा हो सकता है। कम्युनिस्टों को मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में, इनमें से दूसरे मोर्चे को बनाने का काम करना चाहिये।

मज़दूर साथियो!

विभिन्न ट्रेड यूनियनों से जुड़े होने के बावजूद एक साथ आने से, हमने अपने अधिकारों की रक्षा व अपने न्यायसंगत दावों के लिये, और पूंजीवादी हमले का सामना करने का एक बहुत जरूरी कदम ले लिया है।

एक पर हमला सब पर हमला!, इस नारे के आधार पर हमें अपनी एकता मजबूत करनी होगी। हमें अपने किसान भार्इयों के अधिकारों के हितों का समर्थन करना होगा, जो पूंजीवादी हमले में लूटे जा रहे हैं और बर्बाद हो रहे हैं।

हमें मज़दूरों द्वारा विचार-विमर्श के मंच बनाने हैं। हमें, अलग-अलग उत्पादन की इकाइयों व क्षेत्रों के बीच से और संकीर्ण पार्टीवादी होड़ के बंटवारे से ऊपर उठ कर, कारखानों व औधोगिक क्षेत्रों में मज़दूरों की एकता समितियां बनानी हैं।

हमें व्यापार पर सामाजिक नियंत्रण के लिये और अर्थव्यवस्था की दिशा बदलने के कदमों के लिये आंदोलन करना है। हमें सभी वेतनभोगी मज़दूरों व भूमि जोतने वालों के अनुल्लंघनीय अधिकारों की संवैधानिक गारंटियों के लिये आंदोलन करना है। हमें राजनीतिक प्रक्रिया में मूलभूत सुधारों के लिये आंदोलन करना है ताकि कांग्रेस पार्टी व भाजपा के नेतृत्व में बड़ी पूंजीपतियों की पार्टियों की जकड़ को समाप्त किया जा सके।

हमें उन पार्टियों व यूनियनों के नेताओं से सावधान रहना है जो इस या उस पार्टी के संसदीय फायदे के तंग नज़रिये से हमारे संघर्ष को तोड़ना-मरोड़ना चाहते हैं।

एक और अहम कदम है, चुनावों में मज़दूर वर्ग के एकजुट मोर्चे के मज़दूर उम्मीदवारों को खड़ा करना, जिन्हें सभी मज़दूर वर्ग की पार्टियों व ट्रेड यूनियन की फैडरेशनों का समर्थन हो।

आओ सभी कम्युनिस्ट व मज़दूर वर्ग के कार्यकर्ताओं, मज़दूरों की यूनियनों के नेताओं, मज़दूर वर्ग के एकजुट मोर्चे के उम्मीदवारों की एक सूची को जिताने के लिये एकजुट हों!

चलो हम अपने खुद के स्वतंत्र कार्यक्रम के लिये एकताबद्ध हों!

पूंजीवादी लोकतंत्र मुर्दाबाद!

मज़दूरों व किसानों का राज स्थापित करने के उद्देश्य से संघर्ष करो!

इंक़लाब जि़न्दाबाद!

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