मानवाधिकार दिन के अवसर पर :

हमें अवश्य ही मानव अधिकारों की संवैधानिक गारंटी के लिये मांग और संघर्ष करना चाहिये!

1948 के संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार घोषणापत्र का हिन्दोस्तानी राज्य हस्ताक्षरकर्ता है। इस घोषणापत्र की प्रस्तावना में लिखा है:

हमें अवश्य ही मानव अधिकारों की संवैधानिक गारंटी के लिये मांग और संघर्ष करना चाहिये!

1948 के संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार घोषणापत्र का हिन्दोस्तानी राज्य हस्ताक्षरकर्ता है। इस घोषणापत्र की प्रस्तावना में लिखा है:

"जबकि मानव परिवार के सभी सदस्यों के, बराबर और अनुल्लंघनीय अधिकार तथा अन्तर्निहित गरिमा की मान्यता, आज़ादी, इंसाफ और विश्व शांति की बुनियाद हैं, …" और

"जबकि संयुक्त राष्ट्रों के लोगों ने घोषणापत्र में मूलभूत मानव अधिकारों, व्यक्ति की गरिमा व योग्यता और स्त्री व पुरुषों की बराबरी की पुष्टि की है …।"

इसके आगे, पहली धारा में घोषणा की गयी है कि, "गरिमा और अधिकारों में सभी मानव जन्म से स्वतंत्र और बराबर हैं।" और तीसरी धारा में घोषणा की गयी है कि, "सभी को जीने का, वैयक्तिक स्वतंत्रता और सुरक्षा के अधिकार हैं।"

परन्तु सच्चाई में हिन्दोस्तानी राज्य अधिकांश लोगों के कल्याण की बली चढ़ाकर, सिर्फ एक मुट्ठीभर अल्पसंख्या के मुनाफों की रक्षा करता है। यह साफ तौर पर घोषणापत्र का अक्षरशः उल्लंघन है।

मेहनतकश लोग, जिसमें मज़दूर, किसान और दूसरे छोटे मालिक-उत्पादक शामिल हैं, उनके लिये जिम्मेदारियां तो बहुत हैं पर अधिकारों की गारंटी न के बराबर है।

एक निश्चित जीविका की गारंटी नहीं है। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि हिन्दोस्तान की अर्थव्यवस्था में उत्पादन संवर्धन से, मेहनतकश लोगों का जीवनस्तर ऊंचा होगा। रोज़गार प्राप्त मज़दूरों को, निर्वाह खर्च के बढ़ने का पूरा और तुरन्त मुआवज़ा नहीं मिलता है। अनेक क्षेत्रों में उन्हें 8 घंटे से भी अधिक काम करना पड़ता है और आराम करने और अपने परिवार के साथ समय बिताने का पर्याप्त समय नहीं मिलता है।

मज़दूरों का एक बढ़ता अनुपात अस्थायी ठेके पर काम करता है जिन्हें स्वास्थ्य सेवा या सेवानिवृत्ति के बाद कोई सुविधा नहीं मिलती और जिन्हें अल्प सूचना पर नौकरी से निकाल दिया जाता है। हिन्दोस्तानी कंपनियों को वैश्विक स्पर्धा के काबिल बनाने के नाम पर श्रम के शोषण को तीव्र किया जा रहा है। "निवेश के लिये अच्छा माहौल बनाने" और "आवश्यक सेवाओं को जारी रखने" या और बहानों के नाम पर, मज़दूरों के ट्रेड यूनियन बनाने और हड़ताल करने के अधिकारों पर हमले किये जा रहे हैं।

इसके विपरीत खुल्लम-खुल्ला, सामूहिक तौर पर इंडिया इंक के नाम से पहचाने जाने वाले, पूंजीवादी निगमों के लिये राज्य ऊंचे मुनाफों की गारंटी दे रहा है। रिलायंस पेट्रोलियम के मुनाफों को अधिकतम बनाने के लिये केन्द्र सरकार कीमतों में फेरबदल कर रही है और विशेष कदम उठा रही है। टाटा की नैनो परियोजना के लिये भूमि की सौगात दी गयी है तथा करों में छूट दी गयी है। बिड़ला व दूसरे इजारेदार घरानों की इजारेदारी में उर्वरक कंपनियों को करोड़ों रुपयों की आर्थिक सहायता दी जाती है। सुजुकी, टोयोटा, कार्गिल व दूसरे वैश्विक पूंजीवादी इजारेदारों को हिन्दोस्तानी मज़दूरों का अतिशोषण करने और किसानों की लूट करने के लिये, नीतियांे और विनियमनों में सुधार लाये जा रहे हैं।

अपने समाज में मज़दूर वर्ग बहुसंख्यक वर्ग है। मज़दूरों के अधिकारों को नकारने से अपने देश में मानव अधिकारों पर सबसे बड़ा हमला हो रहा है।

किसान जो अपनी-अपनी ज़मीन के टुकड़ों पर मेहनत करते हैं, संख्या में वे दूसरे नम्बर पर हैं। वे लोगों के उपभोग के अधिकांश खाद्य पदार्थों का उत्पादन करते हैं, परन्तु न तो उन्हें अपनी भूमि के स्वामित्व की सुनिश्चिति है और न ही रोजी-रोटी व समृद्धि की। अनेक स्थानों पर, पूंजीवादी निवेशकों व भूमि-भवन के सट्टेबाजों के हित में, अधिकारियों ने किसानों की भूमि का जबरदस्ती अधिग्रहण किया है।

मेहनती किसानों को न तो प्राकृतिक विपदाओं से सुरक्षा है और न ही अचानक उपज की कीमतों में गिरावट जैसी मानव निर्मित विपदाओं से। तथाकथित न्यूनतम समर्थन मूल्य भी न तो पर्याप्त है और न ही लागू किया जाता है। भारतीय खाद्य निगम सिर्फ किसी-किसी इलाके में खरीदी करता है, और वह भी कम किया जा रहा है ताकि निजी निगमों के लिये जगह बढ़ाई जा सके। हाल के वर्षों में, बढ़ती असुरक्षा और कर्जे का सामना न कर सकने के कारण, दसों-हजारों किसान आत्महत्या करने के लिये मज़बूर हुये हैं। अब वॉल-मार्ट व दूसरे वैश्विक इजारेदारों के प्रवेश से किसानों की निर्भरता व असुरक्षा का ख़तरा बढ़ा है।

हर एक व्यक्ति के लिये रोजी-रोटी जरूरी है, जिसकी गारंटी राज्य को देनी चाहिये। यह राज्य की जिम्मेदारी है और हर एक व्यक्ति का अधिकार है। जब इस अधिकार की गारंटी होगी तभी कोई व्यक्ति समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा सकता है।

अधिकारों की संकल्पना पर टकराव

सभी मनुष्य जो समाज में पैदा होते हैं, उनकी जरूरतें होती हैं जो सामाजिक व्यवस्था ही पूरी कर सकती है। हमें अच्छे भोजन की, जीवन जीने और आराम की, अपने वर्तमान व भविष्य में सुरक्षित महसूस करने की, अवकाश व संस्कृति की, तथा अगली पीढ़ी को भविष्य के लिये आशा व उत्साह के साथ लाने के लिये, बच्चों की शिक्षा व उनके वयस्क होने तक पालने-पोसने की जरूरतें हैं।

परन्तु अपने समाज में वर्ग विभाजन से अधिकारों की दो विरोधी परिभाषायें उभर कर आयी हैं। राज्य की नीतियों व अभ्यास में अन्तर्निहित संकल्पना है कि सभी अधिकार सिर्फ कुछ लोगों को मिलने वाले विशेषाधिकार हैं, जो राजनीतिक उपयुक्तता के अनुसार दिये जा सकते हैं या वापस लिये जा सकते हैं। शांति व व्यवस्था, एकता और क्षेत्रीय अखंडता बरकरार रखने के नाम पर, संविधान, राज्य को मूलभूत अधिकारों तक पर प्रतिबंध लगाने की अनुमति देता है। उपनिवेशवादी-पूंजीवादी परिभाषा का टकराव आधुनिक मज़दूर वर्ग की मांगों तथा प्रबुद्ध विचारों से हो रहा है कि लोगों के अधिकार हैं और उनकी गारंटी व सुरक्षा राज्य को देनी है।

अपने देश में उपनिवेशवादी विरासत के कारण परिस्थिति खास तौर पर दमनकारी है, जिसमें केन्द्रीय राज्य व हिन्दोस्तानी संघ, राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं व लोगों के अधिकारों को पैरों तले रौंद रहा है। उन क्षेत्रों में जहां केन्द्रीय सेना व अर्ध-सैन्य बल तैनात किये गये हैं व उन्हें असामान्य अधिकार दिये गये हैं, वहां लोगों के लिये जीवन तक के अधिकार की गारंटी नहीं है; सिर्फ संदेह पर किसी को मार दिया जा सकता है और वर्दी वालों पर कोई कानूनी कार्यवाई नहीं की जा सकती है।

हमारे पूर्वजों ने पहचान लिया था कि एक समाज को फलने-फूलने के लिये, जो मेहनत करते हैं व जो मानव जीवन के लिये जरूरी वस्तुओं का उत्पादन करते हैं, उनकी जीविका सुनिश्चित होनी चाहिये। उपनिवेशवादी जीत के पहले जो राजनीतिक सिद्धांत पनप कर अवनति पर थे, उसका मूलभूत आधार था कि समाज के सभी सदस्यों को खुशहाली व सुरक्षा प्रदान करना राज्य का कत्र्तव्य है ताकि समाज के निर्माण व प्रजनन की अपनी जिम्मेदारी को वे निभा सकें।

सिर्फ समाज ही जीविका प्रदान कर सकता है – हमारे पूर्वजों ने यह तब पहचान लिया था जब सामाजिक उत्पादकता के विकास का स्तर बहुत कम था। आज 21वीं सदी में, वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन व वितरण की प्रक्रिया विशाल और विश्वव्यापी हो गयी है। समाज में पैदा हुये प्रत्येक सदस्य को रोजगार व मानव योग्य जीवन प्रदान करना संभव है।

पिछले दो दशकों से कांग्रेस पार्टी व भाजपा के नेतृत्व में इजारेदार पूंजीवादी पार्टियां वैश्विक वित्त पूंजी और साम्राज्यवादी शिविर के गीत गा रही हैं कि अर्थव्यवस्था को "बाज़ारोन्मुख" होना चाहिये और प्रत्येक व्यक्ति को "अपना बचाव स्वयं" करना चाहिये। बाज़ारोन्मुखी का मतलब अर्थव्यवस्था की वह दिशा, जिसमें बाज़ार के सबसे बड़े खिलाड़ी सर्वाधिक मुनाफा कमा सकें।

सुधार कार्यक्रम जिसने 20 साल पहले मज़दूर वर्ग व लोगों को भ्रम में डाल दिया था, आज उसकी चमक खत्म हो चुकी है। मनमोहन सिंह सरकार के मंत्रीमंडल द्वारा समर्थित बाजारोन्मुखी सुधारों के पूरे रास्ते का आज पूरी तरह पर्दाफाश हो चुका है कि यह मज़दूर-विरोधी, किसान-विरोधी, राष्ट्र-विरोधी है। इसकी बनावट सभी मेहनत करने वालों के दावों को ठुकरा कर हिन्दोस्तानी इजारेदार पूंजीपतियों की विश्वस्तरीय खिलाड़ी बनने की लालच को पूरा करने के लिये है। पूंजीपति व्यापारियों और बड़े ज़मीनदारों, जो पूंजीपति वर्ग के तो हैं पर इंडिया इंक के हिस्से नहीं हैं, इस रास्ते में उनकी चिंताओं की अवहेलना की गयी है।

मज़दूरों, किसानों और अर्थव्यवस्था की इस गैर- सामाजिक दिशा से सभी पीडि़तों को पश्चिम से आयातित इस नुस्खे को स्वीकार करने की कोई जरूरत नहीं है, जिसका विरोध स्वयं पश्चिमी देशों में हो रहा है।

मानव अधिकारों की संवैधानिक गारंटी की मांग है

मानव अधिकारों की पुष्टि सिर्फ एक घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने से नहीं होती। इसके लिये सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को पुनर्गठित करने की जरूरत है ताकि व्यापक तौर पर ये अधिकार वास्तव में लागू हो सकें।

मानवा अधिकारों की पुष्टि के लिये, बहुत ही भ्रष्ट व परजीवी हो चुकी पूंजीवादी व्यवस्था की जगह आधुनिक समाजवाद की जरूरत है, जो कार्य, राष्ट्रीयता, नागरिकता और मानव होने के आधार पर, समाज के सदस्यों के दावों को पूरा करने की दिशा में चलेगा। एक आधुनिक समाज का गठन इस प्रकार से होना चाहिये कि उसमें मानव अधिकारों की सुनिश्चिति सर्वव्यापी और अनुल्लंघनीय हो। मज़दूर वर्ग की यही दृष्टि और लक्ष्य है।

समाज के सभी सदस्यों की खुशहाली और सुरक्षा तभी संभव है जब इजारेदार पूंजीवादी निगमों व बैंकों को सर्वाधिक मुनाफा बनाने के "अधिकार" से वंचित किया जाये। ऐसा किया जा सकता है जब, किसानों और सभी उत्पादक तबकों के साथ गठबंधन बना कर, मज़दूर वर्ग राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में ले। तब मेहनतकश लोगों की बहुसंख्या, समाज द्वारा उत्पादित अतिरिक्त मूल्य को सामूहिक तौर पर अपने नियंत्रण में ले सकती है और इसका इस्तेमाल अपने कल्याण में, महिलाओं के देखभाल में, बच्चों व नौजवानों के पालन-पोषण में व उन्हें शिक्षित करने में, तथा वृद्ध लोगों को लाभदायक भूमिका प्रदान करने व संवेदनशीलता से उनकी देखभाल करने में लगा सकती है।

हम, मेहनतकश लोगों को, अपनी मांगों को, मौजूदा व्यवस्था के अनुकूल सीमित नहीं रखना चाहिये। हमारी मांग होनी चाहिये कि व्यवस्था में परिवर्तन लाया जाये, ताकि अपने दावे पूरे हों और अपने अधिकारों की रक्षा हो।

मानव अधिकारों की मांग और संघर्ष, लोकतांत्रिक अधिकारों व राष्ट्रीय अधिकारों के संघर्ष के साथ कंधे से कंधा मिला कर किया जाना चाहिये।

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी मज़दूरों, किसानों, महिलाओं व नौजवानों को बुलावा देती है कि एकता बनायें और समर्थ बनाने वाले कानूनों व पालन के लिये विवश करने व इसकी निगरानी करने के तंत्रों के साथ निम्नलिखित सर्वव्यापी मानव अधिकारों की संवैधानिक गारंटियों की मांग रखें:

  • जीवन की सुरक्षा का अधिकार
  • ज़मीर का अधिकार
  • रोजी-रोटी की सुरक्षा का अधिकार
  • भोजन का अधिकार
  • सुरक्षित आवास का अधिकार
  • साफ-सफाई व स्वच्छ पेयजल का अधिकार
  • स्वास्थ्य सेवा का अधिकार
  • शिक्षा का अधिकार

चलो हम मांग करें कि संविधान इन सभी को अनुल्लंघनीय अधिकार माने और इन अधिकारों के किसी भी उल्लंघन से सुरक्षित रखने के लिये राज्य को जिम्मेदार माने। इसका मतलब है कि ये मूलभूत न्यायसंगत अधिकारों के हिस्से हों जिनका किसी भी परिस्थिति में उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। ऐसी संवैधानिक गारंटी के लिये समर्थ बनाने वाले कानून तथा पालन के लिये विवश करने व इसकी निगरानी करने के तंत्रों की जरूरत होगी।

मानव अधिकारों की यही आधुनिक परिभाषा है। मज़दूर वर्ग और मेहनती किसानों, महिलाओं व नौजवानों को तब तक आराम नहीं करना चाहिये जब तक ये समाज के पुनर्गठन, उसकी अर्थव्यवस्था व उसके प्रशासन तथा उसकी रक्षा के मार्गदर्शक सिद्धांत नहीं बन जाते हैं।  

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