गुनहगारों को सज़ा होनी चाहिये!
राज्य का साम्प्रदायिक स्वभाव,इसके पुनर्गठन की जरूरत की तरफ इशारा करता है!
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान, 4 दिसम्बर, 2012
गुनहगारों को सज़ा होनी चाहिये!
राज्य का साम्प्रदायिक स्वभाव,इसके पुनर्गठन की जरूरत की तरफ इशारा करता है!
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान, 4 दिसम्बर, 2012
बीस साल पहले, 6 दिसम्बर, 1992 के दिन, उत्तर प्रदेश के फैजाबाद (अयोध्या) में स्थित, 400 साल पुरानी ऐतिहासिक इमारत, बाबरी मस्जिद का विध्वंस किया गया। भाजपा और कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में राज्य और केन्द्र सरकारों की सहायता से, सशस्त्र गिरोहों ने इस काम को अंजाम दिया।
जिन राजनीतिक ताकतों ने इस हादसे को होने दिया, उन्होंने आने वाले महीनों में मुंबई, सूरत और अन्य बहुत से स्थानों में, बड़े स्तर पर साम्प्रदायिक हिंसा आयोजित की। हजारों लोगों को, उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर आतंकित किया गया, उन्हें शिकार बनाया गया और जान से मार डाला गया। केन्द्र और राज्य सरकारें लोगों की जिन्दगी या उनके ज़मीर के अधिकार को सुरक्षित करने में पूरी तरह असफल रहीं।
उसके पहले के तीन वर्षों में, बाबरी मस्जिद की जगह पर भगवान राम का मंदिर बनाने का अभियान चलाया गया था। इस विवाद को पुनः सुलगाने का पहला कदम राजीव गांधी की कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व की सरकार ने 9 नवम्बर, 1986 को विवादित स्थल का ताला खोल कर किया था। 400 साल पुराने इस ऐतिहासिक स्थान पर राम मंदिर बनाने के लक्ष्य के लिये भाजपा ने रथ यात्रा व अन्य ऐसे तरीकों का इस्तेमाल करके जन जुटाव के ज़रिये एक उत्तेजनापूर्ण माहौल तैयार किया। केन्द्र सरकार ने, स्वघोषित हिन्दू और मुस्लिम नेताओं की मध्यस्थता करने के ढोंग से विवाद को जिंदा रखा, जबकि कहने के लिये सरकार समझौता कराने की कोशिश कर रही थी।
बाबरी मस्जिद का विवाद सबसे पहले बर्तानवी उपनिवेशवादियों ने भड़काया था जब 1859 में एक घेरा बांध कर उन्होंने आदेश दिया कि अपने-अपने पूजा के स्थानों को जाने के लिये, हिन्दू पूर्वी द्वार का और मुसलमान उत्तरी द्वार का इस्तेमाल करें। उसके बाद के 90 वर्षों में बर्तानवी उपनिवेशवादी न्यायालयों ने तथाकथित हिन्दू और मुसलमान नेताओं, जिन्हें उन्होंने ही उकसाया था, उनकी विभिन्न याचिकाओं पर विचार किया और उन्हें खारिज किया। इस तरह उन्होंने विवाद को जिन्दा रखा ताकि जरूरत पड़ने पर इसे भड़काया जा सके।
साम्प्रदायिक बंटवारे के बाद, 22 दिसम्बर 1949 की रात को राम की एक मूर्ति मस्जिद के अंदर स्थापित की गयी। नेहरू की अंतरिम सरकार ने उस जगह को विवादित घोषित करके उसके दरवाजों पर ताला लगवा दिया। 1986 में, 40 साल तक दरवाजों पर ताले लगे रहने के बाद, नेहरू के नाती ने इसे हिन्दुओं के लिये खोलने का आदेश दिया।
दरवाजे क्यों खोले गये, यह उस वक्त के विशेष राजनीतिक माहौल के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। अस्सी के दशक के मध्य में शासक पूंजीपति वर्ग ने फैसला ले लिया था कि हिन्दोस्तान को 21वीं सदी में ले जाने के झंडे तले, एक साम्राज्यवादी रास्ता अपनाया जायेगा। इस हमलावर पूंजीवादी साम्राज्यवादी रास्ते के खिलाफ़, मज़दूर वर्ग और मेहनतकश लोगों को एकजुट न होने देने के लिये, साम्प्रदायिकता व साम्प्रदायिक हिंसा का पसंदीदा तरीका अपनाया गया। पूंजीपतियों की दोनों अहम पार्टियों ने सहयोग करके और होड़ लगाकर, आस्था के आधार पर राज्यतंत्र में फूट डाला।
राजनीतिक मतभेदों का अपराधीकरण और राजकीय आतंक थोपना, इंदिरा गांधी सरकार द्वारा पंजाब में पहले ही अजमाया जा चुका था। उस समय जब पंजाबी लोगों के राष्ट्रीय अधिकारों के संघर्ष को, सिखों और हिन्दुओं के बीच के विवाद का और उसे एक कानून व व्यवस्था की समस्या का रूप दिया गया था। केन्द्र सरकार ने अकाली दल को तोड़ने के लिये चोरी-चोरी आतंकवादी गुटों को हथियारों से लैस किया और फिर आतंकवादियों को निकालने के नाम पर स्वर्ण मंदिर पर सैनिक हमला किया। बाबरी मस्जिद का विनाश, इसी दुष्ट दांव-पेंच को पूरे हिन्दोस्तान में फैलाने का तरीका था, जिसके लिये सत्ताधारी और प्रमुख संसदीय विपक्षी पार्टियों ने मिलकर लोगों को एक दूसरे का दुश्मन बनाया।
1984 में सिखों के नरसंहार के पश्चात्, 1985 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी वापस सत्ता में आयी, जिसने चुनावी अभियान को "हिन्दी, हिन्दू, हिन्दोस्तान!" के नारे के साथ चलाया था। दशक के अंत तक, तंग नज़रिये के दो आंदोलन विकसित हुये, जो लोगों में फूट डालने के लिये होड़ लगा रहे थे। एक, वी.पी. सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी के अंदर का ही एक गुट था, जो मंडल आयोग की सिफारिशों दूसरे पिछड़े वर्गों के लिये लागू करवाने के लिये अभियान चला रहा था। दूसरा, बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर बनाने का भाजपा का अभियान था।
बाबरी मस्जिद का विध्वंस हिन्दोस्तानी राजनीति में एक नया मोड़ था। इसने दिखा दिया कि, दुष्ट तमाशों और साम्प्रदायिक अपराधों का आसरा लिये बिना, कोई शासक अब राज नहीं कर सकेगा। इसने हिन्दोस्तानियों को यह भी दिखाया कि दुनिया के इस तथाकथित सबसे बड़े लोकतंत्र में वे कितने शक्तिहीन हैं। आम जनसमूह इस बात से आक्रोशित था कि अपने वोट बैंकों की खातिर, घोर अपराधी हरकतें करके और लोगों में फूट डाल कर व उन्हें गुमराह करके, संसद की दो सबसे बड़ी पार्टियां कैसे बच निकल सकती हैं। लोगों के आक्रोश ने एक ऐसे आंदोलन को जन्म दिया जिसमें लोगों के सशक्तिकरण के लिये, लोकतंत्र के स्वभाव और इसकी राजनीतिक प्रक्रिया में मौलिक परिवर्तन लाना जरूरी है।
लोगों के बीच बढ़ती राजनीतिक चेतना और सबल बनने की चाहत को उलटने के लिये शासक वर्ग ने राज्यतंत्र को, बहुसंख्यक व अल्पसंख्यक धार्मिक संप्रदायों के साथ साथ, धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक खेमों में विभाजित किया। ऐसी धारणा फैलायी गयी कि साम्प्रदायिकता व साम्प्रदायिक हिंसा का स्रोत हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों व दूसरे संगठनों के धार्मिक रूढ़ीवाद में है। बाबरी मस्जिद के विनाश के बाद, कुछ हिन्दू और मुसलमान संगठनों पर प्रतिबंध भी लगाये गये ताकि इस झूठी धारणा को सुदृढ़ बनाया जा सके कि इस समस्या के लिये जिम्मेदार लोग राज्य का हिस्सा नहीं हैं जबकि राज्य धर्मनिरपेक्ष है व सभी के ज़मीर के अधिकार की रक्षा करता है।
धर्मनिरपेक्षीकरण का अभिप्राय सामाजिक और राजनीतिक मामलों से धार्मिक प्राधिकार का वर्चस्व क्रमशः हटाना होता है। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य, परिभाषा से ही, सभी व्यक्तियों के ज़मीर के अधिकार की रक्षा करता है और धार्मिक मामलों में दखलंदाजी नहीं करता है। असलियत में हिन्दोस्तानी राज्य धर्मनिरपेक्ष नहीं है। इस राज्य की धर्मनिरपेक्षता एक साम्राज्यवादी दार्शनिक सोच है, जो बर्तानवी साम्राज्यवाद से निकली है। वे एक तरफ धर्म के आधार पर लोगों को लड़ाते थे, जबकि दूसरी तरफ "सद्भावना" का उपदेश देते थे। उन्होंने मनगढ़ंत धारणा बनायी कि हिन्दोस्तानी समाज में हिन्दू बहुसंख्यक और मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं, जो आपस बीच एक दूसरे से लड़ते रहते हैं; तथा "साम्प्रदायिक सद्भावना" बनाये रखना "श्वेत लोगों का बोझ है।"
कांग्रेस पार्टी की धर्मनिरपेक्षता एक ओर साम्प्रदायिक झगड़ों को उकसा कर दूसरी तरफ सद्भावना और सहनशीलता का पाठ पढ़ाने के इसी साम्राज्यवादी दृष्टिकोण से ओतप्रोत है। इस पार्टी के नेता यही मंत्र जपते रहते हैं कि “बहुसंख्यक सम्प्रदाय को धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति सहनशीलता रखना चाहिये“, जो उनके साम्प्रदायिक दृष्टिकोण को दर्शाता है। कांग्रेस पार्टी ने शाह बानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटने के लिये लड़ाई की और बाबरी मस्जिद के तालों को खुलवाया, जिससे धार्मिक भावुकता को प्रसन्न रखने के नाम पर साम्प्रदायिक झगड़े को हवा दी गयी।
1950 के संविधान को पारित करने वाली सभा, जिसका चुनाव हिन्दू, मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के अलग-अलग मतदाता वर्गों के आधार पर हुआ था, वह अपने लोगों की आशा पूरी करने में विफल रही। इसने उपनिवेशवादी संस्थानों, सिद्धांतों व तरीकों से बुनियादी तौर पर नाता नहीं तोड़ा। इसने लोगों को ज़मीर के अधिकार की गारंटी नहीं दी, जिसके लिये इस उपमहाद्वीप के लोग, भक्ती और सूफी आंदोलनों के दिनों, और उसके भी पहले से, संघर्ष करते आ रहे हैं।
जबकि संविधान "धार्मिक स्वतंत्रता" को मानने का दिखावा करता है, यह राज्य व सत्ताधारी पार्टियों को धार्मिक मामलों में दखलंदाजी करने, और आस्थाओं के आधार पर लोगों का दमन करने की ताकत देता है। इसकी 25वीं धारा ज़मीर के अधिकार की अवहेलना करते हुये कहती है कि सिख, जैन व बौद्ध आस्था वाले लोग सब हिन्दू हैं।
आज धार्मिक रूढ़ीवाद के खिलाफ़ प्रचार का असली मकसद इस सच्चाई को छुपाना है कि समस्या राजनीतिक है। इसका मकसद यह छुपाना है कि असल में इस समस्या की जड़ इस राज्य और राजनीतिक प्रक्रिया में है जो साम्प्रदायिक अपराधों को होने देती है और गुनहगारों को सजा दिये बगैर जाने देती है। समस्या किसी विचारधारात्मक सोच या सिर्फ किसी गैर-राज्य अदाकारों की नहीं है।
लोगों के खिलाफ़, 1984, 1992-93, 2002 और दूसरे समय पर किये गये अपराधों के गुनहगारों को उचित सज़ा देना इंसाफ के लिये आवश्यक है।
जो इंसाफ के लिये और साम्प्रदायिकता व साम्प्रदायिक हिंसा को खत्म करने के लिये लड़ रहे हैं, उन्हें इस तथ्य का सामना करना जरूरी है, कि असल में इस समस्या की जड़ों की नींव इस मौजूदा राज्य व उसके संविधान में है।
वक़्त का तक़ाज़ा है कि एक नये राज्य व राजनीतिक प्रक्रिया, जिससे लोग सत्ता में आयेंगे, इसकी नींव रख कर, उपनिवेशवादी विरासत से सदा के लिये नाता तोड़ा जाये। एक आधुनिक संविधान को स्थापित करने की आवश्यकता है, जो मानव व राष्ट्रीय अधिकारों के साथ-साथ, ज़मीर के अधिकार को सुनिश्चित करे। सभी नये और पुराने शोषण व दमन के स्वरूपों के साथ-साथ, साम्प्रदायिक हिंसा को हमेशा के लिये खत्म करने की यह जरूरी शर्त है।
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी, अधिकारों की आधुनिक परिभाषा के आधार पर, राज्य व राजनीतिक प्रक्रिया के पुनर्गठन के ज़रिये, लोगों को सत्ता में लाने के लक्ष्य के लिये वचनबद्ध है। इससे, मज़दूर वर्ग द्वारा अधिकांश लोगों को नेतृत्व देकर, अर्थव्यवस्था की दिशा और अपने भविष्य को बदलने का रास्ता खुल जायेगा, ताकि सभी की समृद्धि और सुरक्षा सुनिश्चित हो, तथा विश्व की रंगभूमि में हिन्दोस्तान एक प्रगतिशील व प्रबुद्ध ताकत के रूप से उभर के आये।
हम सभी सुसंस्कृत राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठनों को आह्वान देते हैं कि हिन्दोस्तान के नवनिर्माण के इस संघर्ष में एकजुट होकर आगे आयें।