डिजिटल शिक्षा :
पूंजीपतियों के लिए एक वरदान और बहुसंख्य बच्चों और युवाओं के लिए एक त्रासदी

  • कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन द्वारा और भी तेज़ गति से डिजिटल शिक्षा की ओर एक बड़ा बदलाव इजारेदार पूंजीपतियों के लिए एक बड़े और अत्यधिक लाभदायक डिजिटल बाज़ार के रूप में हिन्दोस्तान को तेज़ी से खोल रहा है।
  • यह शिक्षा प्रणाली की मौजूदा असमानताओं को बहुत बढ़ा रहा है और अधिक से अधिक युवाओं को शिक्षा प्राप्त करने के अवसरों से वंचित कर रहा है।
  • यह युवाओं और बच्चों के लिए कई स्वास्थ्य ख़तरों का कारण बन रहा है।
  • यह पहले से ही नौकरी छूटने और वेतन कटौती से जूझ रहे मज़दूर वर्ग के ग़रीब परिवारों पर वित्तीय बोझ को और भी बढ़ा रहा है।

कोविड-19 महामारी की वजह से लगे लॉकडाउन ने हमारे देश के लाखों बच्चों और युवाओं के शिक्षा हासिल करने के सपनों और आकांक्षाओं को चकनाचूर कर दिया है।

मार्च 2020 में अचानक से लॉकडाउन की घोषणा के साथ ही, एक झटके में हमारे देश के स्कूल जाने वाले लगभग 50 प्रतिशत बच्चों को शिक्षा-व्यवस्था से बाहर कर दिया गया। महामारी के कारण पूरे हिन्दोस्तान में 15 लाख से अधिक स्कूल बंद हो गए। इससे पूर्व-प्राथमिक से माध्यमिक स्तर तक की कक्षाओं में पढ़ने वाले लगभग 28.6 करोड़ बच्चे प्रभावित हुए हैं। हालांकि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें दावा करती रही हैं कि ऑनलाइन शिक्षा के कारण शिक्षा में बहुत कम या कोई रुकावट नहीं हुई है। पिछले डेढ़ साल के कठोर अनुभव ने हमें दिखाया है कि ऑनलाइन शिक्षा न केवल देश के कई हिस्सों में बच्चों की पहुंच से लगभग पूरी तरह से बाहर है, बल्कि अधिकांश बच्चों और युवाओं के लिए उसकी क़ीमत चुकाना भी मुमकिन नहीं है। बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर होने वाला इसका दुष्प्रभाव भी चिंता का एक प्रमुख कारण है।

सामाजिक दूरी का पालन कराने के लिए कक्षाएं रोक दी गईं। स्कूलों से विश्वविद्यालयों तक शैक्षणिक संस्थानों ने शिक्षण और मूल्यांकन के ऑनलाइन तरीक़ों को अपना लिया है। नतीजतन, पिछले डेढ़ वर्षों में हम ऑनलाइन या डिजिटल शिक्षा के नए रूप में शिक्षा का लगभग पूरी तरह से बदलाव देख रहे हैं।

सरकार ने हिन्दोस्तान में डिजिटल शिक्षा को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने के लिए कोविड-19 के कारण लगे लॉकडाउन की वजह से शिक्षा में आये व्यवधान का इस्तेमाल किया है। यह पूरी तरह से जुलाई 2020 में केंद्र सरकार द्वारा जारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुरूप है, जिसमें ऑनलाइन शिक्षा को “हिन्दोस्तान में शिक्षा की समस्याओं को हल करने की कुंजी” के रूप में ज़ोर दिया गया है।

डिजिटल शिक्षा के लिए सरकार के प्रोत्साहन ने हिन्दोस्तान को डिजिटल शिक्षा के क्षेत्र में, आई.टी. इजारेदार कॉर्पोरेट दिग्गजों के लिए सबसे बड़े और अत्यधिक आकर्षक बाज़ारों में से एक के रूप में खोल दिया है। कोविड-19 के प्रकोप से पहले, 2016 में किए गए सर्वेक्षणों में अनुमान लगाया गया था कि हिन्दोस्तान में ऑनलाइन शिक्षा का बाज़ार 16 लाख उपयोगकर्ताओं के साथ 247 मिलियन डॉलर (1,870 करोड़ रुपये) का था। यह बढ़कर 2021 तक 96 लाख उपयोगकर्ताओं के साथ 1.96 बिलियन (14,836 करोड़ रुपये) हो गया है। कोरोनावायरस से प्रेरित लॉकडाउन ने हिन्दोस्तान के डिजिटल शिक्षा क्षेत्र के बाज़ार को बड़ी आई.टी. इजारेदार पूंजीवादी कंपनियों के लिए खोल दिया है। हिन्दोस्तान अब अमरीका के बाद, दुनिया में ऑनलाइन पाठ्यक्रमों के लिए दूसरे सबसे बड़े बाज़ार के रूप में उभरा है।

हर गांव और शहर में चाहे वह कितना भी दूरस्थ क्यों न हो, वहां पर आधुनिक बुनियादी ढांचे वाले और तकनीक से लैस पर्याप्त संख्या में शिक्षकों वाले, अच्छी गुणवत्ता के स्कूलों को प्रदान करने की अपनी ज़िम्मेदारी से पूरी तरह नाता तोड़ने के लिए – कोविड-19 की महामारी और लॉकडाउन का इस्तेमाल शासकों द्वारा किया जा रहा है। सभी के लिए शिक्षा के एक समान मानक-सुनिश्चित करने वाली एक समान स्कूली प्रणाली स्थापित करने में, अपनी विफलता को छिपाने और न्यायोचित ठहराने के लिए, हमारे शासकों द्वारा इस महामारी का इस्तेमाल किया जा रहा है। यह शिक्षा प्रणाली में मौजूदा असमानताओं को बहुत अधिक बढ़ा रहा है और अधिक से अधिक युवाओं को शिक्षा प्राप्त करने के अवसर से वंचित कर रहा है। दूसरी ओर, यह डिजिटल शिक्षा के क्षेत्र में आई.टी. इजारेदार कंपनियों के लिए भारी मुनाफ़े बनाने के लिए अनुकूल परिस्थितियां पैदा कर रही है।

हमारे बच्चों और युवाओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा महामारी से पहले ही किसी भी तरह की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित था। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि हिन्दोस्तान में 6 से 14 साल के बीच के आधे से भी कम बच्चे स्कूल जाते हैं। कक्षा 1 में दाखिला लेने वाले सभी बच्चों में से एक तिहाई से थोड़ा अधिक हिस्सा ही कक्षा 8 तक पहुंचता है। 6-14 वर्ष की आयु के कम से कम 3-5 करोड़ बच्चे बिल्कुल स्कूल नहीं जाते हैं।

आज़ादी के 75 साल बाद भी राज्य ने सभी बच्चों और युवाओं के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली एक समान शिक्षा सुनिश्चित नहीं की है। 1950 में अपनाए गए संविधान में 10 साल के भीतर सभी के लिए मुफ्त शिक्षा का वादा किया गया था! 1966 में बने कोठारी आयोग ने सिफारिश की थी कि 20 वर्षों के भीतर, एक समान स्कूली प्रणाली स्थापित की जानी चाहिए। लेकिन यह केवल नीतिगत उद्देश्य बनकर ही रह गया है, हिन्दोस्तान के अधिकांश लोगों के लिए यह एक दूर का सपना है। शिक्षा पर केंद्र और राज्य सरकार के खर्च का वास्तविक स्तर, वर्तमान में सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का केवल 3.1 प्रतिशत है, जो अनुशंसित स्तर का लगभग आधा है और कई अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है।

नतीजतन, अधिकांश सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के अलावा अन्य सुविधाओं जैसे कि शौचालयों, पुस्तकालयों और प्रयोगशालाओं, आदि की भारी कमी है। चूंकि सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर में लगातार गिरावट जारी है, इसलिये अधिक से अधिक माता-पिता अपने बच्चों को निजी स्कूलों में दाखिला दिलाने को मजबूर हैं। निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के माता-पिता अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा स्कूल फीस के रूप में दे रहे हैं। मज़दूरों और किसानों के अधिकांश बच्चों को सरकारी स्कूलों में बहुत ही निम्न स्तर की शिक्षा मिलती है। इस सज़ा को भुगतने के लिए बच्चों को मजबूर करने के लिए हिन्दोस्तानी राज्य ज़िम्मेदार है।

हिन्दोस्तान में एक समान स्कूली शिक्षा प्रणाली नहीं है, जो देश के सभी हिस्सों में सभी बच्चों के लिए शिक्षा की अच्छी गुणवत्ता और एक समान शिक्षा सुनिश्चित करे। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे देश के शासक, पूंजी के मालिक, कारखानों और दुकानों के मालिक, निर्माण कंपनियां और अन्य कंपनियां यही चाहते हैं कि करोड़ों लोग अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे बने रहें। इस तरह उनको अपने मुनाफे़ और बढ़ाने के लिए अर्धकुशल और अकुशल मज़दूर अत्यंत कम मज़दूरी पर मजबूरन काम करने के लिए हमेशा उपलब्ध हो सकेंगे। जाति व्यवस्था की निरंतरता और इस धारणा ने कि कुछ लोग अनपढ़ रहने और केवल “गंदगी में” काम करने के लिए ही “जन्म” लेते हैं। इस तरह से शिक्षा में भेदभाव को सही ठहराने का काम किया गया है और इसलिए देश के बहुत से बच्चों और युवाओं को अपनी जाति के लगे ठप्पे के कारण इस क्रूर असमानता का सामना करना पड़ता हैं। यही वास्तविक कारण है कि शिक्षा कुछ लोगों का विशेषाधिकार बनी हुई है, भले ही इसे कानूनी रूप से एक सार्वभौमिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई हो।

बड़े पैमाने पर डिजिटल शिक्षा में अचानक और लगभग पूरी तरह से परिवर्तन ने, कई बाधाओं को जन्म दिया है। यह उन बच्चों और युवाओं के अनुपात में वृद्धि कर रहा है जो शिक्षा की पहुंच से बाहर हैं।

Access_to_Comps_internetदेश के कई क्षेत्रों में इंटरनेट की पहुंच बेहद खराब है या न के बराबर है। नतीजतन, छात्रों को अक्सर बाहर जाकर सड़क के किनारे बैठना पड़ता है या उन्हें फोन पर ऑनलाइन कक्षाओं में शामिल होने के लिए कई मील पैदल चलना पड़ता है, पहाड़ियों और पेड़ों पर चढ़ना पड़ता है। देश के कई हिस्सों में सरकारी स्कूलों के शिक्षकों ने बताया है कि जब ऑनलाइन कक्षाएं शुरू हुईं, तो 5 प्रतिशत से भी कम छात्रों के पास विश्वसनीय और लगातार इंटरनेट की सुविधा थी। स्मार्टफोन और इंटरनेट कनेक्शन वाले मुट्ठीभर छात्रों को ही पाठ और गृहकार्य पहुंचता है, जिसे वे अन्य छात्रों के साथ सांझा करते हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के द्वारा बहुप्रचारित ऑनलाइन शिक्षा मंच (स्वयं प्रभा) भी देश के कई हिस्सों में छात्रों के लिए दुर्गम हैं क्योंकि उनका प्रचार यूट्यूब, डिजिटल और सैटेलाइट टीवी के माध्यम से किया जाता है।

उच्च शिक्षा पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। कॉलेजों के जिन छात्रों को अपने कॉलेज परिसरों से दूर रहना पड़ा है, उनके ग्रामीण और छोटे शहरों के घरों में जहां पर्याप्त इंटरनेट कनेक्टिविटी उपलब्ध नहीं है, उनके लिये किताबों, पुस्तकालयों और शिक्षकों के बिना, अपनी शिक्षा को जारी रखना एक वास्तविक चुनौती रही है। परीक्षण और परीक्षा पैटर्न की पारंपरिक प्रणाली को ऑनलाइन मोड में बदल दिया गया है, जिससे छात्रों को इस नयी प्रणाली के द्वारा शिक्षा पाना बहुत मुश्किल हो गया है।

2017-18 के अखिल भारतीय एन.एस.ओ. सर्वेक्षण के अनुसार, हिन्दोस्तान में केवल 25 प्रतिशत छात्रों के पास घर पर इंटरनेट है। ग्रामीण हिन्दोस्तान में यह संख्या बहुत ही कम है, केवल 4 प्रतिशत घरों में ही इंटरनेट की पहुंच है। 2018 में नीति आयोग की रिपोर्ट से पता चला है कि हिन्दोस्तान के 55,000 गांवों में मोबाइल नेटवर्क की पहुंच नहीं है। ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा 2017-18 के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि हिन्दोस्तान के 36 प्रतिशत से अधिक स्कूलों में बिजली तक उपलब्ध नहीं है।

जिन लोगों की इंटरनेट तक पहुंच है भी उनमें से बड़ी संख्या में छात्रों को असुविधाजनक तरीकों पर निर्भर रहना पड़ता है जैसे कि कंप्यूटर की बजाय मोबाइल फोन का उपयोग करना। हालांकि मोबाइल फोन ऑनलाइन व्याख्यान सुनने के लिए पर्याप्त हो सकते हैं, वे निश्चित रूप से परीक्षा या असाइनमेंट लिखने के लिए उपयुक्त या सुविधाजनक माध्यम नहीं हैं।

ऑनलाइन शिक्षा में अचानक बदलाव का मतलब, मज़दूर वर्ग के अधिकांश परिवारों के खर्चों पर एक भारी बोझ है। अनुमान बताते हैं कि 1,000 रुपए प्रति बच्चा मासिक खर्च करने वाले परिवार के लिए ऑनलाइन शिक्षा का अतिरिक्त खर्च 250 रुपए प्रति बच्चा है। इस प्रकार, पिछले डेढ़ वर्षों में डिजिटल शिक्षा में बदलाव के कारण, मज़दूर वर्ग के परिवारों के अधिकांश बच्चों और युवाओं के लिए शिक्षा उनकी पहुंच से बाहर होती जा रही है।

ऑनलाइन शिक्षा का लाभ उठाने वाले छात्रों की संख्या हक़ीक़त में बहुत कम है, क्योंकि कंप्यूटर या इंटरनेट की सुविधा या घर में स्मार्टफोन होना, बिना किसी बाधा के इंटरनेट की पहुंच की गारंटी नहीं है। लॉकडाउन और ऑनलाइन कक्षाओं की लंबी अवधि ने उन घरों में बच्चों के द्वारा झेलने वाली उन समस्याओं का खुलासा किया जहां दो या तीन भाई-बहनों को केवल एक स्मार्टफोन ही नसीब था क्योंकि इससे अधिक खर्च करने की सामर्थ्य उनके माता-पिता के पास नहीं था। इन सभी घरों को, आधिकारिक तौर पर “एक उपकरण” और “इंटरनेट एक्सेस” के रूप में दर्ज़ किया जाएगा, लेकिन हक़ीक़त में इन बच्चों को इस दौरान इंटरनेट से बहुत कम मदद मिली होगी।

लंबे समय तक बच्चों को अपने घरों में एक प्रकार से कैद करके रखना, लंबे समय तक ऑनलाइन रहना और इलेक्ट्रॉनिक स्क्रीन देखना, शारीरिक स्वास्थ्य, आंखों पर तनाव, दृश्यता दोष और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के लंबे समय तक उपयोग के कारण उत्पन्न होने वाले तनाव की गंभीर समस्याएं पैदा कर रहा है। कई रिपोर्टें पीठ दर्द, सिरदर्द, थकान और अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, मोटापा, तनाव और अनिद्रा जैसी समस्याओं की बढ़ती घटनाओं का संकेत देती हैं। शिक्षकों द्वारा सलाह की कमी और अपने साथियों के साथ बातचीत कर पाने का अभाव, उनके द्वारा झेले जाने वाले मानसिक आघात को और भी बढ़ा रही है।

शिक्षा हमारा मूलभूत अधिकार है। इसे कुछ लोगों का विशेषाधिकार नहीं रहने दिया जा सकता। सभी के लिए समान रूप से अच्छी गुणवत्ता वाली कक्षा शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त सरकारी खर्च के विकल्प के रूप में डिजिटल शिक्षा को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। शिक्षा को एक बिक्री-योग्य वस्तु नहीं बनाया जा सकता, जिसे सबसे अधिक लाभदायक मूल्य पर बेचा जाये और जिसे केवल वे ही खरीद सकते हैं जो इस मूल्य पर शिक्षा खरीदने का सामर्थ्य रखते हों। हमें सभी के लिए एक समान शिक्षा प्रणाली की इस मांग के इर्द-गिर्द एकजुट होना चाहिए, जो देश के सभी हिस्सों में सभी बच्चों और युवाओं को एक न्यायोचित अधिकार, अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा की गारंटी देता है।

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