माननीय संपादक महोदय,
मजदूर एकता लहर के 16-31 अक्तूबर के अंक में एक लेख में “निजीकरण के अप्रत्यक्ष तरीकों” के बारे में आपने कई उदाहरण दिए थे। मैं कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण जोड़ना चाहूँगा।
माननीय संपादक महोदय,
मजदूर एकता लहर के 16-31 अक्तूबर के अंक में एक लेख में “निजीकरण के अप्रत्यक्ष तरीकों” के बारे में आपने कई उदाहरण दिए थे। मैं कुछ महत्वपूर्ण उदाहरण जोड़ना चाहूँगा।
पी.पी.पी. (सार्वजनिक-निजी भागीदारी) के नाम पर, विशेषकर आधारभूत संरचना से संबंधित योजनाओं के लिए, नगर-निगम निजी कंपनियों को पानी वितरण, बिजली वितरण, कूड़ा-करकट का व्ययन, शिक्षण आदि सेवाएँ सौंप रहे हैं। गत दो दशकों में “प्रत्यक्ष निजीकरण” का विरोध बढ़ रहा है, यह ध्यान में रखकर सरकार ने अब पी.पी.पी. का नया चोगा निजीकरण के लिए ढूंढ़ा है। जहाँ तक निजी मुनाफाखोरों की बात करें, वे इस नए रूप से अत्यधिक संतुष्ट हैं क्योंकि इन सभी परियोजनाओं के लिए जो हजारों करोड़ रुपयों की लागत की आवश्यकता होती है, उसमें से 90 प्रतिशत केन्द्र तथा राज्य सरकारें खर्च करती हैं और केवल 10 प्रतिशत निजी कंपनी खर्च करती है। और बदले में लाखों-करोड़ों की सार्वजनिक दौलत उनके नियंत्रण में आती है और साथ ही साथ बना-बनाया तैयार बाजार भी उन्हें मिलता है क्योंकि बिजली, पानी, शिक्षण ये सभी इन्सान की बुनियादी जरूरतें हैं। इस तरह सार्वजनिक भागीदारी के नाम पर यह लूट चलेगी। अब और एक नया पहलू भी पी.पी.पी. योजनाओं से जुड़ रहा है। हाल ही में प्रधानमंत्री ने यह कहना शुरू किया है कि पी.पी.पी. से संबंधित कारोबार को सूचना के अधिकार (आर.टी.आई.) कानून के दायरे से बाहर रखा जाये क्योंकि उनमें निजी कंपनियों की भागीदारी है! यानि कि लूट कैसे चल रही है वह हम मालूम भी नहीं कर सकेंगे!
आपका पाठक,
अजित कुमार, ठाणे, महाराष्ट्र