4 नवंबर, 2012 की विचार गोष्ठी में हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के प्रवक्ता का भाषण:
साथियों और दोस्तों!
4 नवंबर, 2012 की विचार गोष्ठी में हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के प्रवक्ता का भाषण:
साथियों और दोस्तों!
नवंबर के इस चौथे दिन पर, 28 वर्ष पहले, दिल्ली में चारों तरफ जली हुई लाशों की बदबू फैली थी। वातावरण तनावपूर्ण था, सड़कों पर सेना तैनात थी। शहर के अलग-अलग गुरुद्वारों में दसों-हजारों विधवा व लावारिस बच्चे कैंपों में तड़प रहे थे।
31 अक्तूबर, 1984 की शाम से, कांग्रेस पार्टी के नेताओं की अगुवाई में गुंडे, अपने हाथों में वोटर लिस्ट लेकर और पुलिस की पूरी सहायता के साथ, सिख धर्म के लोगों के घरों पर आग लगाने लग गये थे।
पुरुषों और बच्चों को जिंदा जलाया गया, महिलाओं का बलात्कार किया गया, लोगों को बेइज़्ज़त किया गया और तरह-तरह के अमानवीय अपराध किये गये। लोगों को टेªनों से बाहर खींच कर जिंदा जलाया गया।
बड़े नियोजित तरीके से तरह-तरह की झूठी अफवाहें फैलायी गयीं, जैसे कि “इंदिरा गांधी की हत्या की खबर सुनकर सिखों ने लड्डू बांटे”, “सिखों ने शहर के पानी में ज़हर मिला दिया है” , इत्यादि। हिन्दुओं और मुसलमानों में यह अफवाह फैलाई गई कि “सिख हमले करने आ रहे हैं!”
गुजरात में 2002 में इसी प्रकार के तरीके अपनाये गये। अखबारों और स्थानीय टी.वी. चैनलों के ज़रिये झूठा प्रचार फैलाया गया, ताकि मुसलमानों का कत्लेआम उकसाया जाये। गोधरा के ट्रेन हत्याकांड के लिये मुसलमानों को दोषी ठहराया गया और अफवाहें फैलायी गईं कि “मुसलमानों ने हिन्दू लड़कियों का अपहरण और बलात्कार किया है” ।
राजीव गांधी ने 1984 के जनसंहार को जायज़ ठहराने के लिये यह ऐलान किया कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है। नरेन्द्र मोदी ने क्रिया-प्रतिक्रिया पर न्यूटन के नियम का जि़क्र करके गुजरात जनसंहार को जायज़ ठहराया।
निरंकुश राजकीय आतंक के प्रयोग को उचित ठहराने के लिये केन्द्र और राज्य की सरकारों ने बार-बार राजकीय आतंक का विरोध करने वालों को “आतंकवादी” , “रूढ़ीवादी” या “अलगाववादी” करार दिया है। पंजाब में विभिन्न पार्टियों द्वारा उठायी गयी राजनीतिक मांगों को कानून और व्यवस्था की समस्या बना दी गयी। कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों के साथ भी ऐसा ही किया गया है। जो अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करते हैं, उन्हें हिन्दोस्तान की एकता और अखंडता के लिये खतरा बताया जाता है।
सत्ता में बैठे लोग यह मंत्र दोहराते रहते हैं कि बीते समय के अपराधों को माफ कर देना और भूल जाना बेहतर है। हमें कहा जाता है कि इतने वर्ष बाद इंसाफ के लिये संघर्ष करने का कोई लाभ नहीं है। इस संघर्ष के साथ जुड़े हम सब लोगों के लिये यह गर्व की बात है कि हम इस दबाव के तले आकर अपना संघर्ष नहीं छोड़े हैं।
इतने सारे प्रगतिशील लोगों और संगठनों के अनवरत संघर्ष की वजह से मोदी सरकार के कम से कम एक नेता को सज़ा दी गयी है। यह एक कदम आगे है, हालांकि इंसाफ पाने के संघर्ष में एक बहुत छोटा कदम है। जनसंहार का मुख्य कर्ता व निर्माता, नरेन्द्र मोदी न सिर्फ मुक्त है बल्कि देश-विदेश में उसे 2014 में प्रधान मंत्री पद के लिये उम्मीदवार बतौर बढ़ावा भी दिया जा रहा है!
साथियों और दोस्तों,
65 वर्ष पहले अपने देश के साम्प्रदायिक बंटवारे के बाद, तत्कालीन प्रधान मंत्री नेहरू ने वादा किया था कि ऐसा फिर कभी नहीं होगा। पर ऐसा बार-बार होता रहा है।
किसी भी समस्या का समाधान उसकी वजह की सही समझ पर आधारित होता है। इस समस्या का स्रोत क्या है? हमारे समाज में साम्प्रदायिक हिंसा बार-बार क्यों होती रहती है?
इतने बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक हिंसा का बार-बार होना यह दिखाता है कि कुछ ऐसे निहित स्वार्थ हैं जिन्हें इन कारनामों से फायदा होता है। कौन हैं वे निहित स्वार्थ और उन्हें इससे क्या फायदा होता है?
1984 में सिखों के जनसंहार से किसे फायदा हुआ?
1985 के लोक सभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने “हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान!” का नारा देकर भारी बहुमत से जीत हासिल की। सिखों को अपने शहीद नेता के कातिल जैसे दर्शाकर और राष्ट्र के दुश्मन करार कर, कांग्रेस पार्टी ने सिखों के खिलाफ़ साम्प्रदायिक अभियान से राजनीतिक फायदा उठाया। बाबरी मस्जिद के घ्वंस और 2002 के गुजरात जनसंहार से भाजपा को चुनावों में फायदा हुआ। इतना तो सभी राजनीतिक तौर पर सक्रिय लोगों को स्पष्ट समझ आता है।
इससे कुछ कम स्पष्ट यह हक़ीक़त है कि साम्प्रदायिक आधार पर लोगों का बंटवारा बड़े इजारेदार घरानों की अगुवाई में सत्तासीन पूंजीपति वर्ग के हितों की सेवा में है। अपने अधिकारों के लिये लोगों के सांझे संघर्षों को इससे गुमराह किया जाता है। अधिकतम मेहनतकशों के हितों के खिलाफ़ लागू किये जा रहे पूंजीवादी सुधार कार्यक्रम के प्रति जनता के विरोध को कमजोर किया व बांटा जाता है। यह कोई इत्तफाक नहीं है कि बीते तीन दशकों में, जब निजीकरण और उदारीकरण के ज़रिये भूमंडलीकरण का अलोकप्रिय कार्यक्रम लागू किया गया है, तो राजकीय आतंक और साम्प्रदायिक हिंसा के सबसे पैशाचिक कांड आयोजित किये गये हैं।
सिखों के जनसंहार और पंजाब में राजकीय आतंकवाद के बाद राजीव गांधी सरकार के आधुनिकीकरण कार्यक्रम का दौर चला। उदारीकरण और निजीकरण कार्यक्रम 1991 में लागू किया गया, जिसके एक वर्ष बाद बाबरी मस्जिद को गिराया गया और देश भर में साम्प्रदायिक हिंसा और तनाव फैलाया गया। गुजरात जनसंहार के आयोजित किये जाने के ठीक बाद, वाजपयी सरकार ने तथाकथित सुधार कार्यक्रम का दूसरा दौर शुरू किया। ये कुछ आकस्मिक घटनायें नहीं हैं। ये घटनायें यह दर्शाती हैं कि साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक हिंसा बड़े पूंजीपतियों के पसंदीदा हथकंडे हैं, जिनके सहारे वे अपना आर्थिक कार्यक्रम लोगों पर थोपते हैं।
आज इजारेदार पूंजीपति अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को पूरा करने के इरादे से, लोगों का शोषण-दमन तेज़ करते हुये, नये-नये आर्थिक सुधारों को लागू करने के प्रयास कर रहे हैं। इन हालतों में, साम्प्रदायिक व समुदायिक हिंसा के नये-नये कांड आयोजित किये जाने का खतरा एक बहुत ही असली खतरा है। बीते कुछ महीनों में असम के भयानक हत्याकांड और पूर्वोत्तर मूल के लोगों के खिलाफ़ आतंक की मुहिम में इसका संदेश मिलता है।
साथियों और दोस्तों,
बीते 28 वर्षों की गतिविधियों से एक सच्चाई स्पष्ट सामने आती है, कि वर्तमान लोकतंत्र की व्यवस्था में अधिकतम लोग पूरी तरह राज्य सत्ता से वंचित हैं। इस व्यवस्था के चलते लोगों के चुने गये प्रतिनिधि राज्य सत्ता का इस्तेमाल करके साम्प्रदायिक हिंसा आयोजित कर सकते हैं और उसे रोकने के लिये लोगों के पास कोई साधन नहीं है। इस समझ के बढ़ने के साथ-साथ, लोगों को सत्ता में लाने का आन्दोलन विकसित हो रहा है। यह स्पष्ट हो रहा है कि लोगों को सत्ता में लाने के लिये मौजूदा लोकतंत्र की व्यवस्था और उसकी राजनीतिक प्रक्रिया में आमूल परिवर्तन की जरूरत है।
हमारे संघर्ष को आगे बढ़ाने के रास्ते में एक सबसे बड़ी रुकावट यह सोच है कि 1950 के संविधान की मूल रूपरेखा को हमें नहीं बदलना चाहिये। सच्चाई तो इसका उल्टा है। मौजूदे संविधान के दायरे के अंदर, गुनहगारों को सज़ा दिलाने और साम्प्रदायिक हिंसा को खत्म करने का संघर्ष विजयी नहीं हो सकता है।
26 जनवरी, 1950 को अपनाया गया संविधान ज़मीर के अधिकार को कानूनी अधिकार नहीं मानता है, न ही वह दूसरे मानव अधिकारों को अलंघनीय मानता है। देश में विभिन्न राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं और आदिवासियों को वह कोई पहचान नहीं देता है। इस संविधान को एक ऐसी संविधान सभा द्वारा बनाया गया था, जिसे साम्प्रदायिक आधार पर चुना गया था, जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों के अलग-अलग चुनाव क्षेत्र थे, और जो सिर्फ शिक्षित व निजी संपत्ति वाले पुरुषों तक सीमित था।
संविधान यह ऐलान करता है कि हिन्दोस्तान एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य है, परन्तु वह लोगों को धर्म और जाति के आधार पर बांटता है। यह बर्तानवी उपनिवेशवादियों की धर्मनिरपेक्षता है, जो ”बांटों और राज करो“ की उनकी नीति को लागू करने का एक हथकंडा है। उपनिवेशवादियों का यह मनगढ़ंत विचार था कि हिन्दोस्तान में आपस में लड़ने वाले धार्मिक समुदाय हैं और उन्हें एक-दूसरे का कत्ल करने से रोकने वाला साधन उपनिवेशवादी राज्य है।
हमारे देश के नेता “साम्प्रदायिक सद्भावना” का प्रचार करते हैं, यह छिपाने के लिये कि हिन्दोस्तानी राज्य साम्प्रदायिक है, न कि हिन्दोस्तान के लोग। राज्य की पूरी मशीनरी तथा सशस्त्र बल भी साम्प्रदायिक आधार पर संगठित हैं। हमारी जनता के इस या उस भाग के खिलाफ़ लगातार नफ़रत का प्रचार करना, सत्तासीन पार्टियों द्वारा साम्प्रदायिक कत्लेआम आयोजित करना, यह सब इस तथाकथित धर्मनिरपेक्ष संविधान के अनुसार किया जाता है।
इस हिन्दोस्तानी राज्य के लोकतंत्र के चलते, लोगों का अपने जीवन पर असर डालने वाले फैसलों पर कोई नियंत्रण नहीं है। कार्यकारिणी, विधायिकी या न्यायपालिका पर लोगों का कोई नियंत्रण नहीं है। जब सत्ता में बैठी ताकतें लोगों के अधिकारों पर हमले करते हैं तो लोगों के पास चुपचाप सहने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है।
मौजूदे संविधान के आधार पर बनाये गये राज्य की जगह पर, एक नये संविधान पर आधारित एक नया राज्य स्थापित करना आवश्यक है। इस नये संविधान को मानवीय, लोकतांत्रिक और राष्ट्रीय अधिकारों की गारंटी देनी पड़ेगी। इन्हें लागू करने के लिये सक्षम कानून तथा कुशल तंत्रों की जरूरत है। हरेक निर्वाचन क्षेत्र में लोगों को पक्ष-निरपेक्ष समितियों में संगठित होना होगा, यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी चुने गये प्रतिनिधि लोगों के प्रति हमेशा जवाबदेह हों। ऐसा राज्य यह सुनिश्चित करने को वचनबद्ध होगा कि अर्थव्यवस्था सभी को खुशहाली और सुरक्षा दे, न कि सिर्फ कुछ चंद शोषकों की अमीरी को बढ़ाती जाये।
साथियों और दोस्तों!
यह एक सवाल उठा है कि इंसाफ के संघर्ष में क्या हम अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और तरह-तरह के अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों का इस्तेमाल कर सकते हैं। सभी संभव तरीकों का इस्तेमाल करने से कोई नुकसान नहीं है। परन्तु हमारे मन में कोई ऐसा भ्रम नहीं होना चाहिये कि अंतर्राष्ट्रीय संस्थान निष्पक्षता के साथ, लोकतांत्रिक असूलों की रक्षा करेंगे। जब समाजवादी सोवियत संघ राष्ट्रों और लोगों के अधिकरों की हिफ़ाज़त करने में सक्रिय था, तब इनमें से कुछ संस्थानों ने प्रगतिशील भूमिका निभायी थी। वर्तमान समय पर, इन सारे संस्थानों में बड़ी-बड़ी साम्राज्यवादी ताकतें हावी हैं।
अक्सर यह उदाहरण दिया जाता है कि अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्याय अदालत (आई.सी.सी.) का प्रयोग करके मिलोसोविच जैसे शक्सों पर मुकदमा चलाया गया है। इसमें इंसाफ सिर्फ विजेता को मिला है। अमरीका और उसके मित्रों ने आई.सी.सी. का प्रयोग करके अपने प्रतिरोधियों को सज़ा दिलायी थी। आई.सी.सी. ने जार्ज बुश और टोनी ब्लेयर पर मुकदमा क्यों नहीं चलाया और उन्हें सज़ा क्यों नहीं दी, जब कि वे अफगानिस्तान, इराक व अन्य जगहों पर वहशी जंग अपराधों के दोषी हैं?
हमारे लोगों की एकता और अपने अधिकारों को जीतने तथा समाज का अजेंडा तय करने का हमारा सांझा संघर्ष, यही हमारी ताकत का सबसे विश्वसनीय स्रोत है।
यह स्पष्ट है कि जो खुद अपने अजेंडे को बढ़ावा देने के लिये साम्प्रदायिक और सामुदायिक हिंसा का इस्तेमाल करते हैं, वे खुद को सज़ा नहीं दिलाने वाले हैं। लोगों को इन गुनहगारों को सज़ा देनी होगी। इसके लिये, लोगों को संगठित होना होगा तथा अपने हाथ में सत्ता लेनी होगी।
1857 के महान ग़दर ने यह दिखाया था कि हमारी जनता अपने सांझे दुश्मनों के खिलाफ़ सांझा संघर्ष करने के लिये, अपने धार्मिक, राष्ट्रीय और सांस्कृतिक अंतरों को भुलाकर एकजुट होने के काबिल है। बर्तानवी उपनिवेशवादियों ने हमारे लोगों की संघर्षरत एकता को तोड़ने और हमारी प्रगतिशील परंपराओं को नकारने के लिये यूरोपीय पूंजीवादी संस्थानों को थोपा था। वर्तमान राज्य और संविधान, जिस पर यह राज्य आधारित है, उसी उपनिवेशवादी विरासत की निरंतरता है, जैसा कि लोक राज संगठन के अध्यक्ष ने अपने प्रारंभिक वक्तव्य में बताया था। आज 21वीं सदी में एक नये ग़दर की आवश्यकता है, जो हमारे अधिकारों को कुचलने वाले इस साम्प्रदायिक राज्य और इस उपनिवेशवादी विरासत को नकारेगा।
गुनहगारों को सज़ा दिलाने का संघर्ष और साम्प्रदायिक हिंसा को खत्म करने के लिये एक सक्षम कानून के लिये संघर्ष हिन्दोस्तान के नवनिर्माण के संघर्ष का हिस्सा है। यह सभी को खुशहाली और सुरक्षा दिलाने वाली एक मानवीय राजनीतिक सत्ता की नयी नींव डालने का संघर्ष है। यह हमारे शहीदों के जज़बातों को पूरा करने का संघर्ष है।
धन्यवाद!