अमरीका विश्व पर अपना प्रभुत्व जमाये रखने के अपने एजेंडे के इर्द-गिर्द अपने सहयोगियों को एकजुट करना चाहता है

अमरीकी राष्ट्रपति, जो बाइडन ने अपना पद संभालने के छह महीने बाद, अमरीका के मुख्य सहयोगियों के साथ बैठक करने के लिए पहली विदेश यात्रा की। 10 जून से 14 जून तक वे जी-7 समूह के देशों के नेताओं से मिलने के लिए इंग्लैंड और यूरोप गए। इस यात्रा के दौरान उन्होंने दुनिया की इन सबसे अमीर पूंजीवादी शक्तियों के साथ-साथ, अमरीका के नेतृत्व वाले सैन्य गठबंधन, नाटो से संबंधित देशों के प्रमुखों से भी मुलाक़ात की।

इस यात्रा का संदर्भ, अमरीकी साम्राज्यवाद के प्रभुत्व में एकधु्रवीय दुनिया की स्थापना के उद्देश्य को हासिल करने के लिए बढ़ती चुनौतियां थी। 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद से, अमरीकी साम्राज्यवाद ने अपने खुदगर्ज़ हितों और उद्देश्यों को हासिल करने के लिए दुनिया के किसी भी हिस्से में जो कुछ भी करना ज़रूरी है, वह करने का अधिकार उसने अपने आप को दे दिया है। पिछले तीन दशकों के दौरान, अमरीका ने यूगोस्लाविया, अफ़ग़ानिस्तान, इराक, लीबिया और सीरिया सहित दुनिया के कई देशों पर आक्रमण किये हैं और उन्हें बर्बाद कर दिया है। ईरान, उत्तर कोरिया और क्यूबा जैसे देश, जिन्होंने अमरीका की दादागिरी और धमकियों का विरोध किया है – ऐसे देशों को अमरीका ने उन पर लगाये गए अमानवीय आर्थिक प्रतिबंधों के द्वारा और उत्तेजक सैन्य युद्धाभ्यासों का इस्तेमाल करके, उनको धमकाने और उनकी बेइज्ज़ती करने की कोशिश की है। रूस को नियंत्रित करने और घेरने के लिए, उसने पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया के कई देशों में अशांति फैलाने और विद्रोह आयोजित करने की कोशिश है ताकि वहां की सरकारों की जगह, अमरीका द्वारा समर्थित शासकों की हुकूमत बन सके। बढ़ते चीन पर दबाव बनाने के लिए अमरीका ने चीन के पड़ोस के समुद्र में सैन्य युद्धाभ्यास करने के लिए (अमरीका ने जापान, ऑस्ट्रेलिया और हिन्दोस्तान से मिलकर) क्वाड जैसे नए समूह बनाए हैं।

इन सभी गतिविधियों में अमरीकी साम्राज्यवाद ने, देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता से संबंधित, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और मानदंडों का लगातार उल्लंघन किया है। इस अवधि में, अमरीकी साम्राज्यवाद के कारनामों की एक प्रमुख विशेषता यह रही है कि अपने मंसूबों को हासिल करने के लिए उसने संयुक्त राष्ट्र संघ पर दवाब डालकर, जब और जैसे चाहा उसका इस्तेमाल किया है और जब ज़रूरत पड़ी तो संयुक्त राष्ट्र संघ को पूरी तरह से दरकिनार करके अपने गंदे कामों को अंजाम देने के लिए अपना खुद का गठबंधन (जिसे “इच्छुकों का गठबंधन” कहा जाता है) भी बनाया है। इन गठबंधनों में नाटो जैसे औपचारिक सैन्य गठबंधन शामिल हैं। परन्तु इसके अलावा ज़रूरत पड़ने पर, दुनिया के कई देशों को या तो रिश्वत देकर या डरा-धमकाकर, ब्लैकमेल करके उन्हें अपने गठबन्धनों में हिस्सा लेने के लिए मजबूर भी किया है। इन गठबंधनों के ज़रिये अमरीकी साम्राज्यवाद ने अपने खुदगर्ज़ इरादों को हासिल करने के लिए अन्य देशों के संसाधनों और जनशक्ति का शोषण किया है, उनका इस्तेमाल किया है। अमरीका ने अपने हितों की हिफ़ाज़त करने के लिए दुनिया पर लादे गए अपने अभियानों को, अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी के रूप में पेश करके उन्हें वैध साबित करने की भी कोशिश की है, लेकिन हक़ीक़त हमारे सामने है – यह पूरी दुनिया पर अपने हुक्म को लागू करने के लिए एक आक्रामक शक्ति की कार्रवाई के अलावा और कुछ नहीं है।

हाल के वर्षों में वैश्विक प्रभुत्व जमाये रखने के लिए अमरीकी साम्राज्यवादी प्रयासों को बढ़ती चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। अफ़ग़ानिस्तान और सीरिया जैसे देशों में उसके लंबे समय से चले आ रहे सैन्य अभियान, इन देशों के लोगों के जबरदस्त प्रतिरोध के कारण, विफल हो गए हैं। ईरान, क्यूबा और उत्तर कोरिया को डराने-धमकाने की उसकी कोशिशें क़ामयाब नहीं हुई हैं। अमरीका को पूर्वी यूरोप और पश्चिम एशिया दोनों में रूस के कड़े सैन्य विरोध का सामना करना पड़ा है। चीन की शक्ति में लगातार वृद्धि से अमरीका को ख़तरा है और न केवल अमरीका में ही बल्कि अमरीका से जुड़े अन्य देशों में तथा विदेशों में भी अमरीकी आक्रमण और हस्तक्षेप के विरोध में, बड़ी संख्या में आम लोग बार-बार सड़कों पर पर उतरे हैं। वैश्वीकरण के नाम पर इजारेदार पूंजीवादी कंपनियों के वर्चस्व और लूट के ख़िलाफ़, आम लोगों ने अपना जबरदस्त विरोध बार-बार, अलग-अलग तरीक़ों से व्यक्त किया है। यूरोप में उसके सहयोगियों के बीच भी, अमरीका की नीतियों का विरोध होता रहा है।

बाइडन की इंग्लैंड और यूरोप की यात्रा इसी पृष्ठभूमि में हुई। अमरीका ने यह साबित करने की कोशिश की कि यह लोकतंत्र और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को क़ायम रखने जैसे मूल्यों पर आधारित समान विचारधारा वाले भागीदारों की एक बैठक है। हालांकि, हक़ीक़त में अमरीका द्वारा अपने सहयोगियों को अपनी नीतियों के अनुरूप ढालने का यह एक प्रयास था। विशेष रूप से यह चीन और रूस के ख़िलाफ़ बढे़ हुए विरोध और आक्रामक युद्ध का ऐलान करने की प्रक्रिया भी थी।

न्यू अटलांटिक चार्टर पर हस्ताक्षर

इससे पहले कि बाइडन जी-7 देशों के समूह और नाटो के नेताओं से मिले, उन्होंने सबसे पहले 10 जून को ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के साथ आमने-सामने की एक बैठक की। इस बैठक का परिणाम एक समझौते पर हस्ताक्षर करना था जिसे कहा गया था – द न्यू अटलांटिक चार्टर

मूल अटलांटिक चार्टर पर 80 साल पहले 1941 में, अमरीकी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट और ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल के बीच द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हस्ताक्षर किए गए थे। इसने ब्रिटेन और अमरीका के बीच बढ़ते संबंधों में एक नए चरण का संकेत दिया, जिसमें ब्रिटेन स्पष्ट रूप से कमजोर भागीदार था जो अमरीका की सहायता पर निर्भर था, जबकि अमरीका प्रमुख भागीदार के रूप में उभरा। हालांकि उस समय भी दुनिया के एक विशाल साम्राज्य पर ब्रिटेन की हुकूमत क़ायम थी, लेकिन उससे पहले के कुछ दशकों में उसकी ताक़त में गिरावट आई थी और हिटलर के जर्मनी के साथ युद्ध में ब्रिटेन बुरी तरह कमजोर हो गया था।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, अमरीकी साम्राज्यवाद बहुत मजबूत हुआ। युद्ध के बाद की दुनिया पर हावी होने की अपनी योजना को लागू करने के लिए उसने अपने विशाल आर्थिक और सैन्य संसाधनों का इस्तेमाल किया। इसका मुख्य उद्देश्य था, सोवियत संघ और द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में उभरे अन्य समाजवादी देशों से समाजवाद को नष्ट करना और राष्ट्रीय मुक्ति के लिए क्रांतिकारी संघर्षों को कुचलना, ताकि पूरी दुनिया में साम्राज्यवादी शोषण का विस्तार और तेज़ी से किया जा सके। इन मंसूबों को हासिल करने के लिए अमरीका ने नाटो, सीटो और सेंटो जैसे आक्रामक सैन्य गठबंधन स्थापित किए। अमरीका ने सोवियत संघ और अन्य समाजवादी देशों के खि़लाफ़, संयुक्त राष्ट्र और युद्ध के बाद की दुनिया में स्थापित अन्य अंतरराष्ट्रीय निकायों में, हर प्रकार के तरीक़ों से जिं़दगी और मौत की लड़ाई जारी रखी। उसने विश्व बैंक और आई.एम.एफ. की स्थापना की और इनमें अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसने ग़रीब और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं को नियंत्रित करने और इन देशों के शोषण को और भी तेज़ करने के लिए अमरीकी “सहायता” का इस्तेमाल किया। अमरीका ने ग़रीब और विकासशील देशों में क्रांति और समाजवाद को रोकने के लिए, कोरिया और वियतनाम में खूनी युद्ध लड़े। इन सभी गतिविधियों में अमरीकी साम्राज्यवाद को उसके द्वारा बनाए गए गठबंधनों के अन्य सदस्यों द्वारा सहायता प्रदान की गई थी। इनके केंद्र में ब्रिटेन के साथ उसका गठबंधन था, जिसे पहली बार 1941 के अटलांटिक चार्टर में औपचारिक रूप दिया गया था। जबकि ये साम्यवाद (कम्युनिज़्म) के ख़िलाफ़, तथाकथित मुक्त दुनिया के लिए लड़ने के नाम पर किए गए थे, इनका उद्देश्य दुनिया पर अमरीकी साम्राज्यवादी वर्चस्व को स्थापित करना और उसका विस्तार करना था।

अस्सी साल बाद एक नए अटलांटिक चार्टर पर हस्ताक्षर करके, अमरीकी साम्राज्यवाद ब्रिटेन और बाकी यूरोप के लोगों को संदेश दे रहा है कि उन सभी देशों पर अपना प्रभुत्व छोड़ने का उसका कोई इरादा नहीं है।

जी-7 की बैठक

11 से 13 जून तक बाइडन ने इंग्लैंड में आयोजित ग्रुप ऑफ सेवन (जी-7) शिखर सम्मेलन में भाग लिया। जी-7 की बैठक दुनिया की सबसे अमीर पूंजीवादी-साम्राज्यवादी शक्तियों के शासनाध्यक्षों की वार्षिक बैठक है। इसमें अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा, इटली और जापान शामिल हैं। इसकी बैठकें 1975 में शुरू हुई थीं, ऐसे समय में जब पूंजीवाद ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार गहरी मंदी के दौर में प्रवेश किया था। संयुक्त राष्ट्र संघ को दरकिनार करते हुए, विश्व बैंक और आई.एम.एफ. पर हावी देशों का यह छोटा समूह, पूरी दुनिया को प्रभावित करने वाले निर्णयों को लेने के लिए, इस मंच का इस्तेमाल करता आया है। इसमें न केवल अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वित्त को प्रभावित करने वाले निर्णय शामिल हैं, बल्कि राजनीतिक और सैन्य मामले भी शामिल हैं। हालांकि, हाल के वर्षों में चीन की बढ़ती आर्थिक ताक़त के साथ-साथ, वैश्विक अर्थव्यवस्था में इन देशों के सामूहिक महत्व और प्रभुत्व में गिरावट आई है।

जून में हुई जी-7 की शिखर बैठक ने इस समूह के विदेश मंत्रियों की पिछली बैठक में लिए गए निर्णयों को औपचारिक रूप दिया (देखें मज़दूर एकता लहर का लेख ीजजचरूध्ध्ीपदकपण्बहचपण्वतहध्20815 पर) इसका ऐलान “बिल्ड बैक (ए) बेटर वल्र्ड” (बी3डब्ल्यू) के नारे के साथ किया गया था। यह दुनिया के बाकी हिस्सों को यह समझाने के प्रयास का उदाहरण है कि दुनिया को अपनी वर्तमान प्रमुख समस्याओं का हल निकालने के लिए इस समूह के नेतृत्व की ज़रूरत है। हालांकि, इस बैठक में की गयी चर्चा में सार बहुत कम था। उदाहरण के लिए, जी-7 देशों को टीकों की जमाखोरी के लिए अन्य देशों द्वारा आलोचना का सामना करना पड़ा है, जबकि पूरी दुनिया में कोविड महामारी फैली हुई है। इस शिखर वार्ता में उनके नेताओं ने बाकी दुनिया को वैक्सीन की आपूर्ति करने का वादा किया। हालांकि, हक़ीक़त में उनके आश्वासन, दुनिया की ज़रूरतों से बहुत कम हैं – इन वायदों से उनकी आपूर्ति संभव नहीं है।

अमरीकी साम्राज्यवाद के लिए एक बड़ी चिंता, चीन और 138 अन्य देशों के बीच हाल के वर्षों में हस्ताक्षरित समझौते हैं, जिनमें उन देशों में सड़कों, पाइपलाइनों, बंदरगाहों और अन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए चीनी निवेश शामिल है। चीन की इस बड़ी पहल को बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बी.आर.आई.) के नाम से जाना जाता है। इटली और जर्मनी सहित कई यूरोपीय देश बी.आर.आई. का हिस्सा हैं। यह अमरीका के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है।

जी-7 शिखर सम्मेलन में अमरीका ने अपने भागीदारों पर यह घोषणा करने के लिए दबाव डाला कि वे मिलकर, अन्य देशों की बुनियादी ढांचे की ज़रूरतों को पूरा करने में मदद करने के लिए चीन के बी.आर.आई. से बेहतर विकल्प को पेश करेंगे। हालांकि, इसके लिए न तो कोई सुसंगत योजना की रूपरेखा पेश की गई और न ही ऐसे उद्यम के लिए प्रस्तावित परियोजनाओं या उनके लिए धन के स्रोत का उल्लेख किया गया।

अमरीकी साम्राज्यवाद ने अन्य मोर्चों पर भी आज की दुनिया में मुख्य चुनौती के रूप में चीन का सामना करने के लिए अपने सहयोगियों को एकजुट करने की पूरी कोशिश की। यह बैठक के अंत में जारी संयुक्त बयान में स्पष्ट देखने में आया, जिसमें शिनजियांग और हांगकांग में मानवाधिकारों और ताइवान समुद्र-संधि और दक्षिण और पूर्वी चीन सागर में नौपरिवहन की स्वतंत्रता सहित कई संदर्भों में चीन की निंदा की गई। हालांकि, यह स्पष्ट था कि अमरीका को इस छोटे से समूह के भीतर भी चीन के ख़िलाफ़ एक आम मोर्चा बनाने में कठिनाई हो रही थी। कई जी-7 के सदस्यों की चीन के साथ एक मजबूत आर्थिक सांझेदारी है, जिसे छोड़ने की संभावना नहीं है।

शिखर सम्मेलन में जी-7 के नेताओं ने दावा किया कि उनके देश “नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था” के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह पाखंड की पराकाष्ठा है – सफेद झूठ बोलने की हद है। यह अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके सहयोगी ही हैं जो हर समय, बिना किसी रोक या अंकुश के अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हैं। हाल ही में, अमरीकी साम्राज्यवादियों ने, ग़ाज़ा पट्टी में फिलिस्तीनियों पर जबरदस्त बमबारी करने और फिलिस्तीनियों को मारने के लिए दुनियाभर में की जा रही इस्राइल की निंदा में शामिल होने से इनकार कर दिया, जबकि अमरीका अन्य देशों पर “आतंकवादी” का लेबल लगाने में कोई संकोच नहीं करता। अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा बनाए गए और उसके सहयोगियों द्वारा समर्थित नियमों का अंतर्राष्ट्रीय कानून और राष्ट्र-राज्यों के बीच सभ्य व्यवहार से कोई लेना-देना नहीं है।

इस जी-7 शिखर सम्मेलन में हिन्दोस्तान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और दक्षिण कोरिया को अतिथि के रूप में कार्यवाही में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया था। यह पहल अपने साम्राज्यवादी हितों को आगे बढ़ाने के लिए हिंद-प्रशांत महासागर क्षेत्र में इन देशों का गठबंधन बनाने की अमरीकी रणनीति का एक हिस्सा है।

नाटो शिखर सम्मेलन

जी-7 शिखर सम्मेलन के बाद 14 जून को बेल्जियम के ब्रसेल्स में अपने मुख्यालय में उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के नेताओं की बैठक हुई।

70 से अधिक वर्षों से नाटो दुनियाभर में, अपने आक्रामक युद्धों को अंजाम देने के लिए अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में एक अग्रणी सैन्य गठबंधन रहा है।

पश्चिमी यूरोप के देशों में क्रांति को रोकने के लिये और द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में स्थापित सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में लोकतांत्रिक देशों में समाजवाद को नष्ट करने के लिए नाटो की स्थापना की गई थी।

साठ के दशक में सोवियत संघ के एक सामाजिक-साम्राज्यवादी शक्ति में तब्दील होने के बाद, सोवियत संघ के साथ वैश्विक प्रभुत्व के लिए अमरीका द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एक प्रमुख साधन नाटो था, इन दोनों साम्राज्यवादी शक्तियों की होड़ को शीत युद्ध के रूप में जाना जाने लगा। सोवियत संघ का पतन होने के बाद भी नाटो का पतन नहीं हुआ। इसके विपरीत, अमरीका के एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरने के साथ, इसने अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम एशिया और पूर्व यूगोस्लाविया सहित, पूरे विश्व में अपने वर्चस्व को और बढ़ाने के अपने प्रयासों में नाटो का बखूबी से इस्तेमाल किया।

रूस की बड़ी और बढ़ती हुई सैन्य शक्ति के लगातार ख़तरे को देखते हुए, नाटो पिछले कुछ वर्षों से रूस के साथ लगातार टकराव में लगा हुआ है। इसने रूस को घेरने और अलग-थलग करने के उद्देश्य से जानबूझकर बड़ी संख्या में उन राज्यों को अपने खेमे में शामिल किया है जो पहले सोवियत संघ या यूरोप में समाजवादी शिविर का हिस्सा थे। इससे वर्तमान में इसकी सदस्यता 12 से 30 राज्यों तक बढ़ गई है। हालांकि, रूस से यूक्रेन और बेलारूस को अलग करने के लिए अमरीका और उसके सहयोगियों द्वारा किए गए प्रयासों का, उन देशों में और रूस द्वारा ज़ोरदार विरोध किया गया है। सीरिया में बशर-अल-असद की सरकार को उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से 2011 में अमरीका और उसके सहयोगियों द्वारा शुरू किए गए आक्रमण का विरोध करने और उसे हराने में भी, रूस ने सीरिया की बशर-अल-असद सरकार की सहायता की है। इन सभी कारणों से हाल ही में नाटो शिखर सम्मेलन, रूस के ख़िलाफ़ गुस्से से भरे युद्ध के शोर से गूंज उठा और रूस को नाटो के मुख्य विरोधी के रूप में पेश किया गया।

इस शिखर सम्मेलन में अमरीका का एक प्रमुख उद्देश्य, नाटो को चीन के साथ अपने बढ़ते टकराव की ओर अधिकाधिक आकर्षित करना भी था। हाल के वर्षों में चीन की आर्थिक, तकनीकी और सैन्य शक्ति में लगातार वृद्धि के साथ, अमरीकी साम्राज्यवाद अपने वैश्विक प्रभुत्व को क़ायम रखने के रास्ते में चीन को सबसे गंभीर ख़तरे के रूप में देख रहा है। चीन के ख़िलाफ़ व्यापार युद्ध और प्रचार-प्रसार जो अमरीका में पिछले ट्रम्प शासन द्वारा किया गया था, उसे न केवल जारी रखा जा रहा है बल्कि बाइडन सरकार के तहत और आगे बढ़ाया जा रहा है। इस हक़ीक़त के बावजूद कि नाटो के सभी सदस्य चीन को समान रूप से नहीं देखते हैं, अमरीका ने यह सुनिश्चित किया कि पहली बार, नाटो शिखर सम्मेलन के अंत में जारी किए गए बयान में स्पष्ट रूप से रूस के अलावा चीन को नाटो के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में निर्दिष्ट किया गया है।

चीन को नाटो के लिए एक चुनौती के रूप में पेश करने के ख़तरनाक परिणाम हो सकते हैं, क्योंकि यह एशिया के इस हिस्से में, अमरीकी आक्रामक उपस्थिति को गहरा करने का प्रतीक है। पहले से ही हिन्दोस्तानी राज्य को लालच देकर क्वाड समूह में शामिल किया जा चुका है, जिस समूह का उद्देश्य, स्पष्ट रूप से दक्षिण और पूर्वी चीन सागर और हिंद महासागर में चीन की आवाजाही की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करना है। यह “नौपरिवहन की स्वतंत्रता” सुनिश्चित करने के नाम पर किया जा रहा है, जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन और अंतर्राष्ट्रीय कानून, स्पष्ट रूप से अपने क्षेत्रीय जल पर किसी देश के अधिकारों और संप्रभुता को मान्यता प्रदान करते हैं।

इस नारे का परिणाम क्या हो सकता है, कुछ हफ्ते पहले, हिन्दोस्तान को इसका खुद अनुभव करने का मौका मिला कि कैसे “नौपरिवहन की स्वतंत्रता” के अमरीकी नारे का इस्तेमाल किसी देश की संप्रभुता का उल्लंघन करने के लिए किया जा सकता है। 7 अप्रैल को, एक अमरीकी युद्धपोत बिना किसी चेतावनी के लक्षद्वीप के पास हिन्दोस्तानी जल क्षेत्र से गुजरा। यह केवल इस बात को साबित करने के लिए किया गया था कि सभी स्वीकृत कानूनों और परंपराओं का उल्लंघन करते हुए, अमरीका को जहां चाहे वहां जाने का “अधिकार” है। इससे एक बार फिर यह स्पष्ट हो गया कि अमरीका का सहयोगी या भागीदार होना, उसके हिंसक व्यवहार से किसी को भी कोई सुरक्षा की गारंटी नहीं देता है।

निष्कर्ष

अटलांटिक चार्टर का पुनरुद्धार जी-7 शिखर सम्मेलन की कार्यवाही और जून में नाटो शिखर सम्मेलन, इस बात का स्पष्ट संकेत है कि अमरीकी साम्राज्यवाद चीन, रूस और इसके रास्ते में आने वाले सभी देशों के साथ टकराव के ख़तरनाक रास्ते पर चल रहा है। हालांकि, वो ऐसा केवल अकेले नहीं करना चाहता। अमरीका, अपना वैश्विक वर्चस्व जमाये रखने के अपने स्वार्थी एजेंडे को पूरा करने के लिए अपने सहयोगियों के संसाधनों और ताक़तों का इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहा है। अपनी आक्रामक कोशिशों के विरोध के ख़तरे के डर का सामना कर रहे, अमरीकी साम्राज्यवाद ने अपने उग्रवादी रुख़ को और भी सशक्त किया है और वह अब अपने विरोधियों और साथ-साथ अपने सहयोगियों, दोनों पर दबाव बना रहा है। अमरीकी साम्राज्यवाद के ये प्रयास, आज दुनिया में बढ़ते तनाव और संघर्ष का मुख्य कारण हैं। यह लोगों की शांति और सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है।

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