प्रिय साथी,
लेनिन की 151वीं जयंती के अवसर पर प्रकाशित लेख का दूसरा भाग – लेनिन और समाजवाद के निर्माण के लिए संघर्ष – को पढ़ा।
लेख में कई महत्वपूर्ण पहलू आए हैं। मैं दो पहलुओं पर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं।
पहला कि बोल्शेविक पार्टी ने 7 नवम्बर, 1917 को अंतरिम सरकार को गिरफ़्तार करने के साथ ही देश के वित्त, संचार, परिवहन के सभी साधनों पर कब्ज़ा कर लिया। वित्त संस्थानों पर कब्ज़ा न करना, जो पेरिस कम्यून की असफलता का एक मुख्य कारण था, उस सबक को बोल्शेविक पार्टी ने याद रखा। फ्रांस के पूंजीपति वर्ग ने इसी वित्त का इस्तेमाल, क्रांति को दबाने के लिए किया।
दूसरा कि लेनिन की अगुवाई में बोल्शेविक पार्टी की जनता की नब्ज पर पकड़ थी। बोल्शेविक पार्टी के नारे – शांति, ज़मीन और रोटी – को रूस के मजदूरों, किसानों और सैनिकों ने हाथों-हाथ लिया। जनता को यह विश्वास नहीं था कि तत्कालीन अंतरिम सरकार उपरोक्त नारे के अंदर की गई मांगों को पूरा कर सकेगी। लेकिन सैनिक, मज़दूर और किसान को बोल्शेविक पार्टी पर विश्वास था।
युद्ध में फसे हुये देश में शांति, बेज़मीन वालों के लिए ज़मीन और पूरे देश को रोटी खिलाना, उस वक्त के लिए सबसे मुश्किल मांगें थीं। बोल्शेविक पार्टी को खुद पर भरोसा था कि इस नारे को हक़ीक़त में पूरा करके दिखा सकती है।
शांति और रोटी को लेकर, क्रांति की अनिच्छा रखने वाले साम्राज्यवादी और उनके एजेंट, जो उस वक्त पार्टी के अंदर थे, फूट डालने की लगातार कोशिश करते रहे।
वे ‘शांति’ नहीं बल्कि नवजात समाजवादी रूस को युद्ध में फंसाना चाहते थे।
भोजन की ज़रूरत को पूरा करने के लिए पार्टी द्वारा घोषित नई आर्थिक नीति की उन्होंने यह कहकर आलोचना किया कि यह नीति देश को पूंजीवादी दलदल में फंसा देगी। पार्टी के अंदर प्रतिक्रांतिकारी मध्यम दर्जे के किसानों को नवजात समाजवादी रूस के खि़लाफ़ भड़काने का रास्ता ढूंढ रहे थे। पर आगे चलकर परिणामों से यह साबित हुआ कि लेनिन की अगुवाई में बोल्शेविक पार्टी सही थी।
तत्कालीक समय में शांति की क़ीमत को बोल्शेविक पार्टी ने पहचाना। हालांकि इस क़ीमत के बदले रूस का काफी बड़ा हिस्सा जर्मनी को सौंपना पड़ा।
ज़मीन जोतने वालों को ज़मीन दी गई।
पूरे देश में रोटी की मांग को पूरा करने के लिए, उत्पादन को बढ़ाने के लिए, नई आर्थिक नीति को लागू किया गया। यह तात्कालीक पूंजीवादी नीति थी। पार्टी नहीं चाहती थी कि मध्यम किसान, जिसने युद्ध काल में अधिशेष अनाज को राज्य को दिया, लेकिन उसके बाद वह ऐसा करने में असंतोष व्यक्त करने लगा, यह असंतोष नई समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के रास्ते में रुकावट बने। धीरे-धीरे उन्हें राज्य की सहकारी कृषि की ओर लाने में पार्टी कार्यकर्ताओं को बड़ी सूझबूझ के साथ उनके साथ काम करने को हिदायत दी गई। जैसा कि लेख में स्पष्ट आया है कि ‘कम्युनिस्ट सरकार द्वारा प्रस्तावित प्रत्येक उपाय को, मध्यम किसानों के बीच, केवल एक सलाह के रूप में, एक सुझाव के रूप में, उन्हें नयी व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए एक निमंत्रण के रूप में ले जाना चाहिए।’
मंसूर, नई दिल्ली