प्रिय संपादक,
“कोविड टीकाकरण का निजीकरण जनविरोधी है” लेख में सही बयान किया गया है कि भारत की नई वैक्सीन नीति लोगों के कल्याण के लिए नहीं बल्कि निजी वैक्सीन उत्पादकों और निजी अस्पतालों के लाभ के लिए बनाई गई है। भारत उन चन्द देशों में से एक है जहां लोगों को वैक्सीन खरीदनी पड़ रही है। इससे भी ख़राब बात यह है कि हम विश्व के सबसे महंगे टीके जनता को उपलब्ध करवा रहे हैं। लेखक के अनुमान के अनुसार पांच लोगों के परिवार को दो वैक्सीन लगवाने के लिए 15000 रुपये का भुगतान निजी अस्पताल को करना होगा। भारत में ऐसे कितने परिवार हैं जो इस अत्यधिक कीमत को वहन कर पाएगें?
वास्तव में, क्या टीकों की कीमत होनी चाहिए? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि टीकों या दवाओं के निर्माण में जाने वाला अधिकांश शोध कार्य, सार्वजनिक रूप से जनता के धन से किया जाता है। कोवेक्सीन को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा बड़े पैमाने पर विकसित किया गया था, जिसे सरकार द्वारा वित्तीय सहायता दी जाती है। जैसा कि लेख में बताया गया है कि सरकार देश के सात सार्वजनिक क्षेत्र के सभी वैक्सीन उत्पादकों को या किसी एक को वैक्सीन के उत्पादन का लाइसेंस दे सकती थी। अपितु, सरकार ने न केवल अपने नागरिकों की रक्षा का अपना कर्तव्य त्त्याग दिया, बल्कि सक्रिय रूप से स्थिति को और भी ख़राब कर दिया। उसने पेटेंट को एक निजी कंपनी को देना मुनासिब समझा जो किअब अत्यधिक लाभ कमा रही है।
हर जगह फार्मास्युटिकल कंपनियां सार्वजनिक वित्तीय सहायता से पोषित अनुसंधान का उपयोग कर इसे लोगों को ही वापस बेच रही हैं और सरकार इन कंपनियों की रक्षा कर रहा है। सरकार वास्तव में हम से मांग कर रही है कि हम उस चीज़ के लिए दस गुना अधिक कीमत दें, जिसका हम पहले ही भुगतान कर चुके हैं।
मौजूदा संकट के लिए अब तक आयी सारी सरकारें जिम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के निजीकरण को आगे बढ़ाने के लिए लंबे समय से सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में पर्याप्त पूंजीनिवेश नहीं किया। हक़ीकत आज हमारे सामने है। अस्पताल कम हैं, कर्मचारियों की कमी है, और आवश्यक सुविधाएं न के बराबर हैं। जहां बिस्तर हैं, वहां पर्याप्त वेंटिलेटर नहीं हैं; जहां वेंटिलेटर हैं, वहां उन्हें चलाने के लिए पर्याप्त कुशल कर्मचारी नहीं हैं। डॉक्टरों, नर्सों, आशा, ए.एन.एम. और सफाई कर्मचारी जो पहले से ही कम वेतन पर कार्यरत हैं, अत्यधिक काम से बोझिल हैं और उन्हें वेतन भी समय पर नहीं मिलता है; उन्हें मास्क और पीपीई किट पाने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। इन गुज़रे हुए वर्षों में, सरकारों ने स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का तेजी से निजीकरण किया है और हर उस कानूनी सुरक्षा को कमजोर किया है जिसे हासिल करने के लिए मज़दूर वर्ग ने संघर्ष किया था। सरकार के इस कदम ने यह सुनिश्चित किया है कि गरीब सदैव सबसे ज्यादा प्रभावित रहें।
क्या हम ऐसी सरकार पर भरोसा कर सकते हैं जो हमें इस संकट में ढकेल कर हमारे दुखों में इज़ाफ़ा कर रही है? क्यों मुट्ठीभर पूंजीपतियों और अल्पसंख्यक शासक वर्ग को यह तय करने का आधिकार है कि टीका किसे लगेगा और किस कीमत पर?
जब पिछले दशकों में एचआईवी/एड्स का उदय हुआ था, तब लोगों के संघर्ष ने ही फार्मा कंपनियों को अंततः दवाओं की कीमतों में कमी करने के लिए बाध्य किया था और उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को लिए सुलभ करवाना संभव हुआ था।
हमें एक बार फिर से संघर्ष करना होगा। हम इन अल्पसंख्यक पूंजीपतियों को दुनिया पर राज करते रहने और हमारे जीवन और स्वास्थ्य से लाभ कमाने नहीं दे सकते। हमारा संघर्ष मुफ्त टीके, मुफ्त स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के अलावा, पूंजीपतियों और उनकी सेवा करने वाली सरकारों से सत्ता छीनने के लिए होना चाहिए!
भवदीय,
अपराजिता, मुंबई