वैक्सीन उत्पादन पर इजारेदारी अधिकारों का विरोध किया जाना चाहिए!

जब से कोविड महामारी शुरू हुई है, तब से देश और दुनिया भर के लोगों को बताया जा रहा है कि इस महामारी का अंत करने का एक ही तरीका है, कि जल्दी से वैक्सीन (टीका) विकसित करें और जितना जल्दी हो सके, दुनिया के अधिकतम लोगों का टीकाकरण करें। वैक्सीनों को विकसित किया गया है और सीमित परीक्षण के बावजूद, उपयोग हेतु आपातकालीन स्वीकृति दी गयी है। लेकिन लोगों का जल्दी टीकाकरण करने के रास्ते में वैक्सीन की अनुपलब्धता एक रूकावट बन गयी है। वैश्विक स्वास्थ्य संकट के चलते भी, अंतर्राष्ट्रीय तथा हिन्दोस्तानी दवा कम्पनियां पेटेंटों के द्वारा मिले अपने इजारेदारी अधिकारों का उपयोग करके उत्पादन तथा कीमतों का नियंत्रण करने पर तुली हुई हैं और इसी वजह से वैक्सीनों की इतनी बड़ी कमी है।

कोविड के वैक्सीनों के उत्पादन पर आज पूरी दुनिया में चंद कम्पनियों की इजारेदारी है – अमरीका की फाइजर, मॉडर्ना तथा जॉन्सन एण्ड जॉन्सन, ब्रिटेन की एस्ट्राजेनेका, रूस की स्पुटनिक तथा चीन की सीनोवाक तथा सीनोफार्म। क्यूबा तथा हिन्दोस्तान सहित दुनिया के विविध देशों में अन्य कई दर्जन वैक्सीनों का विकास, अलग-अलग मुकामों तक पहुंचा है। फाइजर, जॉन्सन एण्ड जॉन्सन तथा एस्ट्राजेनेका का दुनिया की सबसे बड़ी दवा इजारेदार कंपनियों में नाम आता है। (पेटेंटों के बारे में पढ़िये 1 नं. के बक्स में)

बक्स 1 – पेटेंट

पेटेंट बौद्धिक संपत्ति अधिकारों का एक रूप है, जो कम्पनियों को आविष्कारों के ऊपर दीर्घकालीन (20 साल या उससे ज्यादा) बाजार में इजारेदारी सुनिश्चित करता है। इस काल के दौरान आविष्कृत उत्पादों के संबंधित सब निर्णय, यानि कि वैक्सीन या दवाई का उत्पादन, सार्वजनिक वितरण या बेचना, आपूर्ति की कीमत और अन्य उत्पादकों को लाइसेन्स देने के बारे में सब निर्णय पूर्णतः पेटेंट धारकों के हाथों में होते हैं। अन्य उत्पादकों को उत्पादन के लिए लाइसेन्स लेने की इजाजत मिल सकती है, लेकिन उसके लिए पेटेंट धारकों को बहुत बड़ी रॉयल्टी या शुल्क देना पड़ता है। बहुत ज्यादा कीमतें वसूलना, समांतर आयात रोकना, एकमात्र लाइसेन्सिंग अनुबंध द्वारा आपूर्ति को नियंत्रित करना, आविष्कारों में न्यूनतम बदलाव करके पेटेंट को सदाबहार करना, यानि कि उन्हें ज्यादा समय के लिए जारी रखवाना, ऐसी सारी हरकतें पेटेंट धारक अक्सर करते हैं।

सबसे बड़ी दवा कम्पनियों ने मुख्यतः वैक्सीनों को सबसे अमीर देशों को बेचा है। जुलाई 2021 के अंत तक मॉडर्ना और फाइजर, इन दो अमरीकी इजारेदारियों से अमरीका को 60 करोड़ वैक्सीन के खुराक मिलने की उम्मीद है, जब कि 130 देशों को वैक्सीनों का एक भी खुराक नहीं मिला है। अनुमानित है कि ऐसे देशों में वैक्सीन कार्यक्रम पूरा होने के लिए 2024 तक का समय लगेगा।

देश के अंदर सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया को एस्ट्राजेनेका द्वारा विकसित की हुई वैक्सीन का उत्पादन करने तथा कोव्हिशील्ड के नाम से देश में बेचने का लाइसेन्स मिला है। विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा गेट्स फाउंडेशन के अंतर्राष्ट्रीय वैक्सीन कार्यक्रम के अंतर्गत सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया निर्यात करने पर भी बाध्य है। देश में एक और वैक्सीन ‘कोवैक्सीन’ नाम से भी उपलब्ध है, जिसे भारत बायोटेक नाम के हिन्दोस्तानी दवा कम्पनी ने सरकार के सहयोग से विकसित किया है। हालांकि उसे सरकार से विकास करने के लिए धन तो मिला था, लेकिन पेटेंट अधिकार भारत बायोटेक के पास हैं। देश में करीब 6-7 अन्य वैक्सीनों का विकास तथा परीक्षण, अलग-अलग मुकाम पर हैं।

Govt_funding_of_vaccines
टीका कंपनियों को सरकार का अनुदान

जिन कम्पनियों के पास पेटेंट होते हैं, वे दावा करती हैं कि पेटेंटों के द्वारा नई खोज करने को प्रोत्साहन मिलता है और उनके अनुसंधान तथा विकास के लिए उन्हें जो खर्चा करना पड़ता है, वह उन्हें वापस मिलता है। लेकिन कोविड वैक्सीनों के अनुसंधान तथा विकास पर जितना पैसा खर्च किया गया था, उसका काफी बड़ा भाग तो सार्वजनिक धन था। वैक्सीन विकास के जो अलग-अलग पहलू होते हैं, मिसाल के तौर पर, रोगविषयक परीक्षण, अनुसंधान, नियामक स्वीकृतियां, विकास तथा उत्पादन क्षमताएं, इन सब पर करीबन सब देशों की सरकारों ने सार्वजनिक धन का इस्तेमाल किया है। एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर की सरकारों ने महामारी की शुरुआत से, कोविड की वैक्सीनें तथा दवाओं के विकास पर, 93 अरब यूरो, यानि कि 8,35,000 करोड़ रुपये खर्च किये हैं। (बक्स में विस्तार से देखें)

बॉक्स २ – कोविड वैक्सीन के विकास के लिए सरकारी अनुदान

फार्मा कंपनी अनुदान देने वाली सरकार अनुदान राशि (डालर में)
एस्ट्राजेनेका और आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय अमरीका तथा ब्रिटेन 1700 मिलियन
(12,500 करोड़ रूपए)
सनोफी और ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन अमरीका 2100 मिलियन
(15,000 करोड़ रूपए)
फाइजर और बायोएनटेक जर्मनी 445 मिलियन
(3300 करोड़ रूपए)
जाॅनसन एंड जाॅनसन अमरीका 1500 मिलियन
(11,000 करोड़ रूपए)
भारत बोयोटेक हिन्दोस्तान कोई जानकारी नहीं

वैक्सीन तथा उनके उत्पादन के तकनीक दुनिया के सब देशों को उपलब्ध होने चाहिए। वैश्विक वैक्सीन इजारेदार कंपनियों के निजी मुनाफे, मानवता की जरूरतों पर नहीं हावी होने दिए जाने चाहिए। यह आज और भी ज्यादा जरूरी है, जब वैश्विक महामारी की वजह से करोड़ों लोग खतरे में हैं और वैक्सीनों के विकास के लिए सार्वजनिक पैसा खर्च किया गया है।

इसके बावजूद, अंतर्राष्ट्रीय दवा इजारेदार कपंनियों को अपने वैक्सीनों को पेटेंट करने की अनुमति दी गयी है। परिणामतः, अन्य लोग तभी वैक्सीनों का उत्पादन कर सकते हैं, जब ये इजारेदार कंपनियां उनको लाइसेन्स देती हैं। इसकी वजह से बहुत सारे देश अपने लोगों के लिए वैक्सीनों का उत्पादन नहीं कर पा रहे हैं। और तो और, ऐसे लाइसेंसों के लिए रॉयल्टी तथा लाइसेन्स शुल्क के नाम पर पेटेंटधारक कम्पनियों को बहुत बड़ी रकम चुकानी पड़ती है, जिसकी वजह से वैक्सीनें और भी ज्यादा महंगी हो जाती हैं।

अधिकांश देशों के लिए वैक्सीनों की आपूर्ति इसलिए भी सीमित हो रही है क्योंकि ज्यादा से ज्यादा वैक्सीन पर कब्जा जमाने के लिए बड़ी साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच घमासान होड़ चल रही है। अमरीका और ब्रिटेन ने सब से ज्यादा वैक्सीन पर कब्जा जमा कर रखा है, इतना अधिक कि उनकी पूरी जनसंख्या के टीकाकरण की जरूरतों से भी ज्यादा। दूसरी तरफ, ऐसे भी अनेक देश हैं जिनको वैक्सीन मिली ही नहीं है। अफ्रीका में दुनिया के 15 प्रतिशत लोग रहते हैं, जब कि उसे पूरे वैक्सीन उत्पादन का मात्र 2 प्रतिशत वैक्सीन ही मिला है।

मौजूदा वैश्विक स्वास्थ्य संकट से बेशुमार लाभ पाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय दवा कम्पनियां, उत्पादन और कीमतें, दोनों पर नियंत्रण करना चाहती हैं। यह पहली बार नहीं है कि दवा इजारेदार कंपनियां लोगों के दुखदर्द से लाभ उठाना चाहती हैं। 1990 के दशक की शुरुआत में, जब अनेक कम विकसित देश एचआईवी या एड्स के खिलाफ लड़ रहे थे, तब दवा इजारेदार कंपनियों ने दवाओं के ऊपर अपने पेटेंट अधिकारों का इस्तेमाल करके औरों को उत्पादन करने के अधिकार से वंचित रखा था। उसके साथ-साथ, ज्यादा से ज्यादा मुनाफे बनाने के लिए, उन्होंने कीमतों को इतना ऊंचा रखा था कि ऐसे करोड़ो लोगों की मौत हुई, जिन्हें दवाओं को खरीदना मुमकिन नहीं था।

पिछले कई महीनों से, हिन्दोस्तान तथा दक्षिण अफ्रीका के अगुआई में विश्व व्यापार संगठन के सौ से अधिक सदस्य देश, कोविड-19 के लिए विकसित वैक्सीनों पर जारी पेटेंटों को त्याग करने की मांग उठा रहे हैं। परन्तु, अमरीका, जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन, स्वीट्जरलैंड, जापान, ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, इत्यादि देश इसका विरोध कर रहे हैं।

उत्तरी अमरीका तथा यूरोप के देशों के सत्ताधारियों की, दवा इजारेदार कपंनियों के हितों की रक्षा करने के लिए, कम विकसित देशों के लोगों को वैक्सीन से वंचित रखने के गुनहगारी तथा कठोर रवैया के खिलाफ दुनिया भर के देशों तथा लोगों ने विरोध किया है। इस परिस्थिति में, अपनी विश्वसनीयता बरकरार रखने के लिए अमरीका जैसे कई देशों के नेताओं ने बयान जारी किये हैं कि कोविड वैक्सीनों पर जो पेटेंट के अधिकार हैं, उनका वे त्याग करने के लिए राजी हैं।

विश्व व्यापार संगठन के नियम इजाजत देते हैं कि कई विशिष्ट परिस्थियों में पेटेंट धारक कम्पनियों से जबरन लाइसेन्स लिए जा सकते हैं। लेकिन इसके लिए सब सदस्य देशों का सर्व-सम्मत निर्णय आवश्यक होगा। यह बहुत ही नामुमकिन है, क्योंकि अमरीका, जर्मनी, ब्रिटेन तथा अन्य देशों के दवा इजारेदार कंपनियों का जबरदस्त दबदबा है। अमरीका की सबसे बड़ी वैक्सीन उत्पादक कम्पनियों ने खुल्लम-खुल्ला घोषित किया है कि कोविड-19 के वैक्सीनों पर जो पेटेंट हैं, उनको त्याग करने के वे खिलाफ़ है। यूरोपीय यूनियन के सब नेताओं ने जाहिर किया है कि वैक्सीन के ऊपर के पेटेंटों को हटाने से वे सहमत नहीं हैं। यह सब देखते हुए साफ है कि अमरीका के राष्ट्राध्यक्ष बाइडैन सहित कई अन्य नेताओं ने पेटेंटों के त्याग के पक्ष में जो घोषणा की है, वह अमरीका तथा पूरे विश्व के जनमत को शांत करने का सिर्फ एक प्रयास है।

हिन्दास्तान की सरकार को मालूम है कि कोविड वैक्सीनों पर जो पेटेंट हैं, उन्हें हटाने का संघर्ष दीर्घकालीन होगा। दवा उद्योग में पेटेंटों का हिन्दोस्तानी सरकार द्वारा विरोध के पीछे हिन्दोस्तान की दवा कम्पनियों के हित छिपे हुए हैं। अफ्रीका तथा एशिया के बाजारों पर हावी होने के लिए ये हिन्दोस्तानी कम्पनियां, अमरीका तथा यूरोप की दवा इजारेदार कंपनियों के साथ स्पर्धा कर रही हैं। यह बात भी है कि दवाइयों तथा वैक्सीनों से पेटेंटों को हटाना, दुनिया के लोगों के हित में है।

कोविड वैक्सीनों पर जो पेटेंट हैं, उन्हें हटाने के पूरी दुनिया में चल रहे संघर्ष का इस्तेमाल, हिन्दोस्तान की सरकार, अपने देश में स्वास्थ्य संकट पैदा करने वाली अपनी अपराधिक भूमिका पर पर्दा डालने के लिए कर रही है।

दवाइयों तथा वैक्सीनों पर जो पेटेंट है, उनको खत्म करने के बारे में सरकार का रवैया बिल्कुल गंभीर नहीं है। वरना, उसने कोवैक्सीन के उत्पादक, भारत बायोटेक को, वैक्सीन के ऊपर उत्पादन अधिकारों का दावा करने की क्यों इजाजत दी है? हिन्दोस्तान में आज जो दो कम्पनियां वैक्सीनों का उत्पादन कर रही हैं, उन्हें अन्य दवा उत्पादक कम्पनियों के साथ अपनी तकनीकी सांझा करने के लिए सरकार ने अपनी आपातकालीन ताकतों का इस्तेमाल नहीं किया है। इससे स्पष्ट होता है कि उसको न अपने देश के लोगों के सुख-चैन की कोई चिंता है, और न ही अन्य देशें के लोगों की।

कोविड वैक्सीनों के पेटेंटों को खत्म करने का संघर्ष न्यायोचित है।

महामारी के दौरान भी, दवा इजारेदार कंपनियों द्वारा अपने पेटेंट अधिकारों का उपयोग करने पर जोर देना, बहुत ही निंदनीय है। हिन्दोस्तान सहित पूरी दुनिया के लोगों को जिस महामारी ने अपने चपेट में लिया है, उससे बेशुमार मुनाफे बटोरने से सब दवा कम्पनियों को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए, फिर वे विदेशी हों या हिन्दोस्तानी!

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