नवम्बर 1984 में सिखों का कत्लेआम : सत्ता में बैठे लोगों को अपराध के लिये जिम्मेदार ठहराना होगा

1 से 3 नवम्बर, 1984 के दौरान हजारों सिख लोगों के खिलाफ़ दिल्ली, कानपुर व अन्य स्थानों में, राज्य द्वारा आयोजित नरसंहार की घिनौनी यादें आज तक पीडि़तों के परिजनों व अगली पीढि़यों को सताती हैं। ये अपने देश के और विदेशों में रहने वाले सभी न्याय पसंद लोगों को अभी भी सताती और गुस्सा दिलाती हैं।

1 से 3 नवम्बर, 1984 के दौरान हजारों सिख लोगों के खिलाफ़ दिल्ली, कानपुर व अन्य स्थानों में, राज्य द्वारा आयोजित नरसंहार की घिनौनी यादें आज तक पीडि़तों के परिजनों व अगली पीढि़यों को सताती हैं। ये अपने देश के और विदेशों में रहने वाले सभी न्याय पसंद लोगों को अभी भी सताती और गुस्सा दिलाती हैं।

नवम्बर 1984 के पीडि़तों को पिछले 28 वर्षों में न्याय नहीं मिला है। जिन्होंने इस हिंसा की योजना बनाई और उसे अमल में लाने का अपराध किया, उन्हें सज़ा नहीं मिली है।

राजनीति से प्रेरित इस अपराध को एक “दंगे” के रूप में दिखलाने की सभी सरकारी कोशिशों के बावजूद, इसकी सच्चाई अब सभी सचेत लोगों को अच्छे से पता चल गयी है। इंदिरा गांधी के कत्ल के पश्चात, सत्तारूढ़ कांगे्रस पार्टी के नेताओं ने जिस तरह पुलिस की मदद से और सशस्त्र गिरोहों के ज़रिये सिखों की सम्पत्ति लूटने और उनकी जिन्दगी बर्बाद करने में नेतृत्व दिया, उसे भूल जाना असंभव है। उन्होंने पुरुषों को जिन्दा जलाया, महिलाओं का बलात्कार किया और उन्हें अपंग बनाया और निर्दयता से छोटे बच्चों का कत्ल किया। अनेक जांच-पड़तालों से इस निर्विवाद सच्चाई की पुष्टि हुई है, कि सिखों पर आयोजित नरसंहार की योजना सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने बारिकी से बनायी थी और इसे प्रशासन की पूरी मदद के लागू किया गया था। यह केन्द्रीय राज्य के पूर्ण समर्थन के साथ किया गया था, इस बात का खुलासा तब हुआ जब जाने-माने नागरिकों द्वारा अनुग्रह करने, और स्वयं उनसे व उनके दूसरे उच्च अधिकारियों से मिलने के बावजूद, तब के गृहमंत्री और भविष्य के प्रधान मंत्री, दिवंगत नरसिंह राव ने हिंसा रोकने के कोई कदम नहीं लिये। इसकी पुष्टि इंदिरा गांधी के बाद के प्रधान मंत्री दिवंगत राजीव गांधी के अहंकारपूर्ण और फासीवादी सफाई देने से होती है जब उसने पूरी दुनिया के सामने घोषणा की थी कि – जब एक बड़ा पेड़ गिरता है, तब धरती तो कांपती ही है।

इस भयानक अपराध के लिये सज़ा दिये जाने की बजाय, इसकी योजना बनाने वाले कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेताओं को पदोन्नति मिली और मंत्रीमंडल में ऊंचे पदों से सुशोभित किया गया। पुलिस व प्रशासन के उच्च अफसरों, जिन्होंने सक्रियता से सिखों के कत्लेआम में भाग लिया था, उन्हें भी पदोन्नतियों व दूसरे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

एक तरफ जहां सत्ता में बैठे लोगों ने नरसंहार का आयोजन किया था, वहीं दूसरी तरफ, हर धर्म और आस्थाओं के लोग, अपनी जान जोखिम में डाल कर, पीडि़तों को बचाने के लिये आगे आये। अब तक ये प्रमाणित तथ्य बन चुके हैं। ये साबित करते हैं कि राज्य व्यवस्था सांप्रदायिक है, न कि अपने लोग। सभी धर्मों के लोग दूसरों की अंर्तआत्मा के अधिकार का आदर करते हैं, और एक दूसरे की रक्षा के लिये तैयार रहते हैं।

तथ्य दिखाते हैं कि, हिन्दोस्तान को एक “धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक गणतंत्र” घोषित करने के बावजूद, 1950 का संविधान राजनीतिक पार्टियों को, अपने तंग खुदगर्ज राजनीतिक हित में, सांप्रदायिक हिंसा आयोजित करने और बच निकलने की छूट देता है। पुलिस और राज्य प्रशासन सत्ताधारी पार्टी के आदेशों का पालन करते हैं। अपनी आज्ञा या चूक से हुये अपराधी कार्यों के लिये, न तो निर्वाचित प्रतिनिधि और न ही राज्य के अधिकारी लोगों के प्रति जवाबदेह हैं। “कानून के राज” के नाम पर जो अस्तित्व में है, वह सच्चाई में एक मुट्ठीभर अल्पसंख्यकों का निरंकुश राज है जिसमें उनके पास मनमानी करने की अपार शक्ति है।

1992 में कांग्रेस पार्टी और भाजपा ने बाबरी मस्जिद का विध्वंस किया और इसके बाद सूरत, मुंबई व अन्य नगरों में मुस्लिम लोगों का नरसंहार आयोजित किया था। 2002 में गुजरात में भाजपा ने मुसलमानों का नरसंहार आयोजित किया। 1984 में कांग्रेस पार्टी के नरसंहार के तरीकों का इस्तेमाल करके तथा उन्हें और भी बेहतर बनाकर, इन नरसंहारों की भी बारीकी से योजना बनायी गयी थी। उड़ीसा में ईसाइयों के, और हाल में हुये, असम में बोडो, बंगाली मुसलमानों व अन्य लोगों के नरसंहारों में यही तरीक़ा इस्तेमाल किया गया है।

पिछले 28 वर्षों में अपने लोगों के अनुभव ने दिखाया है कि जो सांप्रदायिक नरसंहारों का आयोजन करते हैं, उनसे हम न्याय की या भविष्य में ऐसे नरसंहारों को रोकने की उम्मीद नहीं रख सकते हैं। ऐसा करने की आशा हम हिन्दोस्तानी राज्य व्यवस्था और कांग्रेस पार्टी व भाजापा जैसी राजनीतिक पार्टियों से भी नहीं कर सकते हैं।

इस संदर्भ में, पिछले 28 वर्षों के अपने लोगों के अनुभव ने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े किये हैं।

क्या हम लोगों के पास अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों पर नियंत्रण रखने का कोई साधन है, जब वे नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का अपना दायित्व नहीं निभाते हैं?

क्या सरकारी कर्मचारियों पर हमारा कोई नियंत्रण है, जब पुलिस, जिसके पास हमारी सुरक्षा करने की जिम्मेदारी है, पीडि़तों पर हो रहे हमलों से अपना मुंह मोड़ लेते हैं, सक्रियता से पीडि़तों को निहत्था करते हैं और हत्यारों व बलात्कारियों का बचाव करते हैं?

क्या हमारा अपनी कानून व न्यायव्यवस्था पर कोई नियंत्रण है जो नियमितता से हमें न्याय से वंचित रखता है और जो सत्ताधारी पार्टी के राजनीतिक हित के अनुसार अपने आप को इस्तेमाल होने देता है।

राज्य द्वारा आयोजित नरसंहारों के प्रश्न पर ध्यान दे रहे बहुत से आदरणीय न्यायविदों व कार्यकर्ताओं ने एक ऐसे कानून की मांग की है जो सांप्रदायिक नरसंहारों के आयोजकों को सजा सुनिश्चित करेगा। सबसे पहले ऐसे कानून को मानना पड़ेगा कि राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा सहित राज्य का आतंक, आयोजित नरसंहार है, न कि मात्र कुछ व्यक्ति विशेषों की अपराधी हरकतें। दूसरे नरसंहारों के साथ इसे सुनिश्चित करना होगा कि 1984, 1993 और 2002 के नरसंहारों का आयोजन करने वालों को कड़ी सजा मिले, ताकि कोई भी पार्टी आगे कभी ऐसे पाश्विक अपराध करने की हिम्मत न करे।

सत्ता के आसनों पर विराजमान व्यक्ति और अधिकारी अगर नागरिकों की सुरक्षा व संरक्षण के अपने दायित्व निभाने का उल्लंघन करते हैं तो उन्हें जिम्मेदार और अपराधी समझा जाना चाहिये। तभी विश्वास किया जा सकता है कि अपराध आयोजित करने वाली पार्टी या पार्टियों का अपराध सिद्ध हो सकता है, न कि सिर्फ उस भीड़-भाड़ का जो अपने हाथों मारकाट करते हैं। अतः सांप्रदायिक हिंसा पर लगाम लगाने वाले किसी भी कानून में कमान की जिम्मेदारी का सिद्धांत शामिल होना चाहिये।

हम नहीं मान सकते कि अपराधों को आयोजित करने वाले और अपराधकर्ता स्वयं अपने आप को सजा देंगे। सिर्फ जब लोगों के हाथों में सत्ता होगी तब वे सुनिश्चित कर सकेंगे कि हर तरह की राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा और राज्य का आतंक खत्म होगा और अपराधियों को सज़ा मिलेगी। राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में लिये, लोग सुनिश्चित कर सकेंगे कि सांप्रदायिक नरसंहार व हिंसा की रोकथाम का दायित्व कमान निभायेगा और ऐसे तंत्र स्थापित किये जायेंगे जिसमें ऐसे घोर अपराधियों को सज़ा दी जायेगी चाहे उनका समाजिक दर्जा कितना भी ऊंचा क्यों न हो। अतः राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा को खत्म करने का संघर्ष, मज़दूर वर्ग व लोगों के हाथों में राजनीतिक सत्ता देने के प्रश्न से समस्त रूप से जुड़ा है।     

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One comment

  1. We must make a sysytem in

    We must make a sysytem in which no political party, no matter of what level, dare to do anything like that

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