संपादक महोदय,
मज़दूर एकता लहर द्वारा 10 अप्रैल को प्रकाशित लेख को पढ़ा, इसेे पढ़कर मानों धमनियों में रक्त के संचार की गति बहुत तीव्र हो गई। यह लेख ऐतिहासिक होने के साथ-साथ आज के लिए प्रासंगिक भी है। वर्तमान पूंजीवादी साम्राज्यवादी राज्य और उसके द्वारा खड़े किये गये स्तंभ तो सिर्फ यह प्रचार करने में लगे हैं कि यही अंतिम उन्नत व्यवस्था है और पूंजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है। अधिकांश पूंजीवादी पंडित समाज बनाने के लिए जिस रूपरेखा की बात करते हैं, दरअसल उसके अवशेष पेरिस कम्यून और बोल्शेविक क्रांति में निहित हैं, परन्तु उसे वे यह कह कर ठुकराना चाहते हैं कि वह क्रांति असफल हो चुकी है। महज दो महीनों में कम्युनार्डों ने जो कर दिखाया, वह हम अवाम को तथाकथित आज़ादी के दशकों बाद भी हिन्दोस्तान में देखना मयस्सर नहीं हो रहा है। शिक्षा, कला, संस्कृति, समाज, राजनीति इत्यादि क्षेत्रों में वे ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि उनकी सोच अधिकांश लोगों की इच्छाओं, उनकी ज़रूरतों पर आधारित थी। हिन्दोस्तान का मौजूदा राज्य महज कुछ बेशुमार संपत्तिवान घरानों के निजी मुनाफ़े को केंद्र में रखता है और फिर राज्य के तंत्र भी उसी तरह कार्यान्वित होते हैं। पुलिस, फ़ौज, अदालतें, नौकरशाह सभी स्थानों पर आम नागरिकों की एड़ियां घिस जाती हैं पर फ़ैसले एक तरफा होते हैं। पिछले कई दशकों से यह नाटक हिन्दोस्तान की राजनीति के मंच पर चल रहा है फिर भले ही हिन्दोस्तान की राजनीति में जनता के सम्मुख किसी भी पार्टी के झंडे को फहराया गया हो।
पेरिस कम्यून ने ज़िम्मेदारियां भी सौंपी और जवाबदेही भी मांगी। कानून महज काग़ज़ के पुलिंदे बनकर न रह जाएं और न ही विधानसभाएं भाषणबाजी का केंद्र बनकर रह जायें। न्यायधीश लोगों के बीच से नियुक्त किये गए और बेघरों को खाली पड़े घरों को दे दिया गया। आज भी देश में एक तरफ आलीशान महल खड़े हैं जहां कोई नहीं रहता और दूसरी तरफ सड़कों पर लोग सो रहें हैं; यह फ़ौरी क़दम आज भी लाजमी नहीं है क्या? कि खाली पड़े घरों में बेघरों को पनाह दी जाए।
उन्होंने महिलाओं और बच्चों को उनका सम्मान लौटाया। सभी पुराने घिसे-पिटे रूढ़िवादी पंरपराओं को ख़त्म कर दिया गया और अत्यंत महत्वपूर्ण बात कि धार्मिक संस्थानों पर प्रतिबन्ध लगाया गया और उन्हें राज्य की ओर से किसी भी प्रकार की सहायता देना बंद कर दिया गया। धर्म को लोगों का व्यक्तिगत मामला बताकर उसे सिर्फ घर तक ही सीमित कर दिया गया।
आज राम मंदिर जैसे तमाम मुद्दों के द्वारा लोगों को बांटा भी जाता है और लोगों के दिये गये करों से जमा की गयी राशि को बड़ी-बड़ी मूर्तियों, प्रतिमाओं पर फिजूल खर्च किया जाता है।
कम्युनार्ड सिर्फ इसलिए ऐसा कर पाए क्योंकि उन्होंने मौजूदा राज्य तंत्र को समझा-परखा था। वह तंत्र मज़दूर किसान वर्ग के हित में नहीं था, इसलिए उसे समूल नष्ट किया गया और यही आज भी 150 वर्ष बाद वक्त की मांग है कि वर्तमान राज्य तंत्र को पूर्णतः नष्ट किया जाये; महज एक-एक स्तम्भ को गिरा कर राज्य के चरित्र में बदलाव नहीं लाया जा सकता।
अंततः इतना ही कहना चाहूंगा कि आज हमारे सम्मुख पेरिस कम्युनार्डों के गौरवशाली अनुभव हैं तथा बोल्शेविकों द्वारा हासिल की गयी उपलब्धियों के भी अनुभव हैं। इन अनुभवों को हिन्दोस्तानी सरज़मीं पर विकसित करके वर्ग संघर्ष को अगुवाई देनी होगी। जो चुनावों के अनुभव और तंत्र हम आज देख रहे हैं उनसे हताश होकर लोग राजनीति में भाग नहीं लेना चाहते। हमें अपने गौरवशाली इतिहास को बताना भी होगा और वर्तमान व्यवस्था को बदलने के लिए कार्य भी करना होगा ताकि लोग पूरी तरह राजनीति में सक्रिय हों और सभी मूलभूत निर्णयों में पहलक़दमी करें, फिर चाहे कानून बनाने की बात हो या उसे लागू करने की, प्रतिनिधि चुनने की बात हो या काम न करने पर उसे वापस बुलाने की। पेरिस कम्युनार्डों की दिलेरी और उनके संघर्ष को हम सलाम करते हैं। कम्यून की ऐतिहासिकता का महत्व पूरी तरह समकालीन है। यह महज एक इतिहास नहीं बल्कि हिन्दोस्तान के मज़दूरों-किसानों की मुक्ति के लिए सदैव एक प्रेरणादायी स्रोत बना रहेगा।
विवेचन, मुम्बई