मज़दूर एकता लहर के पत्रकारों ने 4 सितंबर को हुये मज़दूरों के सर्व हिन्द सम्मेलन में भाग लेने वाले, अलग-अलग इलाकों से आये और अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों के अनेक प्रतिनिधियों से बातचीत की।
हमने उनसे निम्नलिखित प्रश्न पूछे:
मज़दूर एकता लहर के पत्रकारों ने 4 सितंबर को हुये मज़दूरों के सर्व हिन्द सम्मेलन में भाग लेने वाले, अलग-अलग इलाकों से आये और अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों के अनेक प्रतिनिधियों से बातचीत की।
हमने उनसे निम्नलिखित प्रश्न पूछे:
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इस सम्मेलन से आपकी क्या उम्मीद है?
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हालांकि आज मज़दूर वर्ग समाज में बहुसंख्या है, फिर भी पूंजीपति अपना अजेंडा समाज पर कैसे थोप देते हैं?
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परिस्थिति को बदलने के लिये क्या करना होगा, ताकि मज़दूर वर्ग आम जनता के हित में समाज को चला सके?
इनके जवाब में मिली प्रतिक्रियाओं के कुछ उद्धरणों को हम नीचे छाप रहे हैं।
कॉमरेड हनुमान प्रसाद शर्मा, सलाहकार,ऑल राजस्थान स्टेट गवर्नमेंट एम्प्लोईज कोऑर्डिनेशन कमेटी, जो 7लाख राज्य सरकार के कर्मचारियों, शिक्षकों, स्वास्थ्य कर्मचारियों तथा दूसरे सार्वजनिक सेवा के कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करती है:
विभिन्न सरकारी कर्मचारियों के फेडरेशनों, बैंकों, बीमा कंपनियों, खदानों, रेलवे तथा दूसरे क्षेत्रों के मज़दूर यहां आये हैं। इस सम्मेलन में सक्रियता से भाग लेने वाले बहुत से ऐसे यूनियन व फेडरेशन हैं जो किसी भी पार्टी से नहीं जुड़े हैं। मैं यहां ऑल राजस्थान स्टेट गवर्नमेंट एम्प्लोईज कोऑर्डिनेशन कमेटी के 20 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल का भाग हूं।
उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के कार्यक्रम के कारण पैदा हुये संकट के सामने, मज़दूर जनसमूह सड़कों पर उतर रहा है। मेरा मानना है कि राजनीतिक पार्टियों से जुड़े यूनियनों ने यह सम्मेलन अपने अस्तित्व को बचाने के लिये आयोजित किया है, और मज़दूरों के बढ़ते गुस्से को ठंडा करने के लिये।
भारतीय मज़दूर संघ के महासचिव ने आज घोषणा की है कि “पूंजीवादी हमले का सामना करने के लिये हमें अलग-अलग ट्रेड यूनियनों के झंडे नहीं लहराना चाहिये। हमें एक वर्ग बतौर एकताबद्ध होना होगा और एक झंडे के तले लड़ना होगा। यह अभी तक होना है, और हमें यह कर के दिखाना चाहिये। हमें ए.आई.टी.यू.सी., सी.आई.टी.यू., बी.एम.एस., एच.एम.एस., आदि नामों को त्यागना होगा। इस हॉल में हमें सिर्फ मज़दूर एकता जिन्दाबाद! का नारा बुलंद करना चाहिये।“ आज के सम्मेलन में यह एक सकारात्मक स्वर था।
सम्मेलन की आयोजन समिति में स्वतंत्र यूनियनों व फेडरेशनों को सम्मिलित करना आवश्यक है। आज के सम्मेलन के आयोजकों ने ऐसे यूनियनों व फेडरेशनों को बाहर क्यों रखा है? और उन्हें अपने विचार प्रकट करने तक की अनुमति क्यों नहीं दी जा रही है? केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के नेताओं के प्रति मेरे जैसे प्रतिनिधियों के मन में शंका पैदा होती है।
तीसरा मुद्दा जो मेरे मन में आता है, वह है कि संसदीय वाम पार्टियां बहुत ही रक्षात्मक दिखाई देती हैं। उनमें से कुछ ने “लाल सलाम!” की जगह “भारत माता की जय!” कहना शुरु कर दिया है। वे अपने आप को पूंजीपतियों के लिये स्वीकार्य बना रहे हैं।
मज़दूर वर्ग के लिये सिर्फ एक ही पर्याय है कि वर्ग संघर्ष का रास्ता अपनायें। इसके बिना कुछ नहीं बदलेगा। मज़दूरों के सभी यूनियनों और उनके फेडरेशनों को अपनी पूरी शक्ति पूंजीपतियों के कार्यक्रम के स्थान पर मज़दूर वर्ग के कार्यक्रम को विकसित करने में लगाना चाहिये। ऐसे पर्यायी कार्यक्रम के इर्द-गिर्द उन्हें सभी मज़दूरों को लामबंध करना चाहिये। उन्हें इस कार्यक्रम को आम जनता के बीच लोकप्रिय बनाने के लिये संघर्ष करना चाहिये।
श्री के. एन. त्यागराज, राज्य सचिव, तमिल नाडू गवर्नमेंट एम्प्लाॅईज एसोसियेशन (टी.जी.इ.ए.):
टी.जी.इ.ए. का 29 सदस्यों का प्रतिनिधिमंडल इस सम्मेलन में भाग ले रहा है। तमिल नाडू के सरकारी कर्मचारियों ने 2003 में बड़ा संघर्ष किया था और तब की ए.आई.ए.डी.एम.के. सरकार ने एस्मा कानून लगा कर हजारों मज़दूरों को बर्खास्त कर दिया था। परन्तु उनके लगातार संघर्ष से, उन्हें देश भर का समर्थन मिला और अंत में बर्खास्त किये गये सभी मज़दूरों को वापस लेना पड़ा। अगले चुनाव में जब डी.एम.के. सरकार सत्ता में आयी तब एस्मा कानून को रद्द किया गया था। महाराष्ट्र सरकार के द्वारा एस्मा कानून लगाना, एक बहुत ही खतरनाक चाल है। यह सिर्फ महाराष्ट्र के मज़दूरों के खिलाफ़ ही नहीं है बल्कि पूरे मज़दूर वर्ग के खिलाफ़ है। यह अनिवार्य है कि इसे रद्द करने के लिये संघर्ष किया जाये, ताकि दूसरे राज्य भी इस तरह के कानून पास न करें।
तमिल नाडू में बाहर से काम लेने की प्रथा (आऊटसोर्सिंग) आम बात हो गयी है और तमिल नाडू की सरकार हर तरह के काम को ठेके पर कराती है, दैनिक तौर पर, और यहां तक कि, कुछ घंटों के लिये भी। हम इस प्रथा को खत्म करने का संघर्ष कर रहे हैं ताकि सभी मज़दूर नियमित हों।
श्री पेरंबुदूर जैसे नये औद्योगिक नगरों में श्रम कानूनों का खुलेआम उल्लंघन होता है। मज़दूरों को अपने कारखाने के गेट पर अपने यूनियन का झंडा लगाने तक की अनुमति नहीं है।
पार्टियों की आपस-बीच की होड़ से परे होकर, हमें साथ संघर्ष करने की जरूरत है। अपने वर्ग का एक बड़ा हिस्सा, बिना किसी अधिकार के, छोटे उद्योगों में काम करता है। हम यूनियनों में संगठित मज़दूरों का दायित्व है कि जिन मज़दूरों के यूनियन नहीं हैं, हम उन्हें यूनियन में संगठित करें और उनके अधिकारों की रक्षा करें। तभी हम एक प्रभावशाली ताकत बन सकते हैं।
कॉमरेड एम. दीपक, अध्यक्ष, बंगलूरू जिला परिषद, ए.आई.टी.यू.सी.:
कर्नाटक से 150 से भी अधिक प्रतिनिधि आज के सम्मेलन में हिस्सा ले रहे हैं। इनमें भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड (बी.इ.एम.एल.) जैसे स्वतंत्र यूनियनों के प्रतिनिधि शामिल हैं। ए.आई.टी.यू.सी. के प्रतिनिधिमंडल में कर्नाटक राज्य रोड परिवहन निगम, एल एण्ड टी, टाटा एडवांस्ड मटीरियल्स, जिगारी औद्योगिक क्षेत्र, इलेक्ट्रोनिक्स सिटी के नजदीक वाला बोंसुन्दरा औद्योगिक क्षेत्र, पुराने मद्रास रास्ते पर स्थित आर. के. पुरा औद्योगिक क्षेत्र के प्रतिनिधि शामिल हैं। बंगलूरू के साथ-साथ, देवनगेरे, मैसूर और टूम्कुर के प्रतिनिधि भी मौजूद हैं। कर्नाटक की मुख्य समस्या है कि यहां निजी और सरकारी क्षेत्र में नियमित काम के लिये भी ठेके के श्रम का इस्तेमाल किया जाता है। सरकार द्वारा न्यूनतम वेतन की घोषणा होने के बावजूद भी, मज़दूरों को यह नहीं दिया जा रहा है। हम मज़दूरों को यूनियन बनाने में मदद कर रहे हैं और न्यूनतम वेतन तथा दूसरी सुविधाओं के लिये संघर्ष कर रहे हैं।
हम बड़ी संख्या में ठेका मज़दूरों को संगठित कर रहे हैं जिनका प्रतिनिधित्व और कोई यूनियन नहीं कर रही है। उदाहरण के लिये, बंगलूरू महानगर पालिका 14,000 से भी अधिक मज़दूरों को ठेके पर रखती है जिनमें से अधिकांश महिलायें हैं। उन्हें संगठित किया जा रहा है। बंगलूरू और मैसूर घुड़दौड़ मैदानों के 1,500 मज़दूरों को यूनियनबद्ध किया जा चुका है; और ऐसे ही एच.ए.एल. के 8,000 व 600 बी.एच.इ.एल. के ठेका मज़दूरों को किया जा चुका है।
एक अहम मुद्दा है कि अपने दादा-परदादा के जमाने के श्रम कानूनों में, आज के हालातों और मज़दूरों की आवश्यकतानुसार संशोधन करने की जरूरत है।
यह सत्य है कि मज़दूर वर्ग राजनीतिक संवाद का अजेंडा तय करने में असमर्थ है। यह एक पुरानी समस्या है जिसके बारे में बातें तो बहुत हुयी हैं परन्तु काम नहीं हुआ है। हम मज़दूरों की परिस्थिति बेहतर करने के लिये तो जरूर संघर्ष करते हैं, परन्तु उनको राजनीतिज्ञ नहीं बनाते और उन्हें अपने ध्येय के बारे में सचेत नहीं करते। मज़दूरों को राजनीति में बहुत रुचि है। हमें उन्हें राजनीतिज्ञ बनाना चाहिये। हमें उन्हें मज़दूर वर्ग की राजनीतिक चेतना से ओत-प्रोत करना चाहिये। इस सम्मेलन में कुछ यूनियनें हैं जो मज़दूरों को राजनीतिज्ञ बनाने का विरोध करती हैं।
हम फुल टाईम संगठक हैं और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं, परन्तु हम दूसरे मज़दूरों को सक्रिय बनाने में सफल नहीं हुये हैं। इस परिस्थिति को बदलने के लिये, हम मज़दूरों के लिये राजनीतिक कक्षायें चलाने वाले हैं। अपने देश में और दुनिया में क्या चल रहा है इसके बारे में मज़दूर सुशिक्षित होना चाहिये। कम से कम, हमें उन्हें अपनी खुद की यूनियने चलाने में सक्षम करना होगा, ताकि उन्हें किसी विशेषज्ञ पर निर्भर नहीं रहना पडे़गा। वे तभी वर्ग के नेता बन सकते हैं।
कॉमरेड राम पंकज गांगुली, पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर स्टील कारखाने के हिन्दुस्तान स्टील कर्मचारियों की यूनियन के प्रतिनिधिमंडल के नेता दुर्गापुर स्टील कारखाना सरकार की मालिकी में है और एस.ए.आई.एल. का हिस्सा है। हमारी यूनियन स्टील फैडरेशन ऑफ इंडिया का भाग है और सी.आई.टी.यू. से सम्बद्ध है। स्टील फैडरेशन ऑफ इंडिया के करीब 120प्रतिनिधि इस सम्मेलन के लिये आये हैं।
एस.ए.आई.एल. का निजीकरण विनिवेश के नाम पर किया जा रहा है और इसके बहुत ही दुखद परिणाम होने वाले हैं। दुनिया भर में और अपने देश में भी, इस्पात उद्योग संकट में है। उन्नत पूंजीवादी देशों में, मांग में कमी होने के कारण इस्पात के उत्पादन में कमी की जा रही है। परन्तु हिन्दोस्तान में, हालांकि यहां भी अतिउत्पादन का संकट मौजूद है, इस्पात का उत्पादन कम नहीं किया गया है। इसका एक कारण यह है कि अंदरूनी बाजार में एक तुलनात्मक कमजोर तल से अभी भी संवर्धन हो रहा है। हिन्दोस्तान में प्रति व्यक्ति इस्पात की खपत सिर्फ 75 किलो ग्राम है, जबकि चीन में यह 500 किलोग्राम है। एस.ए.आई.एल. ने उत्पादन में कोई कमी नहीं की है।
हिन्दोस्तान में एस.ए.आई.एल. के मुकाबले निजी इस्पात कंपनियों का कामकाज धीमी गति से चल रहा है। एस.ए.आई.एल. ने पहली तिमाही में मुनाफा कमाया जबकि टाटा स्टील, जो सबसे बड़ा इस्पात का उत्पादक है, इसके पक्के चिट्ठे (बैलेंस शीट) में घाटा दिखाया गया है।
सरकार एस.ए.आई.एल. के शेयरों में विनिवेश करके, इसके निजीकरण का भरसक प्रयास कर रही है। सरकार 2007की वैश्विक संकट के सबकों को भुला देना चाहती है, जबकि हम इस संकट से इसीलिये बच सके थे क्योंकि अपने वित्तीय खंड और उत्पादन के क्षेत्र मुख्यतः राज्य की मालिकी में थे।
अब तक एस.ए.आई.एल. के 14.18 प्रतिशत शेयर बेचे जा चुके हैं, जिनमें से सिर्फ 0.34 प्रतिशत एस.ए.आई.एल. के कर्मचारियों व अन्य व्यक्तियों के हाथों में है। बाकी सारे हिन्दोस्तानी और विदेशी पूंजीवादी निगमों के हाथों में हैं। हमने केन्द्र सरकार को इस राष्ट्र-विरोधी रास्ते पर चलने से मना किया है, परन्तु सरकार ने इसे अनसुना कर दिया है। वह उसी रास्ते पर चलती जा रही है।
हमें अपेक्षा है कि यह सम्मेलन हर रूप के निजीकरण के खिलाफ़ संघर्ष करने का ऐलान करेगा, चाहे वह एस.ए.आई.एल. का हो या सार्वजनिक क्षेत्र की किसी दूसरी कंपनी का।
अपने देश को सही रास्ते दिखाने के लिये, बड़े उद्योगों और सेवा क्षेत्रों में मज़दूरों का नेतृत्व सबसे जरूरी है। हम लघु उद्योगों और सेवा क्षेत्रों में काम करने वाले मज़दूरों से इसकी अपेक्षा नहीं कर सकते हैं। अगर संगठित क्षेत्र के मज़दूर – तेल, पॉवर, इस्पात, यातायात, आदि के मज़दूर एक आम हड़ताल पर उतरें, तो हम अर्थव्यवस्था का चक्का जाम कर सकते हैं। सबसे बड़ी चुनौती है कि संगठित उत्पादन क्षेत्र के मज़दूरों को इस रास्ते पर चलने का नेतृत्व देना होगा।
जी. एच. शाह, गुजरात के वड़ोदरा में स्थित इंडियन पेट्रो केमिकल्स लिमिटेड (आई.पी.सी.एल.) एम्प्लोईज यूनियन महासचिव व 5सदस्यों के प्रतिनिधिमंडल के नेता:
हमारी यूनियन ए.आई.टी.यू.सी. से सम्बद्ध है। पिछले दो वर्षों में, मज़दूरों की चिंताओं पर सरकार का ध्यान खींचने के लिये सभी ट्रेड यूनियनें एक मंच पर साथ आयी हैं। परन्तु सरकार ने हमारी मांगों पर अनुकूल कार्यवाई करने से इनकार किया है। मज़दूरों के सामने मुख्य समस्या यह है कि व्यापक तरीके से श्रम का, चाहे वह सार्वजनिक क्षेत्र में हो या स्थायी कार्य में लगा श्रम हो, इनका ठेकेदारीकरण हुआ है। ठेका मज़दूरों को मौजूदा अवमानक न्यूनतम वेतन भी नहीं दिया जाता है। हम मांग कर रहे हैं कि ठेका श्रम खत्म होना चाहिये और बराबर कार्य के लिये बराबर वेतन मिलना चाहिये तथा न्यूनतम वेतन कम से कम 10,000 रु. होना चाहिये, जो उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जुड़ा होना चाहिये। आज उचित तरह से रहने के लिये एक मज़दूर को कम से कम 10,000 रु. मासिक वेतन की जरूरत है।
आई.पी.सी.एल. में अब 2400 स्थायी मज़दूर हैं और करीब 1500 से 2000 अस्थाई मज़दूर हैं। पहले करीब 5000 स्थायी मज़दूर हुआ करते थे। वी.आर.एस. योजना आने के बाद 2500 मज़दूरों ने नौकरी छोड़ दी। अब उनका काम ठेके के मज़दूरों से होता है। ऐसा सिर्फ आई.पी.सी.एल. में ही नहीं हुआ है बल्कि सभी जगह हो रहा है। आई.पी.सी.एल. में यह 2002 में शुरु हुआ, जब रिलायंस पेट्रो केमिकल्स ने इस सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी की मालिकी हासिल की थी।
गुजरात में भी मज़दूरों की वही परिस्थिति है जो बाकी हिन्दोस्तान में है। श्रम विभाग को तेजी से समाप्त किया जा रहा है और इसे अव्यवहारिक बनाया जा रहा है। श्रम विभाग में लोग ही नहीं जो कुछ काम कर सकें। वड़ोदरा एक बड़ा और बढ़ता शहर है। श्रम विभाग में बढ़ती संख्या के औद्योगिक विवादों से जूझने के लिये हमें कम से कम 5 अधिकारियों की जरूरत है। इसकी जगह यहां सिर्फ एक अधिकारी है।
संसद और प्रांतीय विधानसभाओं में मज़दूरों के बहुत ही कम प्रतिनिधि हैं। हमें सैकड़ों सांसदों की जरूरत है जो संसद में मज़दूरों की आवाज उठायेंगे। अगर हमारी सुनवाई होना है तो मुद्दा है, कौन सी पार्टी? मज़दूरों की अपनी पार्टी होनी चाहिये। जब हमारी अपनी पार्टी होगी और वह बढ़ कर बहुमत स्थापित करेगी, तभी हमारी सुनवाई होना शुरू होगी।
संदीप घटक, उत्तर प्रदेश के वाराणसी के ऑल इंडिया मेडिकल रिप्रेसेंटेटिव्स एसोसियेशन की जनरल कौंसिल के सदस्य:
पिछले 60 वर्षों में, अमीर और अमीर हुये हैं तथा गरीब और गरीब। मौजूदा परिस्थिति में मज़दूर वर्ग को क्या कार्यवाई करना चाहिये, इस पर फैसला लेने के लिये इस सम्मेलन का आयोजन किया गया है। संघर्ष 1857 से चल रहा है। अपना संघर्ष इस व्यवस्था को बदलने के लिये है।
मज़दूर वर्ग के पास राजनीतिक सत्ता नहीं है। मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था अत्यधिक लोक-विरोधी है। यह लोगों को धर्म और जाति के नाम पर बांटती है। पैसों की बड़ी भूमिका है।
कॉमरेड सतबीर, हरियाणा के रोहतक के सी.आई.टी.यू. के प्रतिनिधिमंडल के नेता:
रोहतक में हम ईंट भट्टों के मज़दूरों, निर्माण मज़दूरों, दोपहर भोजन के मज़दूरों, ए.ए.एस.एच.ए. (आशा) के मज़दूरों, आंगनवाड़ी मज़दूरों, ग्रामीण सभा के मज़दूरों, वन विभाग के मज़दूरों, सफाई कर्मचारियों तथा एन.आर.इ.जी.ए. (नरेगा) के तहत रोजगार पाने वालों को संगठित कर रहे हैं। जब भी संयुक्त कार्यक्रम होते हैं, हम दूसरी यूनियनों के साथ काम करते हैं।
हरियाणा में हूडा राज कंपनी राज के जैसे है। यहां पर कोई श्रम कानून लागू नहीं होता। गुड़गांव में मज़दूरों को ऐसी हालतों में रहना पड़ रहा है जो जानवरों के लिये भी ठीक नहीं मानी जा सकती। हर जगह ठेके से काम करवाया जाता है। जहां स्थायी काम है वहां भी ठेके से ही काम करवाया जाता है। यह एक बड़ी समस्या है। इस मुद्दे पर सभी यूनियनों को साथ में काम करना चाहिये। उदारीकरण, निजीकरण के जरिये वैश्वीकरण के पिछले 20 वर्षों में, मज़दूरों पर हमले लगातार बढ़े हैं। श्रम के ठेकाकरण सहित, इन मज़दूर वर्ग विरोधी नीतियों का प्रतिरोध करने के लिये और इन्हें उलटने के लिये हमें एकजुट होना होगा। एक दिन की हड़ताल से सरकार पर कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ता है। हमें एक अनिश्चितकालीन आम हड़ताल करने की सोचना चाहिये ताकि सरकार के आक्रामक रवैये को खत्म किया जा सके।
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि मज़दूर वर्ग राजनीतिक एजेंडा पर निर्णयात्मक प्रभाव डालने में असमर्थ है। हमने अपने आप को एक ठोस व प्रभावशाली ताकत के रूप में नहीं आयोजित किया है; हम बहुत तरीके से बंटे हुये हैं। हमें मज़दूर वर्ग की राजनीति आगे लाना है और इसके इर्द-गिर्द एकता बनाना है। अपने संघर्ष को और तेज करके, एक दिन जरूर हम देश का राजनीतिक एजेंडा तय करेंगे।
कॉमरेड सुशांत कुमार पॉल, कोलकाता के एक निजी स्कूल, हरियाणा विद्या मंदिर के मज़दूरों के नेता:
हमारा यूनियन कर्मचारियों के अधिकारों के लिये लड़ता आया है, उनके मालिकों के खिलाफ, जो स्कूल के पैसों को हथियाते रहे हैं और कर्मचारियों को कानूनी देय राशि से वंचित करते आये हैं। हमने मांग-पत्र उठाया है जिसमें मातृत्व अवकाश और चिकित्सा अवकाश शामिल हैं। इस स्कूल में 44 गैर शिक्षक कर्मचारी और 108 शिक्षक हैं जो 4000 से भी अधिक विद्यार्थियों की आवश्यकतायें पूरी करते हैं।
मैं बंगाल के ए.आई.टी.यू.सी. के 70-सदस्यों के प्रतिनिधिमंडल में शामिल हूं। हम शिक्षा व उद्योगों के विभिन्न क्षेत्रों में काम करते हैं। मैं भविष्य के बारे में आशावादी हूं। हमें सभी मज़दूरों के संगठनों को और पीडि़त लोगों को एकजुट करना है। मुझे पूरा विश्वास है कि यह किया जा सकता है।