2004-09 के बीच में कोयला ब्लाकों में चुनिंदा निजी कंपनियों को आवंटन के बारे में सी.ए.जी. की रिपोर्ट से एक और स्पष्ट उदाहरण मिलता है कि कैसे इजारेदार पूंजीपतियों ने, केंद्रीय मंत्रीमंडल और उसकी देख-रेख में काम करने वाले मंत्रालयों के सहयोग से, जनता के कुदरती संसाधनों को लूटा है। उन पांच वर्षों के दौरान, 150 अति मूल्यवान कोयला ब्लाक लगभग मुफ्त में कुछ कंपनियों को आवंटित किये गये। सी.ए.जी.
2004-09 के बीच में कोयला ब्लाकों में चुनिंदा निजी कंपनियों को आवंटन के बारे में सी.ए.जी. की रिपोर्ट से एक और स्पष्ट उदाहरण मिलता है कि कैसे इजारेदार पूंजीपतियों ने, केंद्रीय मंत्रीमंडल और उसकी देख-रेख में काम करने वाले मंत्रालयों के सहयोग से, जनता के कुदरती संसाधनों को लूटा है। उन पांच वर्षों के दौरान, 150 अति मूल्यवान कोयला ब्लाक लगभग मुफ्त में कुछ कंपनियों को आवंटित किये गये। सी.ए.जी. रिपोर्ट में बताया गया है कि इस प्रक्रिया में, जनता की तिजोरी (राजकोष) को 10,67,303 करोड़ रुपये (500 अरब अमरीकी डालर) की क्षति हुई।
जिन कंपनियों को केंद्र सरकार और उसके कोयला मंत्रालय द्वारा कोयला ब्लाक दिये गये, उनमें कुछ बड़े-बड़े इजारेदार घराने शामिल हैं, जैसे कि आदित्य बिरला ग्रुप, एस्सार ग्रुप, अदानी ग्रुप, आरसेलर मित्तल और जिन्दल। इनमें कुछ ऐसी कंपनियां भी शामिल हैं जिनका कुछ मंत्रियों और दूसरे राजनीतिक नेताओं के साथ सीधा संबंध है, जैसे कि नवीन जिन्दल (कांग्रेस सांसद), एस. जगतरक्षकन (सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री), सुबोध कांत सहाय (पर्यटन मंत्री), अजय संचेती (भाजपा राज्य सभा सांसद), विजय दर्डा (कांग्रेस सांसद) और राजेन्द्र दर्डा (महाराष्ट्र शिक्षा मंत्री), और प्रेम चंद गुप्ता (रा.ज.द. नेता और कंपनी मामलों का भूतपूर्व राज्य मंत्री)।
कोयला हिन्दोस्तान की सबसे कीमती कुदरती संसाधनों में से एक है। इस समय हिन्दोस्तान कोयला के उत्पादन और उपभोग में दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है। कोयला ऊर्जा का मुख्य स्रोत है जो हिन्दोस्तान की आधी से ज्यादा ऊर्जा की ज़रूरत को पूरा करता है। 1990 के दशक के आरंभ में निजीकरण और उदारीकरण कार्यक्रम के शुरू होने से पूर्व, कोयला का उत्पादन दो राजकीय कंपनियों, कोल इंडिया लिमिटेड (सी.आई.एल.) और सिंगरेनी कोलियरीस कंपनी लिमिटेड के हाथों में था। सिर्फ कुछ थोड़ी सी लोहा और इस्पात कंपनियों को ही अपने निजी उपयोग के लिये कोयला खदानों का इस्तेमाल करने की इजाज़त दी जाती थी। 1992 से, बिजली उत्पादन को बढ़ाने और आम तौर पर “संवर्धन” तेज़ी से करने के नाम पर, निजी कंपनियों को कोयला ब्लाक आवंटित करने की प्रक्रिया शुरू की गई।
ऐसी-ऐसी कंपनियों को भी कोयला ब्लाक दिये गये, जिनका कोई साबित अनुभव या तकनीकी क्षमता नहीं थी। इसके लिये उन्हें आवंटित कोयला ब्लाक की सरकारी भूगोलिक रिपोर्ट द्वारा निर्धारित कीमत से ज्यादा कुछ नहीं देना पड़ा। 2011 तक, कुल 49.44 अरब मेट्रिक टन की भूगोलिक संपदा समेत 194कोयला ब्लाक इस तरह आवंटित किये जा चुके थे। उम्मीद है कि इन कोयला ब्लाकों की संपदा लगभग अगले सौ वर्षों तक जारी रहेगी। इससे पता चलता है कि इन कंपनियों और इनके मालिकों को इस प्रक्रिया से कितना ज्यादा मुनाफा मिल सकता है, सिर्फ आज ही नहीं बल्कि अगले कई दशकों तक।
संसद में तथा सारे टी.वी. चैनलों में वाद-विवाद इस विषय पर चल रहा है कि कोयला ब्लाकों के आवंटन का तरीका क्या होना चाहिये, “पहले आओ, पहले पाओ” का तरीका या बोली लगाने का तरीका। यह वाद-विवाद भी चल रहा है कि भ्रष्टाचार-भरे इन सौदों से कांग्रेस पार्टी के नेताओं को ज्यादा फायदा हुआ या भाजपा के नेताओं को। पर मुख्य मुद्दा न तो आवंटन का तरीका है और न ही पूंजीपतियों की बड़ी पार्टियों के बीच स्पर्धा। मुख्य मुद्दा यह है कि कोयला जैसा निर्णायक राष्ट्रीय संसाधन निजी मुनाफाखोरों को नहीं बेचा जाना चाहिये।
खनिज संसाधन और दूसरे कुदरती संसाधन राष्ट्रीय संपदा हैं, जो लोगों की सम्पति है। कोयला संसाधन झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडीशा, असम, मेघालय, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश तथा उन सभी अन्य राज्यों के लोगों की संपत्ति है, जहां कोयला पाया जाता है। कोयला खनन के निजीकरण से पूर्व भी इन राज्यों के लोगों से उनकी यह संपत्ति लूटी जा चुकी थी। यह लूट केन्द्र सरकार की नाजायज़ व्यवस्था के ज़रिये चल रही थी, जिसके तहत “मुख्य खनिजों” पर रॉयल्टी की दर निर्धारित करने का अधिकार केंद्र सरकार को है, हालांकि इस रॉयल्टी से प्राप्त राजस्व राज्य सरकारों को मिलना चाहिये। कोयले पर रॉयल्टी को जानबूझकर बहुत कम रखा गया, ताकि बड़े-बड़े पूंजीपतियों को सस्ते में ऊर्जा दिलाया जा सके।
निजीकरण कार्यक्रम का मकसद है राष्ट्रीय धन की लूट को अभूतपूर्व हद तक बढ़ाना। इसके लिये निजी कंपनियों को खनिज संसाधनों पर सीधा नियंत्रण मिल जाता है, जिसका वे अपनी मनचाही गति से दोहन कर सकते हैं, या मुंह मांगी कीमत पर मोटा मुनाफा बनाते हुये किसी और को बेच सकते हैं, जैसा कि कई आवंटियों ने हाल में किया है।
हम लोगों को केंद्र सरकार या राज्य सरकार को कोयला ब्लोक किसी भी मनचाही कंपनी को बेचने की इजाज़त नहीं देनी चाहिये। यह असूल का मामला है। सरकार और बड़े पूंजीपति इस असूल के मामले से जनता का ध्यान हटाना चाहते हैं। वे लोगों के बीच वाद-विवाद को सिर्फ यहीं तक सीमित रखना चाहते हैं कि आवंटन का कौन सा तरीका बेहतर है।
निजी कंपनियों को जल्दी से कोयला ब्लोक आवंटित करने की ज़रूरत के लिये यह औचित्य दिया गया था कि हमारे देश में कोयले की मांग तेज़ी से बढ़ रही है, कि कोल इंडिया और सिंगरेनी इस बढ़ती मांग को इतनी तेज़ी से पूरा नहीं कर पा रहे हैं। परन्तु इस निजीकरण की नीति को पूरे जोर-शोर से लागू करने के बाद भी कोयले की सप्लाई ज्यादा नहीं हुई है। इतना ही नहीं, अब सी.ए.जी. की रिपोर्ट के बाद, कोल इंडिया, को कहा जा रहा है कि अपना उत्पादन तेज़ी से बढ़ाये!
इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि कोयला खनन का निजीकरण करने के फैसले का असली मकसद देश में कोयले की बढ़ती मांग को पूरा करना नहीं था, जैसा कि प्रधान मंत्री और अन्य नेताओं ने दावा किया है। इसका असली मकसद था कुछ थोड़े से विशेष अधिकार वाले पूंजीपतियों को बेशुमार मुनाफे कमाने का मौका देना। देश के लोगों को बुरी तरह लूटा गया है, उनके अधिकारों को पांव तले रौंद दिया गया है और यह सब कुछ विशेष अधिकार वाले शक्सों की तिजोरियों को भरने के लिये किया गया है।
कुदरती संसाधनों के निजीकरण को रोको और वापस लो! यह मजदूर वर्ग और उन सभी राष्ट्रों व लोगों की मांग है, जिनके संसाधन लूटे जा रहे हैं।
इस समस्या के स्थाई समाधान के लिये एक आवश्यक शर्त यह है कि इस देश में रहने वाले सभी राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं और लोगों को तथा कुदरती संसाधनों पर नियंत्रण करने व उससे लाभ उठाने के उनके अधिकार को मान्यता दी जाये।