भूमि अधिग्रहण तथा पुनर्वास एवं पुनःस्थापन (एल.ए.आर.आर.) विधेयक 2011, को मंत्रीमंडल द्वारा स्वीकृति अगस्त महीने के अंतिम सप्ताह में अपेक्षित है। इसके नये अवतार को भूमि अधिग्रहण उचित भरपाई अधिकार, पुनर्वास एवं पुनःस्थापन तथा पारदर्षिता (आर.सी.आर.आर.टी.एल.ए.) विधेयक 2012 का नाम दिया गया है। अभी के लिये, मंत्रीमंडल के सदस्यों द्वारा इस विधेयक की समीक्षा करने के लिये इसे संसद में पेश करने से टाला
भूमि अधिग्रहण तथा पुनर्वास एवं पुनःस्थापन (एल.ए.आर.आर.) विधेयक 2011, को मंत्रीमंडल द्वारा स्वीकृति अगस्त महीने के अंतिम सप्ताह में अपेक्षित है। इसके नये अवतार को भूमि अधिग्रहण उचित भरपाई अधिकार, पुनर्वास एवं पुनःस्थापन तथा पारदर्षिता (आर.सी.आर.आर.टी.एल.ए.) विधेयक 2012 का नाम दिया गया है। अभी के लिये, मंत्रीमंडल के सदस्यों द्वारा इस विधेयक की समीक्षा करने के लिये इसे संसद में पेश करने से टाला गया है। ऐसा बताया गया है कि ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा से एस.ई.जे़ड. तथा अन्य विशेष उत्पादन क्षेत्रों से इस विधेयक के सम्बन्ध पर परामर्श करने के लिये खास तौर पर समय मांगा है।
एल.ए.आर.आर. विधेयक 2011, संसद में सितम्बर 2011को पेश किया गया था, और उसके तुरंत बाद इसे स्थायी समिति को विचारार्थ भेजा गया था। स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट व सिफरिशें 31 मई, 2012 को संसद को दीं। सरकार को इन सिफारिशों पर गौर करके, इनको स्वीकार या अस्वीकार करके, इसे संसद में पेश करना होता है।
स्थायी समिति की एक अहम सिफारिश है कि सरकार को “सार्वजनिक उद्देश्य“ के बहाने, निजी और पी.पी.पी. क्षेत्र की कंपनियों के लिये भूमि अधिग्रहण नहीं करना चाहिये। देशभर के लोगों की यह मांग रही है।
परन्तु, ऐसा बताया गया है कि सरकार स्थायी समिति की इस सिफारिश को खारिज़ कर रही है। एक के बाद एक सरकारें यही करती हैं क्योंकि पूंजीपतियों का हित इसी में है। मंत्री जयराम रमेश ने साफ तरीके से सरकार का निश्चित निर्णय यही बताया है कि राज्य को पूंजीपतियों की मदद में दखलंदाजी करनी चाहिये। मंत्री आनंद शर्मा ने भी इसी का समर्थन किया है। उनके अनुसार, सरकार की भूमिका सार्वजनिक उद्देश्य तक सीमित नहीं रखी जा सकती है!
जब यह खबर मिली कि सरकार ने स्थायी समिति की सिफारिश को खारिज़ कर दिया है, तब से बहुत शोरगुल हुआ और देश के कोने-कोने में जन विरोध हुआ। लोग नर्मदा, कोयल कारो, सिंगूर, नन्दीग्र्राम, सोनभद्रा, छिंदवाड़ा, भावनगर, कलिंग, नागपुर, काशीपुर, रायगढ़, श्रीकाकुलम मध्य हिन्दोस्तान के खनन इलाकों, कुडनकुलम, जैतापुर, हरिपुर और गोरखपुर तथा अन्य बहुत सी जगहों से दिल्ली में सरकार द्वारा स्थायी समिति की अहम सिफारिश को खारिज़ करने पर अपना विरोध जताने जमा हुये। सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण का विरोध लोग अपने खुद के अनुभव के आधार पर कर रहे हैं। सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के “विकास“ की परियोजनाओं के लिये अति लालची इस्तेमाल से 10करोड़ लोग अपनी ज़मीन, रोजगार और घरों से विस्थापित हुये हैं। 2000 से 2005 तक के, सिर्फ पांच वर्षों में, 17 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि को गैर कृषि इस्तेमाल के लिये दिया गया है। मुआवजे के वादों को पूरा नही किया गया है, तथा पुनर्वास के कदम दिखावे के रहे हैं। इसीलिये लोग मांग कर रहे हैं कि, “… पहले सरकार यह घोषणा करे कि अभी तक अधिग्रहित भूमि का क्या इस्तेमाल हो रहा है और जिनकी रोजी-रोटी छीनी गयी है उनकी क्या हालत है। ऐतिहासिक अन्यायों की बात किये बिना अब और भूमि अधिग्रहण की बात नहीं हो सकती है।“
1894 का भूमि अधिग्रहण कानून, जो आज तक लागू है, तब की उपनिवेशवादी सत्ता को एमिनेन्ट डोमेन का अधिकार देता था – यानि कि, “सम्पत्तिहरण के अधिकार सहित, पूरे देश की सम्पत्ति पर राज्य का संप्रभु नियंत्रण“। 1947 के पश्चात, 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून ने केन्द्र व राज्य सरकारों को “सार्वजनिक उद्देश्य और कंपनियों के लिये भूमि अधिग्रहण और अधिग्रहित भूमि के लिये मुआवजा तय करने की“ वैसी ही ताकत दी है। 1962 और 1984 में किये गये संशोधनों ने यह बिल्कुल साफ कर दिया कि सरकार कंपनियों के लिये भूमि अधिग्रहण कर सकती है। हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों का हमेशा से यही निश्चित निर्णय रहा है और इस मामले में स्थायी समिति की सिफरिश को खारिज़ करना भी इसी दिशा में एक और कदम है। नये कानून से यह अपेक्षा है कि यह कुछ “राष्ट्रीय उत्पादन“ और “निवेश क्षेत्रों“ तथा दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे के लिये भूमि अधिग्रहण को आसान बनायेगा।
यह साफ है कि उपनिवेशवादी कानून में कोई भी संशोधन या विधेयक के नाम का बदलना, सिर्फ नाम के वास्ते ही है। उसकी वही दिशा होगी; कि हजारों प्रभावित लोगों की रोजी-रोटी छीन कर, इजारेदार पूंजीपतियों के लिये बहुत ही सस्ते दामों में भूमि उपलब्ध कराना। लोगों की खाद्य जरूरतों के लिये पर्याप्त कृषि भूमि उपलब्ध कराने के अधिक सामाजिक प्राथमिकता वाले सवाल को अंधकार में रखा जा रहा है।
कानून का नाम बदलकर सरकार यह दिखावा कर रही है, जैसे कि वह प्रभावित लोगों को नुकसान भरपाई के अधिकार को मान्यता देती है। नाम कुछ भी क्यों न हो, लोगों को तथाकथित पुनर्वास और नुकसान भरपायी का अपना अनुभव है। फिर भी, मूलभूत मुद्दा तो वही है – अधिकांश लोगों के हितों की अनदेखी करके, सार्वजनिक उद्देश्य के नाम पर, इजारेदार पूंजीपतियों के लिये सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण। लोगों को साफ है कि इसे छिपाने की हर कोशिश का बहादुरी से कड़ा विरोध करना होगा।