पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों की असुरक्षा के लिये केन्द्रीय राज्य और उसकी आतंकवादी नीति दोषी है!

बीते कुछ दिनों में, पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों के खिलाफ़ नस्लवादी हमलों और प्रचार फैलाये जाने के बाद, असम, नगालैंड, मणिपुर और दूसरे पूर्वोत्तर राज्यों के हजारों मजदूर और छात्र टेªनों पर चढ़कर अपने चिंतित परिवारों के पास, वापस घर भाग रहे हैं। इन लोगों की सुरक्षा और सम्मान को सुनिश्चित करने के लिये तुरंत ठोस कदम लेने की बजाय, केन्द्रीय अधिकारी बैंगलोर, पुणे, चेन्नई, हैदराबाद तथा अन्य शहर

बीते कुछ दिनों में, पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों के खिलाफ़ नस्लवादी हमलों और प्रचार फैलाये जाने के बाद, असम, नगालैंड, मणिपुर और दूसरे पूर्वोत्तर राज्यों के हजारों मजदूर और छात्र टेªनों पर चढ़कर अपने चिंतित परिवारों के पास, वापस घर भाग रहे हैं। इन लोगों की सुरक्षा और सम्मान को सुनिश्चित करने के लिये तुरंत ठोस कदम लेने की बजाय, केन्द्रीय अधिकारी बैंगलोर, पुणे, चेन्नई, हैदराबाद तथा अन्य शहरों से विशेष टेªनों का इंतजाम करके, उनके इस पलायन में मदद दे रहे हैं।

पूर्वोत्तर के लोगों में यह गहरी असुरक्षा की भावना, जिसकी वजह से वे हजारों की संख्या में, अपनी नौकरियां व काम-काज छोड़कर, भरी हुई टेªनों पर चढ़कर घर भाग रहे हैं, इसके लिये कौन या क्या जिम्मेदार है? बड़ी कंपनियों द्वारा नियंत्रित मीडिया की मदद के साथ, हमारे अधिकारी यह गुमराहकारी सोच फैला रहे हैं कि हिन्दोस्तान की दूसरी जगहों पर रहने वाले पूर्वोत्तर के लोगों को खतरा उन जगहों के दूसरे लोगों से है। हिन्दोस्तानी राज्य के विभिन्न वक्ता बड़ी-बड़ी घोषणायें कर रहे हैं कि वे पूर्वोत्तर के लोगों की अपने ”भाई-बहन“ जैसे ”रक्षा“ करेंगे, कि उन्हें डरने का कोई कारण नहीं है। वे यह भी प्रचार कर रहे हैं कि पाकिस्तान उन अफवाहों को फैलाने के लिये जिम्मेदार है, जिनकी वजह से यह आतंक की भावना इतनी फैल गई है।

यह सब झूठा प्रचार है, जिसका मकसद है असली मुद्दे पर पर्दा डालना। पूर्वात्तर के लोगों की आशंका और असुरक्षा का असली स्रोत राष्ट्रीय अत्याचार और अमानवीय राजकीय आतंकवाद है। हिन्दोस्तानी शासक वर्ग, केन्द्रीय राज्य और पूर्वोत्तर इलाके तथा उसके लोगों के प्रति राज्य की दमनकारी, आतंकवादी और भेदभाव वाली नीति ही इसके लिये दोषी है।

आज़ाद हिन्दोस्तान में पूर्वोत्तर के सभी लोग नस्लवादी पूर्वधारणाओं, भेदभाव, राष्ट्रीय दमन और उत्पीड़न के शिकार बने हैं। उन्हें गड़बड़ी फैलाने वाले और हिन्दोस्तान के लिये खतरे के रूप में पेश करना तथा पूर्वोत्तर इलाके को लगातार अशान्ति ग्रस्त इलाके के रूप में पेश करना सरकारी नीति का एक हिस्सा रहा है। केन्द्रीय राज्य की इस नीति के कारण पूर्वोत्तर इलाका बहुत कम विकसित रहा है और वहां के लाखों-लाखों लोग शिक्षा और नौकरी की तलाश में अपने घर छोड़कर दूर-दूर जाते हैं। घर से इतनी दूर जाकर, इन लोगों का यही अनुभव होता है कि जब उनके सामने कोई समस्या आती है तो केन्द्र या राज्य सरकार के अधिकारियों से उन्हें कभी कोई सुरक्षा या मदद नहीं मिलती। बल्कि उन्हें शक की नजर से देखा जाता है और बेइज़्ज़त किया जाता है। उन्हें लगातार यह सुनना पड़ता है कि उनके इलाके के लोग ”राष्ट्र विरोधी“, उग्रवादी और अलगाववादी हैं। यही परिस्थिति हमारे देश के अन्दर इस इलाके के लोगों की असुरक्षा और शक्तिहीनता के लिये जिम्मेदार है।

पूर्वोत्तर के अधिकतम भागों में सैनिक शासन एक हकीकत है। पूर्वोत्तर के लोगों के लिये, 1947 में ब्रिटिश के चले जाने से, उपनिवेशवादी शासन खत्म नहीं हुआ। उसी समय से इन इलाके पर नई दिल्ली ने अपना उपनिवेशवादी शासन चलाया है। जब भी इस इलाके के लोगों ने अपने राष्ट्रीय और राजनीतिक अधिकार मांगे हैं, तब उन्हें बेरहमी से कुचल दिया गया है और विदेशी ताकतों के दलाल बताया गया है।

सैनिक शासन के चलते, नौजवानों को पकड़ कर मारा-पीटा गया है, जेल में बंद कर दिया गया है और मार डाला गया है। महिलाओं का बलात्कार किया गया है, गांवों और घरों पर बार-बार छापे मारे गये हैं। सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम जैसे काले कानूनों को रद्द करने की सभी कोशिशें नाकामयाब रही हैं, चाहे कितनी ही बार लोगों तथा उनके चुने गये प्रतिनिधियों ने मिलकर इसकी मांग की है। लोगों के प्रतिरोध को बांटने और गुमराह करने के लिये केन्द्रीय खुफिया संस्थान और शासक वर्ग के नेताओं ने कई सशस्त्र गिरोहों को पाल रखा है, जो आपस में लड़ते हैं, लोगों को डराते हैं और असुरक्षा व आतंक के वातावरण को बढ़ाते हैं।

पूर्वोत्तर के नौजवान और मजदूर, जो अपने राज्यों में आतंक के वातावरण से बचने और वहां दुर्लभ नौकरियों की वजह से नौकरी की तलाश में घर छोड़कर दूर-दूर जाने को मजबूर होते हैं, वे कहीं और जाकर भी सुरक्षित नहीं महसूस करते हैं। शासक पूंजीपति वर्ग और उसके प्रतिस्पर्धी गुटों व पार्टियों की फूट डालने वाली और भटकाववादी राजनीति के चलते, कहीं भी उन्हें ”विदेशी“ बताकर हमलों का शिकार बनाया जाता है।

इतने दशकों तक केन्द्रीय राज्य और उसके संस्थानों के दमन और आतंक का शिकार बनाने के बाद, यह स्वाभाविक है कि इस इलाके के लोग केन्द्र के उन नेताओं पर विश्वास नहीं करते, जो आज ऐलान कर रहे हैं कि पूर्वोत्तर के लोग सभी हिन्दोस्तानी हैं और उन्हें सुरक्षा दिलाने का वादा कर रहे हैं। कई पूर्वोत्तर के लोगों को यह महसूस हो रहा है कि इसके पीछे एक धमकी है; कि उन्हें कहा जा रहा है कि अगर सुरक्षित महसूस करना है तो हिन्दोस्तानी संघ और उसकी नीति के प्रति वफादार रहो।

इस हिन्दोस्तानी संघ के अन्दर पूर्वोत्तर के लोगों पर इस असहनीय आतंक और असुरक्षा को खत्म करना होगा! एक स्थायी राजनीतिक समाधान के लिये जरूरी पहले कदम बतौर, सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम जैसे फासीवादी कानूनों को फौरन रद्द करना होगा और राजकीय आतंकवाद तथा सैनिक शासन की नीति को खत्म करना होगा।

इस इलाके के सभी राष्ट्रों व लोगों के राष्ट्रीय, राजनीतिक और मानवीय अधिकारों का आदर करके ही इस समस्या का समाधान हो सकता है। अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो यह प्रचार करना निरर्थक है कि उन्हें देश के दूसरे भागों में जाकर असुरक्षित नहीं महसूस करना चाहिये, कि उन्हें यह महसूस करना चाहिये कि वे हिन्दोस्तानी हैं, कि हिन्दोस्तान उनका देश है, इत्यादि।

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी, केन्द्रीय राज्य और उसकी नीति की कड़ी निंदा करती है, जो पूर्वोत्तर के लोगों के अत्याचार और असुरक्षा का मुख्य स्रोत है। पूर्वोत्तर के लोगों के खिलाफ़ भेदभाव और आतंक के महौल को फौरन खत्म करना होगा और इस इलाके के सभी लोगों के राष्ट्रीय, राजनीतिक व मानव अधिकारों को पूर्ण मान्यता देने के आधार पर एक राजनीतिक समाधान निकालना होगा!

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