बैंकिंग व्यवस्था की समस्या का समाधान क्या है?

हमारे देश के बैंकों की समस्या बद से बदतर होती जा रही है और यह गहरी चिंता का विषय है।

इस चिंता का स्रोत है पूंजीपतियों द्वारा बैंकों के कर्ज़ों को वापस न करने से पैदा हुआ संकट है, जिसका बोझ लोगों के कंधों पर डाला जा रहा है। पिछले 7 वर्षों में सार्वजनिक बैंकों ने कर्ज़दार पूंजीपतियों के कुल 6,70,000 करोड़ रुपये के कर्ज़ की माफी की है। इस कर्ज़माफी के चलते बैंकों को जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई करने के लिए केंद्रीय बजट से 3,15,000 करोड़ रुपये इन बैंकों को हस्तांतरित किये गए हैं। लेकिन इसके बावजूद न चुकाये गये कर्ज़ों की समस्या बढ़ती ही जा रही है।

चिंता की दूसरी वजह यह है कि जब किसी बैंक का दिवाला निकल जाता है और वह जमाकर्ताओं के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करने में असफल हो जाता है तो इसका हर्ज़ाना उन लोगों को भुगतना पड़ता है, जिन्होंने अपने खून-पसीने की कमाई बैंकों में जमा की थी, उनकी सारा धन खतरे में पड़ जाता है।

कर्जदार पूंजीपतियों द्वारा कर्ज़ वापस न करने की समस्या केवल सार्वजनिक बैंकों तक सीमित नहीं है। अक्तूबर 2018 में निजी क्षेत्र के देश के दूसरे सबसे बड़े के बैंक आई.सी.आई.सी.आई. की प्रबंध निदेशक को अपने पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा। उन पर इल्ज़ाम है कि उन्होंने एक ऐसी कंपनी को बहुत बड़ा कर्ज़ा दिया जिनसे उनके व्यक्तिगत हित मिले हुए हैं। इस समय उनपर सी.बी.आई. की जांच चल रही है।

सितम्बर 2018 को आई.एल. एंड एफ.एस. जो कि देश की सबसे बड़ी गैर-बैंकिंग सेवा कंपनियों में से एक है, जिसने बैंकों से लिया गया 99,000 करोड़ रुपये का कर्ज़ा समय पर वापस नहीं किया है। इस घटना से पूरे वित्तीय सेवा बाज़ार में नगदी (लिक्विडिटी) का संकट खड़ा हो गया है। अप्रैल 2019 में इस कंपनी के प्रमुख अधिकारियों को गिरफ्तार किया गया था।

मार्च 2019 तक रिजर्व बैंक ने देशभर में कम से कम 26 शहरी को-आपरेटिव बैंकों के जमाकर्ताओं पर बैंक से अपनी जमापूंजी निकालने पर पाबंदी लगा रखी है, क्योंकि कर्जदार पूंजीपतियों ने इन बैंकों से बड़े पैमाने पर ली गई कर्ज़ की रकम वापस नहीं की है। इनमें से सबसे बड़ा बैंक पंजाब महाराष्ट्र को-आपरेटिव बैंक है, जो अक्तूबर 2019 में धराशायी हो गया।

मार्च 2020 में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने एक निजी बैंक, यस बैंक को न चुकाये गये कर्ज़ों की वजह से आए संकट से बचाने के लिए 10,000 करोड़ रुपये की राशि ज़मानत के रूप में दी है। न चुकाये गये कर्ज़ों की भारी मात्रा की वजह से यस बैंक की पूंजी में गिरावट हुई है। यस बैंक के चीफ एग्ज़ीक्यूटिव ऑफिसर को पूंजीपतियों को कर्ज़ की सुविधा दिए जाने के दौरान हवाला (मनीलांडरिंग) और भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार किया गया है।

अमरीका में विशाल आकार के बैंकों द्वारा सट्टेबाज़ी की वजह से 2007-08 में वित्तीय व्यवस्था में जो संकट फूट पड़ा था, वह दुनियाभर में फैल गया था। हाल ही में अमरीका के दूसरे सबसे बड़े बैंक, वेल्स फार्गो बैंक पर ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी करने का आरोप लगा है और जनवरी 2020 में उसे 3 अरब अमरीकी डॉलर (22,500 करोड़ रुपये) का हर्जाना देना पड़ा। इस बैंक ने 2002 और 2016 के बीच ग्राहकों की जानकारी के बगैर ही उनके नाम से लाखों करोड़ों खाते खोले थे। उसने अपने कर्ज़दारों से अधिक सूद की वसूली की, गैरकानूनी तरीके से उनके वाहनों और घरों की जब्ती की, फर्जी दस्तावेज़ों के आधार पर कर्ज दिए और ग्राहकों की जानकारी के बगैर उनके नाम से बीमा खाते खरीदे।

यह सारी जानकारी यही साबित करती है कि निजीकरण की वजह से बैंकिंग व्यवस्था की समस्याओं का निवारण होगा, इस दावे में कोई दम नहीं है।

आज पूंजीवाद जिस अवस्था में है, उसमें हर संभव तरीके से अधिकतम मुनाफ़े बनाने की कोशिश करना उसका चरित्र है और यही समस्या का स्रोत है। इजारेदार पूंजीपतियों ने बैंकिंग व्यवस्था को लोगों को हर संभव तरीके से लूटने की व्यवस्था बना दिया है।

इजारेदार पूंजीपति सट्टेबाजी में निवेश के लिए राजकीय बैंकों से बड़े-बड़े कर्ज़ हासिल करने के लिए अपने राजनीतिक संबंधों का इस्तेमाल करते हैं। जब कभी इस तरह के निवेशों से अपेक्षित मुनाफ़े नहीं मिलते हैं तो ये पूंजीपति बैंकों का कर्ज़ा वापस करने में चूक जाते हैं, और इस वजह से बैंकों को हो रहे नुकसान का बोझ सरकार सभी आम लोगों के कंधों पर डाल देती है।

अधिकतम मुनाफ़े बनाने की कोशिश में ग्राहकों को लूटने के अलग-अलग तरीके अपनाये जाते हैं। बैंक स्टॉक, मुद्रा, बांड और वस्तुओं के बाज़ार में सट्टेबाजी करते हैं और लोगों की जमा-पूंजी के साथ जुआ खेलते हैं। बैंक के कर्मचारियों को खाताधारकों से अधिक राशि जमा करवाने और बीमा पालिसी और म्यूच्यूअल फण्ड बेचने के ऊंचे लक्ष्य देकर उन्हें कमीशन का लालच दिया जाता हैं।

सवाल केवल यह नहीं कि बैंक पर किसका स्वामित्व है। सवाल यह है कि बैंक की कार्यवाहियों का सर्वोपरि लक्ष्य अधिकतम मुनाफे़ बनाना है या पूरे समाज की ज़रूरतों को पूरा करना है।

बैंकों को राजकीय स्वामित्व में लाने भर से उसका पूंजीवादी चरित्र और दिशा बदल नहीं जाती है। जब तक राज्य पर ही पूंजीपति वर्ग का नियंत्रण है, जिसकी अगुवाई इजारेदार पूंजीवादी घराने करते हैं, राजकीय बैंक हमेशा इजारेदार पूंजीपतियों की लालच को पूरा करने का साधन बने रहेंगे। यदि बैंकों के सर्वोपरि लक्ष्य को बदलना है तो, राज्य के चरित्र को बदलना होगा।

मौजूदा राज्य, जो कि पूंजीपति वर्ग की हुकूमत का तंत्र है, उसे बदलकर मज़दूरों और किसानों का राज क़ायम करना होगा। केवल मज़दूरों-किसानों का राज्य ही पूरी बैंकिंग व्यवस्था और समूची अर्थव्यवस्था को लोगों की बढ़ती हुई जरूरतों को पूरा करने की दिशा में मोड़ सकता है और वह ऐसा करेगा। उत्पादन की पूरी प्रक्रिया को एक केंद्रीकृत योजना के तहत चलाया जा सकता है, जिसमें बैंकिंग व्यवस्था तमाम उत्पादन गतिविधियों को चलाने के लिए ज़रूरी कर्ज़ देने की महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगी। देशभर में मुद्रा प्रवाह को इस तरह से नियमित किया जा सकता है जिससे तमाम उत्पादन और व्यापार गतिविधियों की ज़रूरत पूरी की जा सके और साथ की मुद्रास्फीति और सट्टेबाजी का नामोनिशान मिटाया जा सके।

हमारे देश के बैंक मज़दूर लगातार यह मांग करते आये हैं कि बैंकिंग व्यवस्था को समाज की ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में चलाया जाना चाहिए, न कि अधिकतम पूंजीवादी मुनाफे हासिल करने के लिए। इस मांग को पूरा करने के लिए मज़दूरों और किसानों का राज कायम करने और अर्थव्यवस्था की दिशा को लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने की दिशा में मोड़ने की ज़रूरत है न कि पूंजीपतियों की लालच के लिए।

सोवियत संघ में बैंकिंग की दिशा को किस तरह बदल दिया गया?

सोवियत संघ में समाजवाद का निर्माण माक्र्सवादी सिद्धांत के आधार पर किया गया था जिसमें निम्नलिखित बुनियादी नियम शामिल हैं : 1) मुद्रा किसी भी वस्तु के मूल्य का एक माप है, यानि कि किसी भी वस्तु में कितना सामाजिक श्रम सम्मिलित है यह इसका माप है। 2) केवल एक वस्तु (जैसे कि सोना) जिसका कोई मूल्य है, उसे किसी अन्य मूल्य के माप के रूप में उपयोग किया जा सकता है। और 3) बैंक नोट या कोई अन्य मुद्रा पैसे का काम तभी कर सकती है जब उसे सोने जैसी किसी वस्तु की निर्धारित मात्रा के रूप में पेश किया जाता है।

1917 की महान अक्तूबर समाजवादी क्रांति के बाद, देश की तमाम वाणिज्यिक गतिविधियों के साथ-साथ मुद्रा की आपूर्ति को एकमात्र बैंक गोसबैंक के तहत लाया गया, जो सीधे वित्तिय मंत्रालय के प्रति जवाबदेह था। गोसबैंक का काम था 1) कर्ज़ या किसी अन्य बैंकिंग गतिविधि के द्वारा उद्योग, कृषि और वस्तुओं के व्यापार में मदद करना और 2) मुद्रा के प्रवाह के नियमन के लिए बनाये गए क़दमों को लागू करना।

सभी राजकीय उद्यमों, को-आपरेटिव एवं व्यक्तिगत उद्यमों सहित सभी आर्थिक उद्यमों के लिए ज़रूरी अल्प-कालीन कर्ज़े के लिए गोसबैंक एकमात्र स्रोत था। उद्योगों, कृषि, व्यापार और नगर-पालिका संस्थानों को लगने वाले दीर्घ-कालीन निवेश कर्ज़ के लिए विशेष संस्थान बनाये गए थे। बड़े पैमाने पर उत्पादन में लगे उद्यमों को निजी पूंजीपतियों की संपत्ति से बदलकर सभी लोगों की सामाजिक संपत्ति में परिवर्तित कर दिया गया। किसानों के खेतों सहित सभी छोटे-आकार के उद्यमों को अपने व्यक्तिगत उत्पादन के साधनों को सामूहिक संपत्ति में परिवर्तित करने और को-आपरेटिव उद्यम बनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

एक राष्ट्रीय लेखा व्यवस्था और कर्ज़ व्यवस्था को विकसित करने में गोसबैंक ने एक प्रमुख भूमिका निभाई, जिसमें कर्ज़दारों द्वारा लिए गए कर्ज़ के दुरुपयोग को रोकने के सख़्त प्रावधान बनाये गए। देश के भीतर मुद्रा की मात्रा और उसकी गति को नियमित करने के लिए गोसबैंक को अधिकार दिए गए कि वह सभी सरकारी विभागों और उद्यमों में निष्क्रिय पड़ी मुद्रा को इकट्ठा करें। इन क़दमों से मुद्रास्फीति को शून्य तक लाने और सभी तरह की वित्तीय सट्टेबाज़ी को ख़त्म करने में सफलता हासिल की गयी।

सोवियत राज्य ने बैंक में जमा राशि की सुरक्षा की गारंटी दी। बैंक में जमा राशि पर 1 प्रतिशत से भी कम ब्याज दर थी और उत्पादक उद्यमों के लिए 2-3 प्रतिशत ब्याज दर पर कर्ज़ दिया जाता था। सरकार को दिए गए कर्ज़ पर कोई ब्याज नहीं था। इस तरह से कमाई गयी शुद्ध ब्याज आय बैंक मज़दूरों के वेतन के भुगतान समेत बैंक की सभी अन्य गतिविधियों को चलाने के लिए पर्याप्त थी।

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