2010 के आखिरी 6 महीनों में अमरीका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन के प्रधानों ने सरकारी तौर पर हिन्दोस्तान की यात्रा की। यह देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 5 स्थाई सदस्य हैं, जिन्हें पी-5 के नाम से जाना जाता है। इन पी-5 प्रधानों का, एक के बाद एक, हिन्दोस्तान आना यह दिखाता है कि दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी त
2010 के आखिरी 6 महीनों में अमरीका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन के प्रधानों ने सरकारी तौर पर हिन्दोस्तान की यात्रा की। यह देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 5 स्थाई सदस्य हैं, जिन्हें पी-5 के नाम से जाना जाता है। इन पी-5 प्रधानों का, एक के बाद एक, हिन्दोस्तान आना यह दिखाता है कि दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताकतें आज हिन्दोस्तान में बहुत रुचि ले रही हैं। इन यात्राओं के दौरान जो समझौते किये गये और जो घोषणाएं की गईं, इन से यह भी दिखता है कि हमारा देश खतरनाक साम्राज्यवादी रास्ते पर चल रहा है और दुनिया के हमलावर लुटेरों के विशिष्ट गिरोह में शामिल होना चाहता है।
इन में से प्रत्येक यात्रा को और उसके सार और समझौतों को दोनों देशों के बीच के इतिहास के नजरिये से देखना जरूरी है, ताकि इस बात पर सही निष्कर्ष निकाला जा सके कि हिन्दोस्तान के विदेशी सम्बधों में क्या परिवर्तन हुआ है और किस दिशा में हो रहा है।
हिन्दोस्तान और पी-5 के बीच दुतरफे सम्बंध
हिन्दोस्तान और अमरीका :
शीत युध्द के दौरान हिन्दोस्तान ने 1971 में सोवियत संघ के साथ सैनिक संधि की थी। इसके जरिये हमारे देश को सोवियत छावनी में डाल दिया गया, हालांकि हमारे नेता ‘गुट निरपेक्षता’ के झंडे सहित दोनों महाशक्तियों के साथ काम करने की नीति अपना रहे थे।
सोवियत संघ ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दोस्तान की दखलंदाजी और बांग्लादेश की स्थापना को समर्थन दिया था। हिन्दोस्तानी राज्य की सैनिक सामग्रियों का मुख्य भाग सोवियत संघ से आयात किया जाता था, न कि अमरीका से।
सोवियत संघ के विघटन के बाद हिन्दोस्तान और अमरीका के नेताओं ने अपने आपसी संबंध को नई परिभाषा देने के लिये समझौतों और बातचीत की लम्बी प्रक्रिया चलाई। अमरीकी साम्राज्यवादी एशिया पर कब्जा करने तथा अपनी हुक्मशाही के तले एकध्रुवीय दुनिया स्थापित करने के अपने हमलावर दौर में हिन्दोस्तान को एक उपयोगी मित्र समझने लगे। ”इस्लामी आतंक के खिलाफ़ जंग” छेड़ने के नाम पर फासीवादी हमले में और एकमात्र मान्यता प्राप्त राजनीतिक प्रक्रिया बतौर बहुपार्टीवादी प्रतिनिधित्व वाले लोकतंत्र को बढ़ावा देने में उन्होंने हिन्दोस्तान को अपना ‘स्वाभाविक मित्र’ माना।
वर्तमान हालतों में अमरीकी साम्राज्यवादी अपने हथियारों और भारी सामग्रियों के लिये हिन्दोस्तान को एक अत्यंत महत्वपूर्ण बाजार मानते हैं। हमारे देश के पूंजीपति अपनी पूंजी और उत्पादन के आधार को दुनिया में फैलाने, परमाणु सक्षमता पाने और पाकिस्तान को कमजोर व अकेला करने के लिये, हिन्दोस्तान-अमरीका सहयोग और सहकार्य को एक सही साधन मानते हैं।
हिन्दोस्तान-अमरीका ‘रणनैतिक सांझेदारी’ की घोषणा और 2005 में परमाणु करार पर हस्ताक्षर हमारे दुतरफा संबंध में एक अहम परिवर्तन था। अमरीका के लिये हिन्दोस्तान के साथ सम्बंध रणनैतिक महत्व का सम्बंध है, जिसके सहारे चीन पर काबू पाया जा सकता है। हिन्दोस्तान के लिये, जो पहले एक भूतपूर्व उपनिवेश और एक साम्राज्यवादी महाशक्ति के बीच सम्बंध हुआ करता था, यह अब बदलकर दो साम्राज्यवादी ताकतों के बीच का संबंध बन गया है। बेशक यह एक महाशक्ति और एक नयी उभरती हुई साम्राज्यवादी शक्ति के बीच, असमान संबंध है। परन्तु इसके बावजूद, यह एक अन्तर साम्राज्यवादी सम्बंध है जिससे दोनों ताकतों को लाभ है और उनके अपने-अपने देशों के लोगों तथा दूसरी स्पर्धाकारी ताकतों को नुकसान है।
अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा की यात्रा के दौरान, उनके साथ पूंजीवादी उद्योगपतियों का अप्रत्याशित विशाल प्रतिनिधिमंडल उपस्थित था। इससे यह स्पष्ट हुआ कि अमरीकी सरकार अपने देश में आर्थिक मंदी, व्यापार में बड़ा घाटा और ऊंची बेरोजगारी की समस्याओं को हल करने की अपनी कोशिशों के हिस्सा बतौर, हिन्दोस्तान को अमरीकी निर्यात बढ़ाने में बेहद इच्छुक है। उस यात्रा के दौरान, विमान उड़ान, बिजली और अन्य क्षेत्रों में सामान सप्लाई करने के लिये अमरीकी पूंजीवादी कंपनियों के साथ दस अरब डॉलर के सौदे किये गये। बोइंग कंपनी के साथ एक सौदा किया गया, जिसके तहत हिन्दोस्तानी सेना लगभग 3.5 अरब डॉलर के 10 सी-17 परिवहन विमान खरीदेगी। अमरीकी कंपनियों के लिये ओबामा द्वारा किये गये आर्थिक और सैनिक सौदों के बदले में, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बनाये जाने के हिन्दोस्तान के दावे को अमरीकी राष्ट्रपति का मौखिक समर्थन मिला।
हिन्दोस्तान और रूस :
सोवियत संघ के पतन के बाद रूस के साथ हिन्दोस्तान के सम्बंध नये तौर पर फिर से बनाने पड़े। 1990 के दशक में, इससे पहले की तुलना में, दोनों देशों के बीच सम्बंध बहुत निम्न स्तर पर थे। परन्तु रूस और अमरीका के बीच तनाव बढ़ने की वजह से, रूसी सरकार को हिन्दोस्तान के साथ अपने सम्बंध फिर से बनाने की ओर ज्यादा ध्यान देना पड़ा। 1990 के दशक में रूस के आर्थिक पतन के बावजूद, रूस दुनिया में सबसे बड़े हथियारों के उत्पादकों और विक्रेताओं में से एक बना रहा। ऐसे समय पर जब पश्चिमी ताकतें हिन्दोस्तान को परमाणु संयंत्र बेचने को राजी न थीं, तब रूस हिन्दोस्तान को परमाणु संयंत्र (कूडमकुलम में) सप्लाई करने को तैयार था।
हिन्दोस्तानी शासक विविध स्रोतों से हथियार खरीदने की अपनी नीति के बतौर, रूस से सैनिक सामग्रियों के आयात को बढ़ाने में रुचि दिखा रहे हैं। रूस में तेल और प्राकृतिक गैस के विशाल संसाधन हैं, और हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों को अपने प्रसारवादी इरादों को हासिल करने के लिये इन चीजों की सख्त जरूरत है।
दिसम्बर में रूसी राष्ट्रपति मेडवेडेव की यात्रा के दौरान, हिन्दोस्तान के इतिहास में सबसे बड़े सैनिक सौदे पर हस्ताक्षर किया गया। यह हिन्दोस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एच.ए.एल) और रूस के रोसोबोरोनेक्सपोर्ट और सुखोई के बीच, हिन्द-रूस पांचवी पीढ़ी लड़ाकू विमान की प्रारंभिक डिजाइन के लिये ठेका था। पूरी परियोजना के खर्चे का अनुमान 30 अरब डॉलर से भी अधिक है। इसके अलावा, रूस ने हिन्दोस्तान को ग्लोनास उच्च सुक्ष्मता समुद्री मार्गदर्शन सिग्नल देने की सहमति जताई, जिससे सिग्नल के लिये उपग्रह पर आधारित मार्गदर्शन सिस्टम पर हिन्दोस्तानी सेना की वर्तमान निर्भरता कम हो जायेगी। रूस ने तामिलनाडु के कूडमकुलम में अतिरिक्त परमाणु संयंत्र देने का वादा भी किया, हालांकि इस पर कोई खास सौदा नहीं किया गया।
हिन्दोस्तान और ब्रिटेन :
हाल के वर्षों में हिन्दोस्तान और अमरीका के बीच के सम्बंधों में गर्माहट आने के बावजूद, ब्रिटेन के साथ हिन्दोस्तानी राज्य के सम्बंधों पर पाकिस्तान की छाया पड़ी रही। ब्रिटिश सरकार पर यह आरोप लगाया जाता रहा कि वह पाकिस्तान से पक्षपात कर रही है। हिन्दोस्तान की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों ने ब्रिटिश नेताओं की भूतपूर्व यात्राओं के दौरान कश्मीर के बारे में उनके वक्तव्यों पर काफी नाराजगी दिखाई है।
आज हिन्दोस्तानी पूंजीपति ब्रिटेन में विदेशी पूंजीनिवेशकों के दूसरे सबसे बड़े दल हैं। ब्रिटेन के पूंजीपति अपने मुनाफों को बचाकर आर्थिक संकट से निकलने की कोशिश कर रहे हैं। इन कोशिशों के तहत, हिन्दोस्तान को किये गये निर्यात को ऊंची प्राथमिकता दी जा रही है।
जुलाई 2010 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री कैमरॉन की यात्रा के दौरान किये गये सौदों में मुख्य सौदा ब्रिटिश एरोस्पेस द्वारा हिन्दोस्तानी वायुसेना और नौसेना को 57 हॉक जेट विमानों की सप्लाई के लिये था, जो 1.1 अरब डॉलर का सौदा था। इसके बदले में कैमरॉन ने अपने राजनीतिक रवैये में थोड़ा लचीलापन दिखाकर पाकिस्तान की, हिन्दोस्तान और दूसरे देशों में ”आतंकवाद का निर्यात” करने के लिये, आलोचना की, जिससे हिन्दोस्तान के शासक बड़े खुश हो गये।
हिन्दोस्तान और फ्रांस :
हालांकि फ्रांस नाटो में अमरीका का मित्र है, परन्तु अपनी विदेश नीति में फ्रांस ने हमेशा हर विषय पर अमरीका का आदेश नहीं माना है। मिशाल के तौर पर, फ्रांस ने कुछ उच्च प्रौद्योगिकी के सैनिक उद्योगों में विशेष सक्षमता प्राप्त की है और अमरीकी नीतियों की परवाह किये बिना, अपने उत्पादों के बाजारों को विस्तृत करने की कोशिश की है। हिन्दोस्तानी राज्य ने इन अंतर साम्राज्यवादी अंतर-विरोधों का फायदा उठाया है। मिसाल के तौर पर, ऐसे समय पर जब पश्चिमी देश हिन्दोस्तान को परमाणु ईंधन देने को तैयार न थे, तब हिन्दोस्तान ने अपने तारापुर परमाणु बिजली संयंत्र के लिये फ्रांस से परमाणु ईंधन की सप्लाई प्राप्त की थी।
फ्रांस के राष्ट्रपति सारकोज़ी की हाल की यात्रा के दौरान महाराष्ट्र के जैतापुर में 6 परमाणु संयंत्रों में से पहले 2 का निर्माण करने के लिये लगभग 25 अरब डॉलर के पांच समझौतों पर हस्ताक्षर किये गये। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता दी जाने की हिन्दोस्तानी राज्य की मांग के लिये फ्रांस ने भी खुलकर समर्थन जताया।
हिन्दोस्तान और चीन :
1950 के दशक के अंतिम वर्षों से लेकर 1980 के दशक के अंतिम वर्षों तक हिन्दोस्तान और चीन के आपसी सम्बंध बहुत तनावपूर्ण रहे, हालांकि दोनों देश अपने-अपने उपनिवेशवादी अतीत से उभरे थे। इन संबंधों को बिगाड़ने वाले तत्कालीन मुद्दे दोनों देशों के बीच न सुलझा हुआ सीमा विवाद, देश निकाला तिब्बती नेता दलाई लामा को हिन्दोस्तानी सरकार के समर्थन का मुद्दा, पाकिस्तान के साथ चीन के निकट सम्बंध, इत्यादि थे। परन्तु दुश्मनी की मुख्य वजह माओ त्से तुंग की अगुवाई में चीन को अलग करने और भड़काने की अमरीकी व सोवियत समर्थित कोशिशों में हिन्दोस्तान की भूमिका थी। 1962 में हिन्दोस्तान और चीन के बीच सीमा के मुद्दे पर एक छोटा युध्द भी हुआ था।
पूंजीवादी वैश्विक अर्थव्यवस्था में दोनों चीन और हिन्दोस्तान के अधिक से अधिक हद तक शामिल हो जाने से, उनके आपसी संबंधों में मुख्य परिवर्तन हुये हैं। व्यापार सम्बंधों में अप्रत्याशित वृध्दि हुई है। इस समय चीन हिन्दोस्तान का सबसे बड़ा व्यापार साझेदार है और दोनों देशों के बीच व्यापार लगभग 60 अरब डॉलर का है।
दोनों देशों के पूंजीपति विभिन्न बाजारों में एक दूसरे के साथ स्पर्धा करते हैं। अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों को विस्तृत करने के लिये अनिवार्यत: आपसी दुश्मनी भी है। साथ ही साथ, दोनों की आर्थिक ताकत के बढ़ने से पारस्परिक हित के सहयोग के अवसर भी पैदा हो रहे हैं।
चीनी प्रीमियर की हिन्दोस्तान यात्रा के दौरान यह स्पष्ट किया गया कि इस समय कोई भी पक्ष सैनिक दुश्मनी नहीं चाहता है। तनाव जारी है, दोनों देश एक दूसरे को शक की नजर से देखते हैं। यह स्पष्ट है कि अमरीका चीन को उकसाने के इरादे से, पूर्व की ओर हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों के मंसूबों को प्रश्रय दे रहा है, जिसके कारण हिन्दोस्तानी-चीनी संबंध और जटिल हो रहा है।
समाचार रिपोर्टों में इस बात पर जोर दिया गया कि दूसरे पी-5 नेताओं से भिन्न, चीनी प्रीमियर ने न तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए हिन्दोस्तान के मंसूबों का समर्थन प्रकट किया, न ही उन्होंने ‘आतंकवाद के निर्यात’ के लिए पाकिस्तान को फटकारा। 16 अरब डालर से अधिक कीमत के सौदे किये गये और नियमित तौर पर उच्चस्तरीय यात्राओं की परंपरा को बनाये रखने पर सहमति प्रकट की गई।
समीक्षा
वैश्विक आर्थिक संकट की वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय हालतों और हमारे देश में पूंजीवाद के काफी तेज़ गति से संवर्धन के संदर्भ में देखा जाये तो हिन्दोस्तानी बाजार में अपने-अपने पूंजीपतियों के हिस्सों को बढ़ाने में प्रमुख साम्राज्यवादी राज्यों की कोशिशें इन सभी नेताओं की यात्राओं में स्पष्ट नज़र आयीं। हमारे देश के पूंजीवादी शासक वर्ग ने पी-5 देशों की हिन्दोस्तान में बढ़ती रुचि का फायदा उठाकर, अपनी सैनिक ताकत को तेजी से बढ़ाने और इस विशिष्ट गिरोह का हिस्सा बनाये जाने की अपनी मांग को बढ़ावा देने की पूरी-पूरी कोशिश की।
हिन्दोस्तान के पूंजीपति एक बड़ी साम्राज्यवादी ताकत बनने के अपने इरादों को हासिल करने के लिए तेज़ी से अपनी सैनिक क्षमता को विस्तृत कर रहे हैं और उसमें उन्नति ला रहे हैं। पड़ोस के क्षेत्र में, खासतौर पर पाकिस्तान पर अपनी सैनिक प्रधानता को फिर से साबित करने के अलावा, चीन की बढ़ती सैनिक ताकत के साथ बराबरी प्राप्त करने का तथा दूर के सैनिक अभियानों के लिए सक्षमता तैयार रखने का भी उनका उद्देश्य है। आने वाले दशक में यह अनुमान लगाया जा रहा है कि सैनिक क्षमता को बढ़ाने पर 300-400 अरब डालर खर्च किये जायेंगे।
अलग-अलग ऐतिहासिक हालतों से शुरू होकर, दुनिया की प्रत्येक बड़ी साम्राज्यवादी ताकत के साथ हिन्दोस्तान का संबंध आज बदल रहा है और दो साम्राज्यवादी ताकतों के आपसी संबंध का रूप ले रहा है। इन संबंधों के पीछे कोई असूल नहीं है, सिर्फ प्रत्येक पक्ष के साम्राज्यवादी हितों को बढ़ावा देने का इरादा ही है। जैसा कि साम्राज्यवादी राज्यों के आपसी संबंध में स्वाभाविक है, प्रत्येक साम्राज्यवादी देश के साथ हिन्दोस्तान के संबंधों में स्पर्धा और मिलीभगत, दोनों मौजूद हैं।
हिन्दोस्तान के शासक जब अमरीका या किसी अन्य प्रमुख साम्राज्यवादी ताकत के साथ मिलीभगत में काम करते हैं या जब वे आपस में स्पर्धा करते हैं, दोनों ही हालतों में उनके इरादे साम्राज्यवादी होते हैं। दुनिया में फैलते वर्चस्व वाले इजारेदार घरानों की अगुवाई में सत्तासीन पूंजीपति वर्ग के तंग खुदगर्ज हित से ही हिन्दोस्तान और दूसरे साम्राज्यवादी राज्यों के आपसी संबंध प्रेरित होते हैं।
हमारे देश पर उस वर्ग का शासन है जिसे अपनी निजी दौलत और अपने साम्राज्य बनाने की ज्यादा चिंता है, न कि देश की दौलत पैदा करने वाले मेहनतकश जनसमुदाय के हित की। हमारे देश पर उस वर्ग का शासन है जो एक हमलावर और शोषक ताकत बनने को इच्छुक है, ठीक अमरीकी साम्राज्यवाद की तरह, जिससे दुनिया के अधिकतम लोग नफरत करते हैं।
हमारे देश की इस साम्राज्यवादी दिशा से टाटा, अंबानी और दूसरे इजारेदार पूंजीपतियों को बेशुमार मुनाफे मिल रहे हैं। साथ ही साथ, यह आम जनसमुदाय की असुरक्षा को बढ़ा रहा है और उनकी रोजी-रोटी को नष्ट कर रहा है।
विदेश से की गई इस विशाल पैमाने की सैनिक खरीददारी का आर्थिक बोझ राष्ट्रीय कर्जे के रूप में संपूर्ण जनता पर लाद दिया जायेगा। हिन्दोस्तान के बढ़ते फौजीकरण से राजनीतिक पीड़ा और हत्याओं का बोझ हमारी जनता पर ही पड़ेगा, जो अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं और दमन का सामना कर रहे हैं। साथ ही साथ, इसका बोझ उन दूसरे देशों के लोगों पर भी पड़ेगा, जिनको हिन्दोस्तान की सैनिक ताकत का निशाना बनाया जायेगा।
हमारे देश का शासक वर्ग एक साम्राज्यावादी पूंजीपति वर्ग है। वह न तो किसी विदेशी ताकत का दलाल है, न ही उसका साम्राज्यवाद-विरोधी चरित्र है। वह पूरी तरह प्रतिक्रियावादी है, जो सिर्फ अपने देश की भूमि और श्रम पर कब्जा करके उसे लूटने को ही इच्छुक नहीं है बल्कि दूसरे देशों पर कब्जा करके उन्हें भी लूटना चाहता है।
हमारा प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग बड़ी ताकतों के गिरोह के सदस्य बतौर अपने रुतबे को मजबूत करने की दिशा में देश को आगे ले जा रहा है। यह मजदूरों, किसानों, दबे-कुचले राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं और जनजातियों, उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों और समाज के दूसरे शोषित तबकों की रोजी-रोटी और अधिकारों के लिए बहुत खतरनाक है। यह तनावों को बढ़ाने और एशिया में जंग के खतरे को और फैलाने वाली दिशा है। इस दिशा का सख्त विरोध और कड़ी निंदा करनी चाहिए।