आज़ादी के 73 साल बाद :

शोषण और दमन से मुक्त हिन्दोस्तान के लिए संघर्ष जारी है

बर्तानवी बस्तीवादी हुकूमत की समाप्ति के 73 साल बाद भी, हिन्दोस्तान में राजनीतिक सत्ता मुट्ठीभर लोगों के हाथों में केंद्रित है। “सबका विकास” एक खोखला वादा बनकर रह गया है।

हिन्दोस्तान में केवल टाटा, अंबानी, बिरला और अन्य इजारेदार पूंजीपति घरानों की जायदाद और उनके निजी औद्योगिक साम्राज्य बड़ी तेज़ी से बढ़ रहे हैं। 2024 तक भारत को “पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था” बनाने का केंद्र सरकार का लक्ष्य, इजारेदार पूंजीपतियों के साम्राज्यवादी लक्ष्य से मेल खाता है। यह लक्ष्य इन इजारेदार पूंजीपतियों की, हमारे देश को एक साम्राज्यवादी महाशक्ति के रूप में बदलने की महत्वाकांक्षा को दर्शाता है। यह एक ऐसे हिन्दोस्तान का सपना है जो अपने पड़ोसियों पर हावी होगा, उनपर धौंस जमाएगा और साथ ही अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को पूरा करने के लिए दुनिया की सबसे आक्रामक और खूंखार साम्राज्यवादी शक्ति, अमरीका के साथ सहयोग करेगा।

इस वर्ष करोड़ों लोग अपनी आजीविका के साधन से वंचित कर दिए गए हैं। मज़दूरों को कम मज़दूरी पर और हर रोज़ अधिक लंबे समय तक मेहनत करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। निजीकरण से हज़ारों नौकरियों के नष्ट होने का ख़तरा है। कृषि के क्षेत्र में हिन्दोस्तानी और विदेशी इजारेदार कंपनियों की बढ़ती पैठ से किसानों को और भी अधिक ग़रीबी और कर्ज़ में धकेलकर, उनकी ज़िंदगी तबाह की जा रही है। हाल के महीनों में, मज़दूरों और किसानों ने बड़े पैमाने पर एकजुट होकर विरोध प्रदर्शन आयोजित किये हैं, और राज्य द्वारा अपनी आजीविका के अधिकार की गारंटी देने की मांग की है। हजारों लाखों मेहनतकश महिला, पुरुष, छात्र और नौजवान जाति पर आधारित दमन और धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ और लोगों के अधिकारों की हिफ़ाज़त में लड़ रहे कार्यकर्ताओं पर राज्य द्वारा यू.ए.पी.ए. (गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम) जैसे काले कानूनों के तहत झूठे आरोप लगाकर गिरफ्तार किये जाने के ख़िलाफ़ बहादुरी से लड़ रहे हैं।

हमारे देश में मुट्ठीभर शोषकों और शोषित बहुसंख्यक लोगों के बीच एक तीव्र अंतर्विरोध है। यह टकराव कोई नई बात नहीं है। बर्तानवी बस्तीवादी राज से आज़ादी के लिए संघर्ष के दौरान भी हिन्दोस्तानी लोगों के बीच यह अंतर्विरोध मौजूद था, जिसने आज़ादी के लिए संघर्ष को प्रभावित किया। जैसा कि सब जानते हैं, हमारे देश की आज़ादी के संघर्ष में दो धाराओं के बीच टकराव था, एक थी क्रांतिकारी धारा और दूसरी थी शासकों और गद्दारों के साथ समझौते की धारा।

1857 के ग़दर के दौरान जो लोग विद्रोह में उठे थे, वे एक ऐसे आज़ाद हिन्दोस्तान के दृष्टिकोण से प्रेरित थे, जहां फ़ैसले लेने की ताक़त लोगों के हाथों में निहित होगी। उन्होंने ऐलान किया कि, “हम हैं इसके मालिक; हिन्दोस्तान हमारा!” बाग़ी लोगों के उद्देश्यों और आकांक्षाओं को आवाज़ देते हुए, बहादुर शाह ज़फर ने ऐलान किया कि अंग्रेजों को बाहर निकालने के बाद, हिन्दोस्तान के लोग, जिन्होंने उनको हिन्दोस्तान के तख्त पर बैठाया था, तय करेंगे कि वे किस तरह की राजनीतिक व्यवस्था स्थापित चाहते हैं।

1857 में उस समय के क्रांतिकारियों ने जिन विचारों को जन्म दिया, वे बर्तानवी बस्तीवादियों के लिए एक ख़तरनाक चुनौती बन गए। ग़दर को कुचलने के बाद भी बर्तानवी बस्तिवादियों को हिन्दोस्तान के लोगों के बीच इन क्रांतिकारी विचारों के फैलने का डर लगातार सताता रहा। 1871 में फ्रांस के मज़दूर वर्ग ने विद्रोह के बाद पेरिस को कुछ समय के लिए अपने नियंत्रण में लेने में एक ऐतिहासिक सफलता हासिल की थी, तो इससे ब्रिटिश सरमायदारों के बीच क्रांति का डर और भी बढ़ गया। हिन्दोस्तान में एक और क्रांतिकारी विद्रोह की संभावना को रोकने के लिए उन्होंने कई क़दम उठाए, जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दुश्मनी को उकसाना और 1885 में कांग्रेस पार्टी के गठन को प्रायोजित करना शामिल था। उन्होंने एक ऐसी पार्टी के गठन में सहयोग दिया, जो सभी हिन्दोस्तानियों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करेगी, हालांकि उसका नेतृत्व अमीर हिन्दोस्तानी पूंजीपति वर्ग, बड़े जमींदारों और अंग्रेजों द्वारा प्रशिक्षित उनके राजनीतिक प्रतिनिधियों के हाथों में रहेगा।

हिन्दोस्तानियों के असंतोष को एक और क्रांतिकारी विद्रोह में तब्दील होने से रोकने के लिए, बर्तानवी बस्तीवादियों ने कांग्रेस पार्टी को एक सुरक्षा वाल्व के रूप में देखा और उसका बखूबी इस्तेमाल किया। 1906 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के प्रतिद्वंदी के रूप में मुस्लिम लीग के गठन को भी प्रायोजित किया। उन्होंने प्रांतीय विधानसभाओं और बस्तीवादी प्रशासनिक तंत्र के भीतर, विभिन्न धार्मिक और जाति समूहों के धनी और संभ्रांत व्यक्तियों को शामिल करने के लिए कई राजनीतिक सुधार किए।

हालांकि कई लोग देश की आज़ादी के लिए संघर्ष से जुड़ने के लिए, इन पार्टियों में शामिल हुए, इन पार्टियों का नेतृत्व बड़े पूंजीपतियों और बड़े जमींदारों के हाथों में था। इन वर्गों ने बर्तानवी हुक्मरानों के साथ मिलीभगत करके अपने हाथों में जायदाद इकट्ठी की थी, बर्तानवी बस्तीवादियों ने राज्य के भीतर ही अपने राजनीतिक प्रतिनिधियों के लिए जगह बढ़ाने के उद्देश्य के साथ काम किया। उनकी यही उम्मीद थी कि जब वे बर्तानवी पूंजीपति वर्ग की जगह लेंगे और हिन्दोस्तान पर राज करेंगे तो बर्तानवी बस्तीवादियों द्वारा बनाई गयी शोषण और लूट की राज्य व्यवस्था से फ़ायदा उठायेंगे।

1857 के ग़दर में पेश किये गए क्रांतिकारी दृष्टिकोण को कई राजनीतिक पार्टियों ने अपनाया और उसे आगे बढ़ाया, जिसकी शुरुआत 1913 में हिन्दोस्तान ग़दर पार्टी से हुई थी। इस क्रांतिकारी धारा के तहत क्रांतिकारियों ने, मज़दूरों, किसानों और सैनिकों को बस्तीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने और अपने देशवासियों को शोषण और दमन की कई परतों से मुक्त करने के संघर्ष में लामबंध किया। जनवरी 1925 में प्रकाशित अपने घोषणापत्र में हिन्दोस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन ने घोषणा की कि हर तरह के शोषण से मुक्त हिन्दोस्तान को बनाने का लक्ष्य, अंग्रेजों द्वारा स्थापित कानूनों और राजनीतिक प्रक्रिया के माध्यम से, कतई हासिल नहीं किया जा सकता।

रूस में महान समाजवादी अक्तूबर क्रांति की जीत ने भारतीय क्रांतिकारियों को प्रेरित किया और आगे चलकर उनके द्वारा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया गया। बर्तानवी राज को उखाड़ फेंकने और एक समाजवादी हिन्दोस्तान का निर्माण करने के उद्देश्य से देश के मज़दूर और किसान इस पार्टी में शामिल हुए।

द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक, बर्तानवी हिन्दोस्तान में एक क्रांतिकारी हालात तैयार हो गए थे। हिन्दोस्तान के मज़दूर और किसान बस्तीवादी व्यवस्था को ख़तम करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। निज़ाम के दमनकारी शासन के ख़िलाफ़ तेलंगाना के किसान हथियार उठा रहे थे। भारतीय नौसेना के सैनिक विद्रोह कर रहे थे। इन परिस्तिथियों में देश में क्रांति की संभावना को रोकने के लिए और हिन्दोस्तान को साम्राज्यवादी व्यवस्था का एक हिस्सा बनाए रखने के लिए बर्तानवी हुक्मरानों ने कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग के नेताओं के साथ सौदा किया।

बर्तानवी हिन्दोस्तान का सांप्रदायिक आधार पर विभाजन किया गया। सांप्रदायिक हिंसा और बड़े पैमाने पर लोगों के जबरन पलायन के बीच, बर्तानवी संसद द्वारा पारित किये एक अधिनियम के ज़रिये, विभाजित क्षेत्रों पर भारत और पाकिस्तान की संविधान सभाओं को इन विभाजित हिस्सों की संप्रभुता हस्तांतरित की गई।

बड़े जमींदारों और राजघरानों से संबंध रखने वाले हिन्दोस्तान के औद्योगिक घरानों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली, कांग्रेस पार्टी ने हिन्दोस्तान में अंतरिम सरकार की कमान संभाली और सत्ता में आते ही मज़दूरों और किसानों के ख़िलाफ़ क्रूर दमन शुरू किया। कम्युनिस्ट पार्टी और उसके प्रकाशनों पर प्रतिबंध लगा दिया। उसके हज़ारों सदस्यों को जेल में डाल दिया गया। ट्रेड यूनियन आंदोलन को बांटने के लिए ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (ए.आई.टी.यू.सी.) की टक्कर में इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (आई.एन.टी.यू.सी.) की स्थापना की गयी। तेलंगाना में किसान विद्रोह को कुचलने के लिए केंद्रीय सशस्त्र बल तैनात किया गया।

मज़दूरों, किसानों और नौजवानों के व्यापक दमन के बीच, एक अप्रतिनिधिक संविधान सभा ने, 1950 के संविधान को अपनाया। यह एक ऐसी संविधान सभा थी जिसे लोगों ने नहीं चुना था। इस दस्तावेज़ का तीन-चैथाई हिस्सा बस्तीवादियों द्वारा बनाये गये गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1935 (भारत सरकार अधिनियम-1935) की हुबहू नकल था।

लोगों को धोखा देने के लिए हिन्दोस्तानी सरमायदारों के प्रतिनिधियों ने संविधान की प्रस्तावना में लिखा कि यह स्वतंत्र हिन्दोस्तानी राज्य समाज के सभी वर्गों की सेवा का साधन है। इस प्रस्तावना में वह सब कुछ लिखा गया जिसकी लोगों को आस थी, ताकि इस बात को छुपाया जा सके कि संविधान के क्रियाशील अनुच्छेद पूंजीपति वर्ग द्वारा अपने हाथों में सत्ता को केंद्रित करने के लिए बनाये गए हैं।

संविधान के अनुसार संप्रभुता हिन्दोस्तान के लोगों में नहीं बल्कि राष्ट्रपति में निहित है, जो उस पार्टी द्वारा गठित मंत्रिमंडल की सलाह का पालन करने के लिए बाध्य है जिसे संसद में बहुमत हासिल है। नीतिगत निर्णय लेने का अधिकार विशेष रूप से मंत्रिमंडल के हाथों में दिया गया है। कानून बनाने का अधिकार संसद के हाथों में है। इस तरह से संविधान यह सुनिश्चित करता है कि पूंजीपति वर्ग की हुकूमत को वैधता मिले।

पूंजीपति वर्ग की हुकूमत की हिफ़ाज़त करने के लिए बस्तीवादी राज्य के सशस्त्र बल, नौकरशाही और अन्य निकायों को बरकरार रखा गया। अपनी हुकूमत के ख़िलाफ़ किसी भी प्रकार के प्रतिरोध को अपराध करार देने के लिए बर्तानवी हुक्मरानों द्वारा बनाये गए कानूनों को बरकरार रखा गया। बर्तानवी कंपनियों को हिन्दोस्तान में व्यापार जारी रखने की अनुमति दी गई और अमरीकी कंपनियों को हिन्दोस्तान के पूंजीपतियों के साथ मिलकर संयुक्त उद्यम बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। हिन्दोस्तान ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का हिस्सा बना रहा और अंग्रेजी भाषा ने अपना प्रमुख स्थान बनाए रखा है।

इजारेदार घरानों की अगुवाई में पूंजीवादी वर्ग ने 1947 में हासिल की गयी राजनीतिक सत्ता का उपयोग अपनी पूंजी का विस्तार करने के लिए किया है। उनमें से सबसे अमीर दुनिया के सबसे अमीर लोगों की श्रेणी में शामिल हो गए हैं। हिन्दोतान के मज़दूरों और किसानों की गिनती दुनिया के सबसे ग़रीब लोगों में होती है। वे आज भी उतने ही बलहीन और बेबस हैं जितने की वे बस्तीवादी हुकूमत के समय में थे।

पूंजीवादी शोषण, साम्राज्यवादी लूट, सांप्रदायिक उत्पीड़न, जाति और लिंग भेदभाव और दमन के ख़िलाफ़ और अपने अधिकारों की हिफाज़त में हिन्दोस्तान के मज़दूरों-किसानो और तमाम मेहनतकश लोगों का संघर्ष जारी है। इस संघर्ष को जीत के मुकाम पर ले जाने के लिए, पूंजीपति वर्ग के राज को समाप्त करना ज़रूरी है। हमें इस संघर्ष को मज़दूरों और किसानों का एक नया राज क़ायम करने के मक़सद के साथ चलाना होगा। तब जाकर अर्थव्यवस्था की दिशा को लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में मोड़ा जा सकेगा। तब जाकर सभी लोगों के लिए सुख और सुरक्षा की गारंटी दी जा सकेगी।

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