खाद्य पदार्थो की बढ़ती कीमतों से विभिन्न देशों में जन-विद्रोह

खाद्य पदार्थों की कीमतों में रिकॉर्ड वृध्दि हुई है। पिछले एक साल में ही उनमें 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। इसके नतीजे, लोगों के रहन-सहन के स्तर में कमी की वजह से लोग सड़कों पर उतरे हैं और बहुत सी जगहों पर उन्हें सशस्त्र सैनिकों से जूझना पड़ा है। खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतें, टयू

खाद्य पदार्थों की कीमतों में रिकॉर्ड वृध्दि हुई है। पिछले एक साल में ही उनमें 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। इसके नतीजे, लोगों के रहन-सहन के स्तर में कमी की वजह से लोग सड़कों पर उतरे हैं और बहुत सी जगहों पर उन्हें सशस्त्र सैनिकों से जूझना पड़ा है। खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतें, टयूनिशिया में विद्रोह का एक प्रमुख कारक था और इसी की वजह से हाल के सप्ताहों में मोरोक्को, अल्जीरिया, मिश्र, जॉर्डन, मोज़ाम्बिक और यमन जैसे देशों में जन-प्रदर्शन हुये हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ की खाद्य और कृषि संगठन ने घोषणा की है कि खाद्य पदार्थों की कीमतों के सूचकांक ने अब, 2008 में स्थापित अपना पिछला कीर्तिमान तोड़ दिया है। तब करीब 18 महीनों में खाद्य पदार्थों की कीमतें दुगनी हो गयी थीं, जिसके कारण दर्जनों देशों में जनता ने उथल-पुथल मचा दी थी। पिछले एक साल में खाद्य पदार्थों की कीमतों के सूचकांक में फिर भारी वृध्दि हुई है जैसे – मक्के में 52 प्रतिशत, गेहूं में 49 प्रतिशत, सोयाबीन में 28 प्रतिशत। दूसरी नकदी फसलों जैसे कॉफी की कीमतों में 53 प्रतिशत और सूत में 119 प्रतिशत की वृध्दि हुई है।
सिर्फ कृषि वस्तुओं की कीमतों में वृध्दि नहीं हुई है। कच्चे तेल की कीमत एक साल पहले 75 डॉलर प्रति बैरल थी और पिछले एक साल में इसमें 25.54 प्रतिशत की वृध्दि होने से यह लगभग 100 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गयी है। तांबे में भी इस दौरान 30 प्रतिशत की वृध्दि हुई है। खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृध्दि का एक और कारक ऊर्जा की कीमतों में वृध्दि है। अमरीका और दूसरी जगहों में, मक्के से बनाये गये इथेनॉल के पेट्रोल की तरह प्रयोग से, खाद्य पदार्थ और चारे बतौर मक्के की आपूर्ति में कमी पड़ी है।
खाद्य पदार्थों की कीमतों में विश्वव्यापी वृध्दि की दो वजहें बतायी जा रही हैं – उत्पादन में कमी और वायदे बाजार में इनकी जोरदार सट्टेबाजी। कृषि उत्पादों की सबसे बड़ी व्यापारी कंपनियों को खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृध्दि से जबरदस्त मुनाफा मिल रहा है। दुनियाभर में खाद्य पदार्थों की सबसे बड़ी व्यापारी कंपनी, कारगिल की पिछले साल की चौथी तिमाही का मुनाफा, 2009 के 48.9 करोड़ डॉलर से तिगुना होकर, 149 करोड़ डॉलर तक हो गया था।
अलग-अलग सरकारों के कीमतों को नियंत्रण में लाने के दावों के बावजूद, खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ती ही जा रही हैं क्योंकि खाद्य पदार्थों के व्यापार में सट्टेबाजी कम नहीं हुई है। कृषि वायदा बाजार पर नियंत्रण लाने के सिर्फ दिखावे के ही कदम लिये गये हैं। उदाहरण के लिये अमरीका में डॉड-फ्रेंक वित्तीय सुधार कानून के तहत, कृषि वायदा बाजार समिति ने वायदा बाजार में बाज़ी लगाने की मात्रा को सीमित रखने का प्रस्ताव रखा है। इस प्रस्ताव पर दो महीने के ”टिप्पणी काल” के बाद ही वोट डाला जायेगा। इशारा साफ है कि यह सिर्फ प्रचार के लिये है और कभी भी कानून में तब्दील नहीं होगा।
पूंजीवादी सरकारें सिर्फ प्रतिकूल मौसम को जिम्मेदार ठहराना पसंद करती हैं, जबकि यह स्पष्ट है कि खाद्य पदार्थों की असाधारण ऊंची कीमतों का कारण सट्टेबाजी है। इसी से कच्चे तेल और तांबे की कीमतों में तेजी से वृध्दि समझी जा सकती है। दिसम्बर 2010 में यह सामने आया था कि एक बेनामी निवेशक ने ब्रिटेन के तांबा बाजार पर कब्जा जमाने के लिये 90 प्रतिशत तांबे की आपूर्ति पर नियंत्रण कर लिया था। जबकि ऐसा संदेह है कि आपूर्ति पर कब्जा जमाने वाली कंपनी अमरीका की नहीं तो ब्रिटेन की एक वित्तीय संस्था है, फिर भी इसका कोई सबूत नहीं है और न ही परिस्थिति को बदलने के लिये कोई कदम उठाया जा रहा है।
दो दशक के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वायदा बाजार में बेलगाम संवर्धन से, व्यापारी पूंजी में अत्यंत सघनता आई है और विक्रय वस्तुओं की कीमतें बहुत ही ऊंचे दर्जे की सट्टेबाजी और चालबाजी से तय हो रही हैं। जबकि उत्पादन में कोई संवर्धन नहीं हो रहा है, तब भी मुनाफे को कायम रखने के लिये वित्तीय पूंजी के लिये सट्टेबाजी एक मनपसन्द तरीका बन गया है। वर्ल्ड डेवलपमेंट मूवमेंट के अनुसार 2008 के वित्तीय संकट के बाद, अभी तक, सट्टेबाजों ने मुनाफा ऐंठने के लिये, 20,000 करोड़ डॉलर खाद्य पदार्थों के बाजार में डाला है।
विश्वस्तर पर खाद्य पदार्थों की असहनीय कीमतों के लिये, परजीवी मुनाफाखोर इजारेदारों के तले, पूंजीपति वर्ग, और उनकी सरकारें जो उनकी जी हजूरी करती हैं, वे जिम्मेदार हैं। सभी देशों के मज़दूर वर्ग और बहुसंख्यक मेहनतकश लोगों को पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ़ एकजुट होना होगा और एक ऐसी व्यवस्था के लिये लड़ना होगा जिसमें खाद्य पदार्थों को एक जरूरी सामाजिक आवश्यकता के रूप में माना जायेगा, जिसकी आपूर्ति सभी का अधिकार है। इसके लिये उन्हें, फौरी तौर पर, खाद्य पदार्थों के सार्वजनिक प्रबंध और सार्वजनिक वितरण के लिये, बिना समझौते, संघर्ष करना होगा ताकि अर्थव्यवस्था के इस नाजुक क्षेत्र से निजी मुनाफाखोरी को खत्म किया जा सके।

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