मोटरगाड़ी उद्योग के मजदूर बढ़ते शोषण के शिकार

हिन्दोस्तान में मोटरगाड़ी उद्योग बड़ी तेजी से बढ़ने वाला क्षेत्र है जिसमें हमारे देश के बड़े पूंजीपति तथा विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अधिक से अधिक हद तक शामिल हो रही हैं।

हिन्दोस्तान में मोटरगाड़ी उद्योग बड़ी तेजी से बढ़ने वाला क्षेत्र है जिसमें हमारे देश के बड़े पूंजीपति तथा विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां अधिक से अधिक हद तक शामिल हो रही हैं।

हिन्दोस्तान के सभी बड़े पूंजीवादी समूहों – टाटा, बिरला, फिरोदिया, बजाज, महिन्द्रा, हिन्दुजा, टी.वी.एस., मुंजाल के हीरो गु्रप, किर्लोस्कर, आदि ने कई दशकों से इस उद्योग का पोषण किया है। कई और पूंजीवादी समूह भी मोटरगाड़ी पुर्जों के कारोबारों में सक्रियता से लगे हुए हैं।

1991 में आर्थिक सुधार कार्यक्रम के शुरू होने के बाद इस क्षेत्र में विशाल वृध्दि हुई है। इस क्षेत्र को लाइसेंस रहित बनाया गया और फिर शत-प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश के लिए खोल दिया गया। जबकि 1991 में प्रतिवर्ष लगभग 20 लाख गाड़ियों का उत्पादन होता था, तो 2004-05 में लगभग 85 लाख गाड़ियों का उत्पादन हुआ और 2011-12 में लगभग 204 लाख गाड़ियों का उत्पादन हुआ। इन आंकड़ों से पता चलता है कि इस क्षेत्र में कितना ज्यादा संवर्धन हुआ है। दुनिया की लगभग सभी मुख्य मोटरगाड़ी बनाने वाली कंपनियों, जैसे कि टोयोटा, सुजुकी, फोर्ड, प्यूज़ो, डेम्लर, होंडा, माज़डा, ह्युंडाई, आदि ने स्वतंत्र रूप से या हिन्दोस्तानी बड़े पूंजीपतियों के साथ मिलकर, हिन्दोस्तान में अपने गाड़ी बनाने के संयंत्रों को स्थापित किया है। हिन्दोस्तान के बड़े पूंजीपति हमारे देश को मोटरगाड़ी उद्योग का एक वैश्विक विनिर्माण केन्द्र बनाना चाहते हैं। हिन्दोस्तानी और विदेशी पूंजीपति अधिक से अधिक मुनाफे कमाने के इरादे से, इस क्षेत्र में लाखों-करोड़ों का पूंजी निवेश करना चाहते हैं।

लगभग पूरे उद्योग में हिन्दोस्तानी और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अतिशोषण के द्वारा अपने मुनाफों को बढ़ाने के लिए, कुछ समान प्रकार के अभ्यास अपना रखे हैं। उन्होंने केन्द्र व राज्य सरकारों और उनके श्रम विभागों की सांठगांठ में, पूरी कोशिश की है कि मजदूरों को अपने यूनियनों में संगठित होने से रोका जा सके। हरेक बहुराष्ट्रीय कंपनी उत्पादकता के नाम पर मजदूरों का दमन करने में एक दूसरे से होड़ लगाती है। मिसाल के तौर पर, मजदूरों के वेतनों को 2 भागों में बांटा जाता है – एक स्थायी वेतन और दूसरा ''काम'' से जुड़ा भाग। मानेसर स्थित मारुति-सुजुकी प्लांट, जो आजकल सुर्खियों में है, उसमें एक स्थायी मजदूर को स्थायी वेतन के रूप में लगभग 7,000 रुपये मिलता है। इसके अलावा, वह ''काम संबंधित वेतन'' के रूप में 8,000-9,000 रुपये और कमा सकता है, परंतु वह शायद ही यह कभी कमा पाता है। कई कारणों से वेतन काट लिया जाता है, जैसे 5 मिनट देर से पहुंचने पर (आधे दिन के वेतन की कटौती), बीमार होने पर या किसी पारिवारिक कठिनाई की वजह से छुट्टी लेने को मजबूर होने पर (एक दिन की असूचित छुट्टी के लिए कई दिनों के वेतन की कटौती)। इसके अलावा, मजदूरों को 4 श्रेणियों में बांटा जाता है – नियमित मजदूर, कैजुअल मजदूर, अप्रेंटिस और प्रशिक्षु। (मानेसर स्थित मारुति-सुजुकी प्लांट में 970 स्थायी मजदूर, 1100 कैजुअल मजदूर, 400-500 प्रशिक्षु और 200-300 अप्रेंटिस हैं। श्री पेरंबदूर स्थित ह्युंडाई प्लांट में तथा दूसरी मोटरगाड़ी बनाने वाले प्लांटों में भी अलग-अलग श्रेणियों के मजदूरों की संख्या कुछ इस प्रकार ही है)। कैजुअल मजदूरों, अप्रेंटिसों और प्रशिक्षु मजदूरों का भी इसी तरह शोषण होता है, परंतु सिर्फ इतना फर्क है कि उनके वेतन नियमित मजदूरों के वेतनों से बहुत कम हैं और कभी भी काम से निकाले जाने की तलवार हमेशा उन पर लटकती रहती है। इस तरह यूनियन को बनने से रोककर और मजदूरों को 4 भागों में बांटकर पूंजीपतियों ने पूरी कोशिश की है कि हजारों मजदूरों को, जो एक ही छत के तले मिलकर काम कर रहे हैं, एकजुट होकर अपने शोषण के खिलाफ़ संघर्ष करने से रोका जा सके।

परंतु किसी भी प्लांट में मजदूरों ने इस चाल को स्वीकार नहीं किया है। पूरे देश में मोटरगाड़ी विनिर्माण क्षेत्र को मजदूरों के बड़े-बड़े आंदोलनों का सामना करना पड़ा है।

सभी जगहों पर बड़े-बड़े संघर्ष हुए हैं। इनमें कुछ प्रमुख उदाहरण है : महिन्द्रा (नाशिक), मई 2009 और मार्च 2011; सनबीम ऑटो (गुड़गांव), मई 2009; बॉश चैसी (पुणे), जुलाई 2009; होंडा मोटरसाइकिल (मानेसर), अगस्त 2009; रीको ऑटो (गुड़गांव), अगस्त 2009, जिसके दौरान पूरे गुड़गांव के ऑटो उद्योग में 1 दिन की हड़ताल हुई थी; प्रिकोल (कोयम्बतूर), सितम्बर 2009; वॉल्वो (होसकोटे, कर्नाटक), अगस्त 2010; एम.आर.एफ. टायर्स (चेन्नई), अक्तूबर 2010 और जून 2011; जनरल मोटर्स (हलोल, गुजरात), मार्च 2011; मारुति-सुजुकी (मानेसर), जून-अक्तूबर 2011; बॉश (बैंगलुरू), सितम्बर 2011; डनलप (हुगली), अक्तूबर 2011; कपारो (श्री पेरूंबुदुर, तामिल नाडु), दिसम्बर 2011; डनलप (अम्बात्तुर, तामिल नाडु), फरवरी 2012; ह्युंडाई (चेन्नई), अप्रैल और दिसम्बर 2011-जनवरी 2012, इत्यादि।

विभिन्न राज्य सरकारों और केन्द्र सरकारों तथा संपूर्ण राज्य मशीनरी, यानि पुलिस और न्यायपालिका ने प्रबंधकों की सांठगांठ में, इन संघर्षों को बेरहमी से कुचलने की कोशिश की है। इस क्षेत्र की कंपनियों के मालिकों को सरकारी मशीनरी, पुलिस और श्रम विभागों का पूरा-पूरा समर्थन मिलता है और ''नौकरियां पैदा करने के लिए पूंजी के प्रवेश को प्रोत्साहित करने'' के नाम पर इसे जायज़ ठहराया जाता है। यह प्रचार करके राज्य अपने ही श्रम कानूनों का खुलेआम हनन करता है। पूंजीपति खुलेआम किराये के गुंडे रखते हैं जो प्लांट के गेट पर खड़े होते हैं और मजदूरों पर शारीरिक हमले करते हैं। इनमें से कई प्लांट शहरों से दूर-दूर, नये-नये इलाकों में स्थित हैं और मजदूर सिर्फ कंपनी बस में ही काम पर पहुंच सकते हैं। फैक्ट्रियों को एक दूसरे से दूर-दूर रखा गया है ताकि किसी एक फैक्ट्री के मजदूर आसानी से दूसरी फैक्ट्री के मजदूरों की मदद न कर सकें। इन व अन्य तरीकों से पूंजीपतियों ने इस क्षेत्र के मजदूरों के शोषण को खूब बढ़ाया है, जैसा कि नीचे दिए गये आंकड़ों से स्पष्ट होता है।

2000-01 में मोटरगाड़ी उद्योग में वार्षिक वेतन 79,446 रुपये से बढ़कर 2004-05 में 88,671 रुपये हो गया और 2009-10 में 109,575 रुपये हो गया था। परंतु औद्योगिक मजदूरों का उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सी.पी.आई.-आई.डब्ल्यू.) वेतनों से ज्यादा तेजी से बढ़ता रहा। अत: मोटरगाड़ी उद्योग में असली वेतन 2000-01और 2009-10 के बीच में 18.9 प्रतिशत गिरे (देखिये चार्ट 1)।

इसका यह मतलब है कि हिन्दोस्तान की सरकार द्वारा घोषित मुद्रास्फीति का हिसाब करने के बाद मोटरगाड़ी उद्योग के मजदूरों की आमदनी 2000-01 की तुलना में, 2009-10 में लगभग 20 प्रतिशत घट गई। अगर हम यह ध्यान रखें कि सरकार द्वारा घोषित उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जीने का असली खर्चा नहीं पता चलता है और बीते 2वर्षों में जीने का खर्चा पहले से ज्यादा तेजी से बढ़ा है, तो मजदूरों की हालत का अनुमान लगाया जा सकता है।

दूसरी ओर, प्रत्येक मजदूर द्वारा पैदा किया गया कुल मूल्य (यानि उत्पादित मूल्य तथा उत्पादन में लगाये गये मूल्य के बीच में अंतर से क्षय मूल्य को घटाकर) बढ़ता ही रहा है। सिर्फ अर्थव्यवस्था की मंदी के वर्षों में यह थोड़ा सा घट गया था। 2000-01 में प्रत्येक मजदूर ने 2.9 लाख रुपये का कुल मूल्य बढ़ाया; 2009-10 में यह मूल्य 7.9 लाख रुपये तक बढ़ गया (देखिये चार्ट 2)।

इसका यह मतलब है कि 2000-01 की तुलना में 2009-10 में मोटरगाड़ी उद्योग के मजदूरों ने कच्चे माल पर अपनी श्रमशक्ति का इस्तेमाल करके, 2.5 गुणा ज्यादा कुल मूल्य पैदा किया!

स्वाभाविकत:, मजदूरों के द्वारा पैदा किये गये कुल मूल्य के प्रतिशत बतौर उनके वेतन घटते रहे हैं, जैसा कि चार्ट 3में देखा जा सकता है। 2000-01 में मजदूरों के वेतन कुल मूल्य का 27.4 प्रतिशत था। 2009-10तक यह 15.4 प्रतिशत तक घट गया।

अत: हम कह सकते हैं कि 2000-01 में इस क्षेत्र का एक मजदूर 8 घंटे की पाली में से 2 घंटे 12 मिनट अपनी व अपने परिवार की रोजी-रोटी के लिए काम करता था। बाकी 5 घंटे 48 मिनट वह पूंजीपति के लिए बेशी मूल्य पैदा करता था। 2009-10 तक यह अनुपात और बिगड़ गया। अब इस उद्योग का मजदूर सिर्फ 1 घंटा 12 मिनट अपनी व अपने परिवार की रोजी-रोटी के लिए काम करता है, और बाकी 6 घंटे 48 मिनट पूंजीपति के मुनाफों को सुनिश्चित करने के लिए मेहनत करता है।

इससे बहुत स्पष्ट हो जाता है कि अलग-अलग तरीकों से मजदूरों का शोषण बढ़ाकर ही मोटरगाड़ी क्षेत्र में हिन्दोस्तानी और विदेशी पूंजीपतियों ने अपने मुनाफे कई गुणा बढ़ाये हैं।

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