1 अगस्त 2020 को प्रकाशित लेख ‘बैंको का कर्ज न चुकाने वाले पूंजीपतियों के गुनाहों की सज़ा लोगों को भुगतनी पड़ रही है‘ में सार्वजनिक और निजी बैंकों का पुनः पूंजीकरण और ’गैर निष्पादित संपत्ती’ के बारे में वर्णन किया गया है।
’गैर-निष्पादित संपत्ति’ बैंकों द्वारा कंपनियों को दिये ऐसे कर्ज से बनती है, जिस पर कंपनी न तो ब्याज देती है और न ही मूलधन।
बहुत बडे़ पैमाने पर बडे़ पूंजीपतियों की कर्ज माफी के बाद 2017-2019 यानि दो साल में सार्वजनिक बैंकों को कुल 1 लाख 27 हजार करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। यह बड़े हैरानी वाली बात है कि जब एक किसान या फिर आम आदमी कोई भी कर्ज लेता है तो वह अपनी आधी जिंदगी कर्ज मिटाते-मिटाते चली जाती है। दूसरी ओर, पिछले कई सालों में मामूली कर्ज न चुका पाने के चलते सैंकड़ों किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। इसके बावजूद सरकार किसानों का कर्ज माफ नहीं करती है। तब सरकार पूंजीपतियों के करोड़ों रुपय का कर्ज कैसे माफ कर सकती है? क्या, इन पूंजीपतियों के खिलाफ कोई कार्यवाही न करना राज्य का एक बड़ा गुनाह नहीं है?
इसके अलावा, रिजर्व बैंक के अनुसार, सितंबर 2019 तक 50 ‘विल्फुल डिफाल्टर’ कर्जदार पूंजीपतियों का 68 हजार करोड़ रुपये का कर्जा माफ किया है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ऐसे लोगों के नामों को सार्वजनिक करने से इंकार करना यह दिखाता है कि यह व्यवस्था इस तरह के गुनाहों को बढ़ावा देने और पूंजीपतियों की सहायता करने के लिये खुद राज्य तत्पर खड़ी है। इस व्यवस्था में आम लोगों के हित के खिलाफ पूंजीपतियों को बढ़ावा देना, यह साबित होता है कि पूंजीवादी व्यवस्था बरकरार रहने के लिये हर जगह पैर पसार महाकाय बन चुका है। हम सब को इस महाकाय को कैसे नेस्तानाबुत कर एक नई सुबह लाने की जरूरत है।
मीरा,
नई दिल्ली