डॉक्टरों और नर्सों की भारी कमी

मुनाफ़ा कमाने की दिशा में बढ़ रही है चिकित्सीय शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा

देशभर में पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित डॉक्टरों और नर्सों की कमी की समस्या कोविड से पीड़ित मरीजों का इलाज करने के रास्ते में आज सबसे बड़ा रोड़ा बनकर खड़ी है। इस समस्या की एक मुख्य वजह है, मेडिकल कॉलेजों और नर्सिंग स्कूलों का ज़रूरत से कम संख्या में होना, जहां हमारे देश की आबादी के लिए पर्याप्त संख्या में डॉक्टरों और नर्सों को प्रशिक्षण मिल सके। पिछले तीन दशकों से, एक के बाद एक सत्ता में आई सभी सरकारों की मेडिकल शिक्षा के निजीकरण की नीतियों ने हालातों को बद से बदतर बना दिया है। यह स्पष्ट हो गया है कि राज्य द्वारा सार्वजनिक अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों को स्थापित न करना एक आपराधिक उपेक्षा है जिसकी वजह से सैकड़ों लोगों की जानें जा रही हैं जबकि उन्हें बचाया जा सकता है।

पिछले महीने मुंबई के करीब बनाए गए एक स्वास्थ्य सुविधा केन्द्र के उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि यहां डॉक्टरों और नर्सों की कमी कितनी गंभीर है। कोविड के इलाज के लिए यहां 1000 बिस्तरों वाले एक अस्पताल को बनाया गया, जिसका उद्घाटन बड़े ही ज़ोर-शोर से किया गया। लेकिन अस्पताल के शुरू होने के कुछ हफ्तों के बाद भी अस्पताल की पूरी बिस्तर क्षमता का केवल 10 प्रतिषत ही इस्तेमाल हो पाया है क्योंकि वहां बाक़ी के बिस्तरों के लिए डॉक्टर और नर्स हैं ही नहीं। देशभर से डॉक्टरों और नर्सों की बढ़ती कमी की ख़बरें सामने आ रही हैं। 200 बिस्तर वाले एक कोविड अस्पताल को कम से कम 50 से 75 विशेषज्ञ डॉक्टरों और 500 नर्सों की ज़रूरत होती है।

हिन्दोस्तान में लम्बे समय से चिकित्सा कर्मचारियों की गंभीर कमी रही है। डब्ल्यू.एच.ओ. के निर्धारित नियमों का पालन करें तो हिन्दोस्तान में 4 लाख और डॉक्टरों तथा कम से कम 10 लाख और नर्सों की ज़रूरत है। मौजूदा समय में हिन्दोतान में हर साल लगभग 50,000 डॉक्टर और 2 लाख नर्स प्रशिक्षित होते हैं। एक स्नातक (ग्रैजुएट-एम.बी.बी.एस.) डॉक्टर को प्रशिक्षण देने में 6 से 8 साल लगते हैं और एक पोस्ट-ग्रैजुएट डॉक्टर को तैयार करने में 3 से 4 साल और लगते हैं। एक तरफ जहां देश के इतने सारे पढ़े-लिखे नौजवान नौकरियों की तलाश में घूम रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ स्वास्थ्यकर्मियों की भारी कमी चैंकाने वाली है। इतनी ही चैंकाने वाली बात यह भी है कि पिछले 4-5 वर्षों से डॉक्टरों के कई स्थान खाली हैं और उन्हें भरा नहीं गया है। उदाहरण के लिए, दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज (यू.सी.एम.एस.) और गुरु तेग बहादुर (जी.टी.बी.) में यही परिस्थिति है। अगर राज्य द्वारा तुरंत कुछ क़दम नहीं उठाए गए तो ये कमी और बदतर होती जाएगी।

यह कमी ग्रामीण आबादी में और भी ज्यादा गंभीर है क्योंकि 60 प्रतिशत डॉक्टर शहरी इलाकों में हैं जहां देश की केवल 30 प्रतिशत आबादी रहती है। देशभर के तक़रीबन आधे डॉक्टर केवल 5 राज्यों में केंद्रित हैं – महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य जहां सबसे अधिक ग्रामीण आबादी है, वहां प्रति व्यक्ति अस्पताल के बिस्तरों या डॉक्टरों की उपलब्धता सबसे कम है।

हिन्दोस्तानी राज्य ने इस बात को मानने से साफ इनकार कर दिया है कि देश के सभी लोगों को आधुनिक सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली सुनिश्चित करना उसकी ज़िम्मेदारी है। स्वास्थ्य सेवाओं के साथ मेडिकल शिक्षा के निजीकरण को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। वर्तमान में देश के आधे से ज्यादा मेडिकल कॉलेज निजी मालिकी के अधीन हैं। अलग-अलग कॉलेजों में पढ़ाई का खर्च अलग-अलग है और बहुत अधिक है। कई निजी कॉलेजों में छात्र सालाना 25 लाख रुपये तक भर रहे हैं। निजी कॉलेजों में पोस्ट-ग्रैजुएट की पढ़ाई का खर्च 3 करोड़ रुपये तक हो सकता है। शिक्षा पर इतना खर्च करने के बाद छात्रों पर शिक्षा के लिए उठाए गये भारी कर्ज़ को वापस करने का सबसे पहला दबाव होता है। क्योंकि ऐसा करना ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों में संभव नहीं हो पाता, इसीलिए उनमें से अधिकतर लोग अपना डाक्टरी का पेशा बड़े शहरों और निजी अस्पतालों में करने के लिये मजबूर हो जाते हैं। जिसके कारण ग्रामीण इलाकों और सार्वजनिक अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी पाई जाती है।

निजी अस्पताल ऐसी मूलभूत सुविधाओं के खर्च में पूंजी निवेश करने में रुचि नहीं रखते जिससे उनका अस्पताल मेडिकल शिक्षा के लिए उपयुक्त बने। देश में शायद ही नए सरकारी अस्पतालों की स्थापना की जा रही है। इन परिस्थितियों में, सार्वजनिक-निजी सांझेदारी (पी.पी.पी.) प्रणाली के तहत जिला सरकारी अस्पतालों के साथ मेडिकल कॉलेजों को खोलने का नीति आयोग का प्रस्ताव निजी मेडिकल कॉलेजों को बढ़ावा दे रहा है और साथ ही जिला सरकारी अस्पतालों के निजीकरण का प्रस्ताव भी है।

निजी अस्पतालों और मेडिकल शिक्षा की वर्तमान स्वास्थ्य सेवा नीति से देश में स्वास्थ्य के मूलभूत ढांचे और कर्मचारियों की लगातार गंभीर कमी की समस्या को हल नहीं किया जा सकता। स्वास्थ्य सेवा की ऐतिहासिक उपेक्षा और इसके निजीकरण के परिणाम महामारी के वर्तमान समय में साफ दिखाई दे रहे हैं। हमें यह मांग करनी होगी कि राज्य को लोगों के स्वास्थय की ज़िम्मेदारी उठानी ही पड़ेगी, उसमें पर्याप्त निवेश करना चाहिये और इसे निजी क्षेत्र को मुनाफ़े बनाने के लिए नहीं छोड़ना चाहिये।

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