शांघाई सहयोग संगठन (एस.सी.ओ.) के सदस्य देशों – रूस, चीन और चार मध्य एशियाई राज्य, कज़ाकिस्तान, किरगिस्तान, तज़ाकिस्तान और उज़बेकिस्तान – ने 7 जून, 2012, को बेजिंग में हुई संगठन के राष्ट्र प्रधानों की बैठक के अंत में एक संयुक्त बयान जारी किया जिसमें उन्होंने ईरान और सीरिया में विदेशी दखलंदाजी का विरोध किया।
शांघाई सहयोग संगठन (एस.सी.ओ.) के सदस्य देशों – रूस, चीन और चार मध्य एशियाई राज्य, कज़ाकिस्तान, किरगिस्तान, तज़ाकिस्तान और उज़बेकिस्तान – ने 7 जून, 2012, को बेजिंग में हुई संगठन के राष्ट्र प्रधानों की बैठक के अंत में एक संयुक्त बयान जारी किया जिसमें उन्होंने ईरान और सीरिया में विदेशी दखलंदाजी का विरोध किया।
''हम सोचते हैं कि ईरान के मुद्दे को बलपूर्वक हल करने की कोई भी कोशिश हमें मंजूर नहीं है,'' ऐसा संगठन के बयान में कहा गया। ''इस प्रकार की कोशिशों का अप्रत्याशित गंभीर परिणाम हो सकता है, जिससे इस इलाके में तथा पूरी दुनिया में स्थिरता और सुरक्षा को खतरा होगा।''
सीरिया के बारे में, बयान में कहा गया कि ''ऐसी वार्ताएं हों जो सीरिया की संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता को मान्यता दें।''
रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन और चीन के राष्ट्रपति हू जिंताओ ने सीरिया पर लगाये गये प्रतिबंधों और अमरीका व पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा प्रस्तावित सैनिक दखलंदाजी का विरोध किया। ''हम दोनों विदेशी सैनिक दखलंदाजी के द्वारा और सं.रा. सुरक्षा परिषद व अन्य मंचों में बलपूर्वक 'सत्ता परिवर्तन' को बढ़ावा देकर सीरिया के संकट को हल करने की सभी कोशिशों का डटकर विरोध करते हैं,'' दोनों राष्ट्रपतियों ने कहा। उन्होंने सं.रा. विशेष दूत कोफी अन्नान द्वारा मध्यस्तता की कोशिशों का फिर से समर्थन किया और सीरिया संबंधित झगड़े में शामिल सभी पक्षों से आह्वान किया कि हिंसा बंद करें और वार्ता में भाग लें।
सं.रा. सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य बतौर, चीन और रूस ने हाल के समय में कई बार अपनी वीटो ताकत का इस्तेमाल करके अमरीका और दूसरी पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों के उन प्रस्तावों को खारिज किया है, जिनमें सीरिया पर प्रतिबंध लगाने और वहां सैनिक हस्तक्षेप करने की मांग की गई थी। फरवरी में उन्हाेंने सीरिया के राष्ट्रपति अस्साद को सत्ता से हटाने की मांग करने वाले एक प्रस्ताव का वीटो कर दिया। 1 जून, 2012 को उन दोनों ने सं.रा. के उस प्रस्ताव का वीटो किया, जिसमें इसी वर्ष मई के महीने में हाउला में नागरिकों के कत्लेआम के लिये अस्साद सरकार को दोषी ठहराते हुये सैनिक हस्तक्षेप की मांग की गई थी।
एस.सी.ओ. की बेजिंग में यह बैठक ठीक उसी समय पर हुई जब अमरीकी रक्षा सचिव पैनेटा एशिया में अपनी 9 दिवसीय यात्रा कर रहा था, जिसके दौरान उसने सुरक्षा मुद्दों को लेकर सिंगापुर में (हिन्दोस्तान समेत) 30 से अधिक राष्ट्रों की मुख्य गोष्ठी को संबोधित किया। उसके बाद उसने वियतनाम, हिन्दोस्तान और अफ़गानिस्तान की यात्रा की।
इसी वर्ष, कुछ महीने पहले, अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने घोषणा की थी कि अमरीका आगामी दशकों में सैनिक तौर पर एशिया-प्रशांत महासागर इलाके में एक मुख्य ताकत के रूप में खुद को तैयार करेगा। पैनेटा की यात्रा ने यह दिखाया कि अमरीका अपने इस लक्ष्य की ओर वचनबध्द है। सिंगापुर में उसने जापान, दक्षिण कोरिया, आस्टे्रलिया और सिंगापुर समेत इस इलाके में अमरीका के मुख्य समझौताबध्द मित्रों के साथ अलग-अलग से चर्चा की। उसके बाद वह वियतनाम गया, जो दक्षिण चीन समुद्र में स्थित द्वीपों के मामले को लेकर चीन के साथ गंभीर झगड़े में फंसा हुआ है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि उसने मुख्य तौर पर उन राज्यों से बातचीत की जिनका चीन से कुछ झगड़ा है। परन्तु चीन, जो एशिया – प्रशांत महासागर इलाके में एक मुख्य खिलाड़ी है, उसके साथ पैनेटा ने वार्ता नहीं की। यह अमरीकी रणनीति के अनुसार है, जिसमें एक तरफ चीन के साथ दुतरफा संबंध बनाये रखा जा रहा है और दूसरी तरफ उन ताकतों को बढ़ावा दिया जा रहा है जो चीन को टक्कर दे सकती है।
इससे पूर्व, शिकागो में नाटो शिखर वार्ता के दौरान, बराक ओबामा ने घोषणा की कि यूरोप के खिलाफ़ मिसाइल कवच (जिसका निशाना रूस है) लगभग तैयार है। इस तरह ओबामा ने रूस को भड़काने में अपने नाटो मित्रों को अगुवाई दी। रूस उन मिसाइलों का विरोध करता रहा है, जिनका निशाना वह खुद है और यूरोप के वे देश भी जो भूतपूर्व सोवियत संघ के गणराज्य थे। रूस ने यह चेतावनी भी दी है कि वह इन मिसाइलों के खिलाफ़ रक्षात्मक कदम उठा सकता है। अमरीकी साम्राज्यवाद पश्चिमी और दक्षिणी दिशाओं से रूस को घेरने की कोशिश करता रहा है। उसने अफ़गानिस्तान में अपनी सेना की सप्लाई के रास्तों को स्थापित करने के लिये, उन मध्य एशियाई गणराज्यों के साथ लगातार संबंध बनाया है, जिनकी अफगानिस्तान के साथ सीमा है।
बेजिंग में हुई एस.सी.ओ. बैठक में चीन और रूस द्वारा अमरीकी साम्राज्यवाद की नीति का विरोध इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिये।
हिन्दोस्तान, पाकिस्तान, ईरान और मंगोलिया का एस.सी.ओ. में पर्यवेक्षक का दर्जा है। हिन्दोस्तानी विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा के भाषण से यह स्पष्ट हुआ कि हिन्दोस्तानी शासक वर्ग मध्य एशिया में मुख्य खिलाड़ी बनने को कितना इच्छुक है। कृष्णा ने आग्रह किया कि हिन्दोस्तान को एस.सी.ओ. के पूर्ण सदस्य के रूप में स्वीकार किया जाये। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हिन्दोस्तान ''उत्तर-दक्षिण गलियारे'' के प्रति वचनबध्द है और हिन्दोस्तान तथा एस.सी.ओ. सदस्य देशों के बीच निकट संबंध चाहता है। उन्होंने ऐलान किया कि हिन्दोस्तान अमरीका का सैनिक मित्र नहीं है।
पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़रदारी ने भी एस.सी.ओ. में अपने देश के लिये पूर्ण सदस्यता की मांग की। उन्होंने अफ़गानिस्तान से नाटों ताकतों को वापस बुलाने की मांग की।
इस बात पर ध्यान दिया जाये कि इस वर्ष एस.सी.ओ. ने अफ़गानिस्तान को ''पर्यवेक्षक'' का दर्जा दिया और अपने समापन बयान में अफ़गानिस्तान के ''एक स्वतंत्र, निरपेक्ष, शांतिपूर्ण और खुशहाल राष्ट्र'' बन जाने की इच्छा प्रकट की। रूस और चीन यह अच्छी तरह समझते हैं कि अफगानिस्तान पर नाटो कब्जा और ईरान, सीरिया और पाकिस्तान के खिलाफ़ अमरीका की धमकियां एशिया पर कब्ज़ा करने की अमरीकी रणनीति के हिस्से हैं। अमरीका द्वारा ये कदम एस.सी.ओ. के प्रत्येक सदस्य देश को खतरा पहुंचाते हैं।
बेजिंग में एस.सी.ओ. शिखर बैठक, शिकागो में नाटो शिखर बैठक और अमरीकी रक्षा सचिव पैनेटा की एशिया यात्रा, ये सभी स्पष्ट करते हैं कि विभिन्न साम्राज्यवादी ताकतों के बीच अन्तरविरोध तीखे हो रहे हैं। ये दिखाते हैं कि हमारे इस इलाके में प्रतिक्रियावादी साम्राज्यवादी जंग का खतरा बहुत ही वास्तविक है।