लोक सभा की 60वीं वर्षगांठ के अवसर पर हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान, 20 मई, 2012
लोक सभा के प्रथम सत्र की 60वीं वर्षगांठ को मनाने के लिये, 13 मई को संसद के दोनों सदनों का एक विशेष सत्र आयोजित किया गया था। कांग्रेस पार्टी और भाजपा, माकपा और भाकपा के नेता, जो आम तौर पर आपस में लड़ते रहते हैं, उन सभी ने हाथ मिलाकर एकमत से एक प्रस्ताव पास किय
लोक सभा की 60वीं वर्षगांठ के अवसर पर हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान, 20 मई, 2012
लोक सभा के प्रथम सत्र की 60वीं वर्षगांठ को मनाने के लिये, 13 मई को संसद के दोनों सदनों का एक विशेष सत्र आयोजित किया गया था। कांग्रेस पार्टी और भाजपा, माकपा और भाकपा के नेता, जो आम तौर पर आपस में लड़ते रहते हैं, उन सभी ने हाथ मिलाकर एकमत से एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें उन्होंने संसद के ''सम्मान, पवित्रता और प्रधानता'' की हिमायत करने की वचनबध्दता प्रकट की।
उस अवसर पर सभी पार्टियों के जिन-जिन नेताओं ने बात की, उन सभी ने यह स्वीकार किया कि आज संसद के दोनों सदन बहुत बदनाम हो चुके हैं। सभी वक्ताओं ने सांसदों से आह्वान किया कि वे भविष्य में अपना बर्ताव सुधारें ताकि लोक सभा और राज्य सभा पर जनता की विश्वसनीयता बनी रहे।
संसद की समस्या सिर्फ यह नहीं है कि उसके सदस्य जिम्मेदार तरीके से बर्ताव नहीं करते हैं। समस्या यह है कि दोनों लोक सभा और राज्य सभा और राज्य व्यवस्था तथा उसकी राजनीतिक प्रक्रिया की पूरी बनावट इस पूर्व धारणा पर आधारित है कि हमारी जनता खुद अपना शासन नहीं कर सकती और उसे अपने ऊपर शासन करने के लिये एक विशेष राजनीतिक जाति की ज़रूरत है।
1857 के महान ग़दर, जिसकी 155वीं सालगिरह इस वर्ष 10 मई को थी, के वीरों ने यह ऐलान किया था कि ''हम हैं इसके मालिक, हिन्दोस्तान हमारा!'' जनवरी 1950 में अपनाया गया हिन्दोस्तान का संविधान महान ग़दर के उद्देश्य के साथ संपूर्ण विश्वासघात था। महान ग़दर का उद्देश्य था ब्रिटिश कंपनी राज के खिलाफ़ बग़ावत करने वाले विभिन्न राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं और जनजातियों के जनसमुदायों के हाथों में सर्वोच्च ताकत सौंपना।
1950 का संविधान बड़े जमीन्दारों के साथ गठबंधन बनाये हुये बड़े पूंजीपतियों के तंग हितों के अनुसार बनाया गया था। उनका मकसद था उपनिवेशवादी ढांचे को बरकरार रखना ताकि वे मजदूरों और किसानों पर शासन कर सकें और उन पर अत्याचार कर सकें।
वर्तमान लोकतंत्र की व्यवस्था में, सर्वोच्च फैसले लेने का अधिकार लोक सभा में बहुमत प्राप्त करने वाली पार्टी या गठबंधन के मंत्रीमंडल के हाथों में संकेंद्रित है। बाकी सांसद विपक्ष में बैठते हैं और शासक दल को गिराने व उसकी जगह लेने की कोशिश करते हैं। ''जन प्रतिनिधियों'' के बीच ''वाद-विवाद'' का नाटक किया जाता है, जब कि मंत्रीमंडल पूंजीपतियों के कार्यक्रम को बढ़ावा देने के लिये कार्यकारी फैसले लेता है। मंत्रीमंडल के फैसलों को अफसरशाही चुपचाप, पर्दे के पीछे लागू करता है। लोक सभा और राज्य सभा का काम है बड़े पूंजीपतियों के हित में लिये गये फैसलों को वैधता देना, यानि जनता का नाम लेकर उन फैसलों पर मुहर लगाना।
लोक सभा, जैसा वह इस समय गठित है, पूंजीवादी शासन का स्तंभ है। हिन्दोस्तान के बहुसंख्यक ''लोक'', यानि मजदूरों और किसानों का वह प्रतिनिधि नहीं है।
हिन्दोस्तान को राज्यों का संघ घोषित किया गया है परन्तु 1950 के संविधान में यह इंकार किया जाता है कि हिन्दोस्तान एक बहुराष्ट्रीय देश है जिसमें विभिन्न राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के लोग बसे हुये हैं। राज्य सभा हिन्दोस्तानी संघ के प्रत्येक राज्य के समान प्रतिनिधित्व के असूल पर भी आधारित नहीं है।
जीवन के अनुभव ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मंत्रीमंडल द्वारा लिये तथा लोक सभा व राज्य सभा द्वारा वैधता दिये गये फैसले मेहनतकश बहुसंख्या के हितों के बिल्कुल विपरीत हैं। निजीकरण और उदारीकरण, भूमि अधिग्रहण, बड़ी कंपनियों द्वारा व्यापार को अपने हाथों में लेना, कुदरती संसाधनों की लूट और मेहनतकश जनसमुदाय की खुशहाली पर असर डालने वाले दूसरे अहम मामलों में यही देखा जाता है।
मुट्ठीभर पूंजीपति जिनमें अगुवा हैं टाटा, अंबानी और कुछ दूसरे इजारेदार घराने, उन्हीं के हित में फैसले लिये जाते हैं। यही वर्ग पार्टियों और मंत्रियों को धन देता है ताकि पार्टी और मंत्री यह सुनिश्चित करें कि फैसले हमेशा पूंजीपतियों के मुनाफों को अधिकतम बनाये रखने वाले होंगे। समय-समय पर चुनाव आयोजित किये जाते हैं यह दिखावा करने के लिये कि ''जनमत'' के अनुसार शासन किया जा रहा है। असलियत में चुनावों से पूंजीपति वर्ग अपने अंदरूनी झगड़ों को हल करता है और उस पार्टी या गठबंधन को चुनता है जो सबसे बेहतर तरीके से पूंजीवादी कार्यक्रम को लागू करते हुये, लोगों को बुध्दू बना सकता है। सरकार में किसी एक पार्टी की जगह पर किसी दूसरी पार्टी को लाने से यह सच्चाई नहीं बदलती कि हमेशा पूंजीपति वर्ग की मर्जी ही लागू होती है।
बीते दो दशकों में मजदूरों, किसानों, महिलाओं और नौजवानों के विभिन्न संगठनों व कार्यकर्ताओं ने लोकतंत्र की व्यवस्था और राजनीतिक प्रक्रिया के संपूर्ण नवीकरण और पुनर्गठन की मांग की है, ताकि सर्वोच्च ताकत जनता के हाथ में हो। जनता को सत्ता में लाने के इस आंदोलन में हमारी पार्टी एक सक्रिय भागीदार रही है।
जो लोग ''संसद की प्रधानता'' की हिमायत और हिफ़ाज़त करने की कसम खा रहे हैं, वे मेहनतकश जनसमुदाय को सत्ता में लाने के किसी भी कदम के कट्टर विरोधी हैं। वे यह सोच फैलाने की कोशिश कर रहे हैं कि वर्तमान व्यवस्था में बेशक बहुत सी खामियां हैं परन्तु यह सबसे अच्छी व्यवस्था है और हर कीमत पर इसकी रक्षा की जानी चाहिये। लोक सभा और राज्य सभा को सुधार कर मजदूरों और किसानों के शासन के स्तंभ नहीं बनाये जा सकते। अगर मेहनतकश लोग शासक बनेंगे तो एक नये प्रकार के लोकतंत्र की ज़रूरत होगी।
इस नये लोकतंत्र की व्यवस्था की रचना करने के लिये मजदूर वर्ग को किसानों व दूसरे मेहनतकशों को अगुवाई देनी होगी। फौरी काम है शहरों और गांवों में मजदूरों और किसानों की सभाओं और निर्वाचित समितियों का निर्माण करना व उन्हें मजबूत करना। इस प्रकार के तंत्रों की नींव बनाकर, हमें एक नये राज्य का ढांचा और नयी राजनीतिक प्रक्रिया बनानी होगी, जिसमें मजदूर और किसान सर्वोच्च फैसले लेने वाले संस्थानों में अपने ही बीच में से सबसे अच्छे नुमाइंदों का चयन व चुनाव करके बिठा सकते हैं।
जो लोग खुद को कम्युनिस्ट कहलाते हैं पर लोक सभा और ''संसद की प्रधानता'' की तारीफ और हिफ़ाज़त करते हैं, वे बहुत नुकसान पहुंचा रहे हैं। वे मजदूरों और किसानों के राज के संघर्ष में रुकावट बन रहे हैं।
लोक सभा और राज्य सभा के 60 वर्ष के अनुभव से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक पुनर्गठित, स्वेच्छा पर आधारित हिन्दोस्तानी संघ में, पूंजीवादी शासन व्यवस्था की जगह पर मजदूरों और किसानों के राज को स्थापित करने के कार्यक्रम के इर्द-गिर्द एकजुट होने की ज़रूत है। ऐसा करके ही हमारे शहीदों का पैगाम पूरा होगा।