रेल चालकों के प्रति रेलवे मंत्रालय के बेरुख़े बर्ताव की निंदा करो!

जैसा कि मज़दूर एकता लहर के मार्च 1 से 15 के अंक में प्रकाशित किया गया था, केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने रेल चालकों की शिकायतों पर विचार करने के लिये एक राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल नियुक्त किया था। सरकार को ऐसा करना पड़ा क्योंकि रेल चालकों ने 3 व 4 मई, 2010 को दो दिवसीय आंदोलन किया, जिससे मुंबई की रेल सेवायें  पूरी तरह से ठप्प हो गयी थीं। आंदोलन के और तेज़ होने के ख़तरे को टालने के लिये ट्रिब्यूनल

जैसा कि मज़दूर एकता लहर के मार्च 1 से 15 के अंक में प्रकाशित किया गया था, केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने रेल चालकों की शिकायतों पर विचार करने के लिये एक राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल नियुक्त किया था। सरकार को ऐसा करना पड़ा क्योंकि रेल चालकों ने 3 व 4 मई, 2010 को दो दिवसीय आंदोलन किया, जिससे मुंबई की रेल सेवायें  पूरी तरह से ठप्प हो गयी थीं। आंदोलन के और तेज़ होने के ख़तरे को टालने के लिये ट्रिब्यूनल की नियुक्ति की गई।

ट्रिब्यूनल की पहली सुनवाई 26 मार्च, 2012 को मुंबई में हुयी। ऑल इंडिया लोको रनिंग स्टाफ एसोसियेशन (ए.आई.एल.आर.एस.ए.) के नेतृत्व में भारतीय रेल के रेल चालकों ने अपनी शिकायतों को ट्रिब्यूनल के सामने पेश किया। जब न्यायाधीश सराफ ने रेल मंत्रालय से प्रतिक्रिया पूछी तब उसे फैक्स के जरिये बताया गया कि उसे सुनवाई बंद करनी चाहिये क्योंकि रेल मंत्रालय पहले ही रेल चालकों की मांगों पर गौर कर रहा है! फिर भी ट्रिब्यूनल ने सुनवाई की अगली तारीख 25अप्रैल तय की थी और न्यायाधीश ने घोषणा की कि अगर रेल मंत्रालय अपना विचार पेश नहीं करता तब, ट्रिब्यूनल को रेल चालकों के पक्ष की प्रस्तुति के आधार पर ही अपना निर्णय देना पड़ेगा।

26 अप्रैल को हुयी ट्रिब्यूनल की सुनवाई में रेल मंत्रालय फिर से उपस्थित नहीं था। ट्रिब्यूनल ने घोषणा की कि रेल मंत्रालय को एक अंतिम मौका 30 मई, 2012 को होने वाली अगली सुनवाई में दिया जायेगा। अगर वे इस सुनवाई में भी नहीं आते तो ट्रिब्यूनल को अपना फैसला सिर्फ एक पक्ष की गवाही के आधार पर ही देना पड़ेगा!

लगातार रेल मंत्रालय की राष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के सामने गैर-मौजूदगी दिखाती है कि वह रेल चालकों की समस्याओं के प्रति कितना उदासीन है। रेल चालकों की शिकायतें उचित हैं। रेल मंत्रालय का दायित्व है कि वह इनका समाधान निकाले। म.ए.ल. सरकार के मजदूर-विरोधी रवैये का खंडन करती है।

रेलवे कर्मचारियों के वेतन में कटौती के प्रस्ताव का विरोध करो!

नयी दिल्ली में हुये रेलवे के महाप्रबंधकों के सम्मेलन में रेलवे चलाने के खर्चे को कम करने के लिये कर्मचारियों के वेतन व महंगाई भत्ते में कम से कम 5 प्रतिशत कटौती करने का प्रस्ताव रखा गया! दावा किया गया है कि इससे 2,122 करोड़ रु. की बचत होगी!

भारतीय रेलवे के महाप्रबंधकों के इस प्रस्ताव के बारे में म.ए.ल. ने ऑल इंडिया रेलवे एम्प्लोईज़ कन्फेडरेशन  के मुंबई अध्यक्ष व वेस्टर्न रेलवे मोटरमेन्स एसोसियेशन के सलाहकार, कॉमरेड बी.एस. रथ से साक्षात्कार किया। इस साक्षात्कार के कुछ अंश नीचे दे रहे हैं।

का. बी.एस. रथ: रेलवे के घाटे के लिये मज़दूरों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। हमारे वेतनों में कटौती के इस प्रस्ताव से हम कदापि सहमत नहीं हैं। पहले से ही ए.आई.एल.आर.एस.ए. के नेतृत्व में रेल चालक अपने अन्यायपूर्ण वेतनमान और अपर्याप्त परिचालन भत्ते के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं। लगता है कि रेल चालकों को उचित वेतन संशोधन से वंचित रखने का यह एक और कदम है।

हम सभी जानते हैं कि मुनाफे के हवाई मार्गों को निजी हवाई कंपनियों को दे कर, राष्ट्रीय हवाई कंपनी एयर इंडिया को घाटे में डाला गया है। इसी तरह, रेलवे की फायदेमंद गतिविधियों का निजीकरण करने के बाद रेलवे अधिकारी अब घाटे में चलने के आंसू बहा रहे हैं।

रेलवे के मंडलों को 9 से बढ़ाकर 17 करने से, इन मंडलों की आला कमानों को चलाने के खर्चे बढ़े हैं। उन्होंने अफसरों के पद भी बढ़ाये हैं जबकि निचले दर्जे के पदों में, “मैचिंग पद त्यागने” के नाम पर कमी की है (इसके अनुसार, एक अफसर का नया पद बनाने के लिये एक मज़दूर का पद कम करना पड़ता है!)। इससे निम्न स्तर के कर्मचारी का कार्यभार बढ़ा है। मंडलों के बढ़ने से महाप्रबंधकों, मंडलीय रेलवे प्रबंधकों, आदि जैसे उच्च पदों की संख्या बहुत बढ़ी है। इन अफसरों की खर्चीली जीवन शैली से सभी परिचित हैं, जो बस्तीवादी काल से जारी है जब ये अफसर अंग्रेज हुआ करते थे। मंडलों के विस्तार से रेलवे की आमदनी में कोई बढ़ोतरी नहीं हुयी है।

विभिन्न परियोजनाओं में धनराशि की अपराधिक फिजूलखर्ची हुयी है। मैं सिर्फ पश्चिम रेलवे के कुछ उदाहरण दूंगा:

क)     आधुनिकीकरण के नाम पर, उपकरणों को बहुत अधिक दामों पर खरीदा जा रहा है। उदाहरण के लिये मुंबई, दिल्ली, चेन्नई व कोलकाता जैसे महानगरों में मेट्रो में ए.सी.-डी.सी. रेलगाडि़यों के लिये उर्जा मीटर लगाये गये हैं। इनकी कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि इन रेलगाडि़यों में लगे कम्प्यूटरों से यह सूचना बिना मीटरों के मिलती है। प्रत्येक ऊर्जा मीटर की कीमत 2 लाख रु. है। हर रेलगाड़ी में 6 मीटर लगाये जाते हैं। हर रेलवे में करीब 100 रेलगाडि़यां औसत मानी जा सकती हैं। मुंबई में ही 25 करोड़ रु. का नुकसान हुआ है व चारों महानगरों में कुल नुकसान 60 करोड़ से भी ज्यादा है!

ख)     रेलगाडि़यों को डी.सी. से ए.सी. बनाना धनराशि की फिजूलखर्ची है क्योंकि ए.सी. रेलगाडि़यां कम साल चलती हैं और ये तेजी से रफ्तार भी नहीं पकड़ती हैं।

ग)     रेलगाडि़यों की लंबाई बढ़ाने के कारण माटुंगा रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म की लंबाई बढ़ानी पड़ी थी। इसकी वजह से नजदीक की समतल रेलवे पार-गमन (लेवल क्रौसिंग) की सुरक्षा में लगे एक सिग्नल की दूरी घट गयी। बहुत खर्चा करके एक नंबर के प्लेटफॉर्म के दक्षिणी छोर के सिग्नल को दूर किया गया। परन्तु इसके 15 दिन के अंदर ही समतल पार-गमन को पूरी तरह बंद कर दिया गया। अतः सिग्नल को दूर करने का खर्चा पूरी तरह से फिजूल साबित हुआ। रेलवे के एक विभाग को नहीं पता कि दूसरा विभाग क्या कर रहा है। इनमें कोई तालमेल नहीं है।

घ)     सांता क्रूज और विले पार्ले के बीच पश्चिमी तरफ एक पावर का सब-स्टेशन बनाया गया। इसी अनुभाग में हार्बर लाईन की रेलगाडि़यों को चलाने की योजना के लिये इसे उखाड़ कर पूर्वी तरफ ले जाना पड़ा! फिर एक बार यह दिखाता है कि अलग-अलग विभागों के बीच कोई तालमेल नहीं है।

ड)     बांद्रा-खार हवाई पुल धनराशि की फिजूलखर्ची का एक और उदाहरण है। रेलवे ने तर्क दिया था कि वी.टी. से हार्बर लाईन की रेलगाडि़यों को पूर्वी तरफ चलाने से बान्द्रा मार्शलिंग यार्ड (बामी) से आने वाली मालगाडि़यों को रुकावट आयेगी। परन्तु वसई दीवा लाईन के चालू होने से बामी से रेलगाडि़यां आनी ही बंद हो गयीं। हार्बर लाईन को पूर्वी तरफ चलाने से रेल यातायात के प्रबंधन में बहुत फायदा था क्योंकि मध्य रेलवे इस रेल मार्ग पर एक घंटे में पांच से ज्यादा रेलगाडि़यां चलाने में असमर्थ था और बाकी समय गोरेगांव तक पश्चिम रेलवे की उपनगरीय सेवा के लिये इस रेल मार्ग का इस्तेमाल हो सकता था। बांद्रा-खार हवाई पुल से बची धनराशि को मलाड़ पर ऊंचे रेलमार्ग के लिये इस्तेमाल किया जा सकता था ताकि हार्बर लाईन को बोरिविलि तक ले जाया जा सकता था।

च)     वसई दीवा लाईन में पहले सिर्फ एक पटरी लगाई गयी थी। यहां पहले से ही दो पटरियां बिछानी चाहिये थी। दो पटरियां लगाने से सिग्नल के खर्चे में बहुत बचत होती थी और साथ ही ज्यादा रेलगाडि़यां चलाने की क्षमता बनती थी जिसका अनुमान पहले से ही लगाया जा सकता था। अब दो दशकों के बाद वो भूमि अधिग्रहण और नये सिग्नल प्रणाली के विशाल खर्चे के साथ दूसरी पटरी बिछाना चाहते हैं। भविष्य के लिये उचित योजना नहीं बनायी जाती है।

छ)     मरीन लाईन्स का टिकट-घर हवाई पुल पर बनाया गया है जिसकी नींव सात मंजिली इमारत के लिये बनायी गयी है, परन्तु हवाई पुल पर तो ऐसी इमारत बनायी नहीं जा सकती है!

ऊपर के उदाहरण भारतीय रेलवे द्वारा धांधली और कुप्रबंधन के कुछेक उदाहरण हैं।

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